Sarhad aur Syahi (a love story) in Hindi Love Stories by bekhbar books and stories PDF | सरहद और स्याही (a love story)

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सरहद और स्याही (a love story)

अध्याय 1: एक अजनबी संदेश

रात के 12:30 बज रहे थे। यूनिवर्सिटी हॉस्टल का कमरा बिल्कुल शांत था, सिवाय सीलिंग फैन की एक लयबद्ध धीमी आवाज़ के। टेबल लैंप की पीली रोशनी में आरोही अपनी M.A. लिटरेचर की किताबों में उलझी थी, लेकिन उसका ध्यान पढ़ाई में कम और फ़ोन की ब्लिंक होती लाइट पर ज्यादा था।
उसने अभी-अभी अपनी एक टूटी-फूटी शायरी इंस्टाग्राम स्टोरी पर डाली थी:
"सरहदों पर जो सन्नाटा है, वो शोर है किसी के इंतज़ार का..."
उसे उम्मीद थी कि हमेशा की तरह सहेलियों के 'हार्ट इमोजी' आएंगे। लेकिन तभी एक नोटिफिकेशन आया। एक अनजान नाम—'Soldier_Vikram'।
उसने मैसेज खोला। कोई 'Hi' या 'Hello' नहीं। बस एक बेहद संजीदा लाइन लिखी थी:
"और जो सरहद पर खड़ा है, उसका शोर सिर्फ़ हवाएं सुनती हैं, मैडम।"
आरोही एक पल के लिए ठिठक गई। उसने प्रोफाइल खोली—कोई फोटो साफ़ नहीं थी, बस धुंध और वर्दी का साया था। बायो में लिखा था: Indian Army | Somewhere in the Mountains.
जिज्ञासावश उसने जवाब टाइप किया: "क्या आप शायर हैं?"
तकरीबन 5 मिनट बाद जवाब आया: "नहीं, सिपाही हूँ। बस कभी-कभी खामोशी पढ़ लेता हूँ।"
उस रात, आरोही ने हिचकिचाते हुए 'Follow' बटन दबा दिया। कुछ देर बाद नोटिफिकेशन आया—Soldier_Vikram accepted your request. Soldier_Vikram started following you.
उसने विक्रम की एक तस्वीर—जिसमें बर्फीली पहाड़ियों के बीच एक स्टील के गिलास में चाय रखी थी—को लाइक किया और फ़ोन सीने से लगाकर सो गई। उसे लगा एक नई दोस्ती की शुरुआत हो गई है।

अध्याय 2: खामोश इंतज़ार

अगली सुबह से आरोही का इंतज़ार शुरू हुआ। एक दिन बीता, दो दिन बीते... और देखते ही देखते हफ़्ता गुज़र गया।
आरोही का फ़ोन अब उसके हाथ का हिस्सा बन गया था। हर बीप पर उसका दिल धड़कता—"शायद विक्रम का मैसेज हो?" लेकिन हर बार निराशा हाथ लगती।
पाँचवे दिन तक उसकी जिज्ञासा गुस्से में बदलने लगी। उसने नोटिस किया कि विक्रम उसकी 'Stories' देख रहा था। व्यूअर लिस्ट में उसका नाम सबसे ऊपर होता, लेकिन इनबॉक्स बिल्कुल खाली था।
"देखता सब है, पर बोलता कुछ नहीं। कितना घमंडी है ये!" आरोही ने झुंझलाकर सोचा।
आठवाँ दिन:
शाम ढल रही थी। आरोही लाइब्रेरी में बैठी थी। आठ दिन की चुप्पी ने उस पहली बातचीत की गर्माहट को ठंडा कर दिया था। उसे लगा कि शायद उसने ही ज्यादा सोच लिया था। अपनी डायरी खोली और अपनी नाराज़गी को शब्दों में उतारकर एक नई पोस्ट कर दी, जो सीधे तौर पर उस 'खामोश सिपाही' के लिए थी:
"सुना था पहाड़ खामोश रहते हैं,
पर पत्थर दिल होते हैं, यह आज जाना।"
उसने डेटा ऑफ किया और सोने चली गई। उसे नहीं पता था कि हज़ारों किलोमीटर दूर, बर्फीली हवाओं के बीच एक बंकर में बैठा विक्रम, अपने दस्ताने उतारकर ठिठुरती उंगलियों से वही पोस्ट पढ़ रहा था।

अध्याय 3: पिघलती बर्फ

अगली सुबह जब आरोही की आँख खुली, तो नोटिफिकेशन बार में एक मैसेज चमक रहा था। भेजने वाला वही था—Soldier_Vikram।
उसने मैसेज खोला। विक्रम ने उसकी कल रात वाली 'नाराज़गी भरी पोस्ट' का जवाब भेजा था:
"पहाड़ पत्थर दिल नहीं होते मैडम, बस मजबूर होते हैं।
हमें पिघलने की इजाज़त नहीं होती, वरना नीचे बस्तियां डूब जाएंगी..."
आरोही की सारी शिकायत, सारा गुस्सा एक पल में हवा हो गया। उस एक लाइन में विक्रम ने अपनी मजबूरी और अपनी ज़िम्मेदारी, दोनों कह दी थीं। वह समझ गई कि उसकी खामोशी घमंड नहीं, ड्यूटी थी।
उसने तुरंत जवाब दिया: "तो अब क्या पहाड़ को बात करने की इजाज़त मिल गई है?"
उधर से जवाब आया: "दुश्मन और नेटवर्क, दोनों बताकर नहीं आते। अभी नेटवर्क मिला, तो सोचा आपकी गलतफहमी दूर कर दूँ। मैं विक्रम। कैप्टन विक्रम सिंह।"
आरोही मुस्कुरा दी: "मैं आरोही। माफ़ कीजियेगा, मैंने आपको पत्थर समझ लिया था।"
उस दिन के बाद, उनकी एक अलग ही दुनिया बस गई।
आरोही उसे अपनी लिखी ग़ज़लें और किताबों की तस्वीरें भेजती, और बदले में विक्रम उसे पहाड़ों के वीडियो भेजता।
एक बार आरोही ने पूछा, "डर नहीं लगता वहाँ अकेले?"
विक्रम ने अपने साथियों (Platoon) के साथ हँसते हुए फोटो भेजी और लिखा:
"अकेले कहाँ हूँ? ये सब मेरे भाई हैं। और डर गोलियों से नहीं लगता आरोही जी, डर तब लगता है जब घर से आई चिट्ठी में लिखा हो कि 'माँ बीमार है'।"
उस दिन आरोही को एहसास हुआ कि वह सिर्फ़ एक लड़के से नहीं, बल्कि एक जज़्बे से जुड़ी है। दो अलग दुनिया—एक किताबों वाली और एक बारूद वाली—अब एक महीन धागे से बंध चुकी थीं।

अध्याय 4: पहचान की परतें 

दिन बीतते गए और उनका वर्चुअल (Virtual) रिश्ता गहरा होता गया। अब सिर्फ़ 'Good Morning' या 'Good Night' नहीं, बल्कि उनकी बातें लंबी रातों में तब्दील हो गई थीं। सरहद की बर्फीली हवाओं और हॉस्टल की चार दीवारों के बीच, दो अजनबी एक-दूसरे को अपनी दुनिया में झांकने का मौका दे रहे थे।
एक रात, जब नेटवर्क थोड़ा स्थिर था, बातों का सिलसिला 'आदतों' पर चल निकला।
चाय बनाम कॉफी (The Debate)
विक्रम ने एक फोटो भेजी—कांच के गिलास में काली कॉफी की।
"फौज में नींद भगाने के लिए पीनी पड़ती है। कड़वी है, पर आदत हो गई है," उसने लिखा।
आरोही ने नाक सिकोड़ते हुए इमोजी भेजा। "कॉफी? उफ्फ! शायर और लेखक सिर्फ़ चाय पर ज़िंदा रहते हैं कैप्टन। अदरक वाली मीठी चाय। आपकी ये 'काली पानी' जैसी कॉफी मुझे तो नहीं पचेगी।"
विक्रम ने हंसने वाला स्माइली भेजा। "कभी -20 डिग्री में आइए मैडम, यहाँ अदरक नहीं मिलती, बस हौसला और ये कड़वी कॉफी ही गर्मी देती है।"
उस रात उन्हें पता चला कि उनकी आदतें कितनी अलग थीं।
विक्रम: सुबह 4 बजे उठने वाला, हर चीज़ करीने से रखने वाला, और पुराने किशोर कुमार के गानों का शौक़ीन। उसने बताया, "यहाँ सन्नाटा बहुत होता है आरोही, इसलिए पुराने गाने सुकून देते हैं।"
आरोही: रात को 2 बजे तक जागने वाली, कमरे में किताबें फैलाकर रखने वाली, और जिसे बारिश से तो प्यार था लेकिन बादलों की गरज से डर लगता था।
जब आरोही ने बताया कि उसे बिजली कड़कने से डर लगता है, तो विक्रम ने मज़ाक किया: "यहाँ तो रोज़ पहाड़ों में धमाके (artillery) होते हैं। अगर आप यहाँ होतीं, तो शायद रजाई से बाहर ही नहीं आतीं।"
आरोही ने जवाब दिया, "शायद... पर अगर कोई रजाई में छुपाने वाला हो, तो डर कम लगता है।"
मैसेज भेजने के बाद आरोही को एहसास हुआ कि यह कुछ ज्यादा ही पर्सनल हो गया था, लेकिन विक्रम ने कोई मज़ाक नहीं उड़ाया। बस एक 'हार्ट' (❤️) रिएक्ट किया।
परिवार: जड़ों की बात (The Roots)
फिर बात निकली 'घर' की।
विक्रम ने पहली बार अपनी 'फौजी वाली सख्त छवि' तोड़ी।
"मेरा घर एक छोटे से गाँव में है, हरियाणा के पास," विक्रम ने टाइप किया। "माँ है, जो ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है। उसे बस इतना पता है कि बेटा 'बॉर्डर' पर है। जब भी फ़ोन करता हूँ, वो ये नहीं पूछती कि 'दुश्मन कितने थे?', वो बस पूछती है—'बेटा, खाना खाया?'"
आरोही की आँखों में नमी आ गई। उसने महसूस किया कि वर्दी के पीछे एक बेटा भी है जो अपनी माँ के हाथ का खाना मिस करता है।
आरोही ने अपने बारे में बताया, "मैं अपने पापा की लाडली हूँ। वो थोड़ा सख्त हैं, चाहते हैं मैं प्रोफेसर बनूँ। उन्हें मेरी शायरी 'वक़्त की बर्बादी' लगती है। उन्हें लगता है मैं सपनों की दुनिया में जीती हूँ।"
विक्रम ने जवाब दिया: "उन्हें कहियेगा, सपनों की दुनिया ही तो है जिसे बचाने के लिए हम हक़ीक़त में गोली खाते हैं। आपके सपने ज़रूरी हैं, आरोही।"
उस रात, आरोही को लगा कि पहली बार किसी ने उसके लिखने के शौक को इतनी इज़्ज़त दी है। वो लड़का, जो बंदूक चलाता है, उसके कलम की ताकत को समझ रहा था।
एक अनकहा वादा
बातों-बातों में सुबह के 3 बज गए। विक्रम को पेट्रोलिंग पर जाना था।
"जाना होगा। सूरज निकलने वाला है," विक्रम ने लिखा।
"ध्यान रखना," आरोही ने जल्दी से टाइप किया।
"किसका? अपना या देश का?" विक्रम ने छेड़ा।
"दोनों का... क्योंकि देश को आपकी ज़रूरत है, और..." आरोही ने टाइप किया, फिर बैकस्पेस दबाकर मिटा दिया और बस लिखा— "और माँ इंतज़ार कर रही होंगी।"
विक्रम समझ गया जो नहीं लिखा गया था।
"जी मैडम। जय हिन्द।"
उस रात आरोही ने अपनी डायरी में लिखा:
"वो अपनी माँ की कहानियाँ सुनाता है, और मैं अपने पिता की शर्तें।
दो अलग छतें, पर आसमान एक ही है हम दोनों का।"

अध्याय 5: लफ़्ज़ों का तोहफा 

अक्टूबर की 20 तारीख आने वाली थी। बातों-बातों में कुछ दिन पहले विक्रम ने ज़िक्र किया था कि उसका जन्मदिन आने वाला है।
19 तारीख की शाम को आरोही अपने हॉस्टल के कमरे में कैलेंडर देख रही थी। अचानक उसे ध्यान आया—"अरे! कल तो विक्रम का बर्थडे है!"
एक पल के लिए वह बहुत खुश हुई, लेकिन अगले ही पल उसका चेहरा उतर गया। वह सोचने लगी, "मैं यहाँ से क्या भेजूँ? न केक भिजवा सकती हूँ, न कोई कार्ड, न ही कोई गिफ्ट। कूरियर भी वहां पहुँचने में हफ़्तों लगा देगा।"
वह खिड़की के पास खड़ी होकर आसमान को देखने लगी। उसे महसूस हुआ कि भले ही वह कोई 'चीज़' (Material Gift) नहीं भेज सकती, लेकिन वह उसे कुछ ऐसा दे सकती है जो दुनिया की कोई भी कूरियर सर्विस नहीं ले जा सकती—उसका अहसास।
उसने अपनी डायरी खोली और अपनी कलम उठाई। आज उसे किसी शायर की ग़ज़ल कॉपी नहीं करनी थी, आज उसे वो लिखना था जो उसका दिल महसूस कर रहा था। उसने विक्रम की उस 'बर्फीली दुनिया' और अपनी 'इंतज़ार वाली दुनिया' को शब्दों में पिरोना शुरू किया।
घड़ी की सुई जैसे ही रात के 12:00 पर पहुँची, उसने विक्रम की चैट खोली।
टाइप करने से पहले उसकी उंगलियाँ कांप रही थीं। उसने एक लंबी सांस ली और अपनी लिखी हुई नज़्म (Poetry) भेज दी।
आरोही की नज़्म:
*"सुना है वहाँ बर्फ बहुत गिरती है,
तो मैंने अपने हिस्से की धूप,
एक लिफ़ाफ़े में बचा रखी है...
जब भी ठंड लगे, तो याद कर लेना,
कि मीलों दूर कोई है,
जिसने तुम्हारी सलामती की दुआ,
अपनी हथेलियों पर जला रखी है।
तुम्हें केक या तोहफे तो नहीं भेज सकती,
सरहद की लकीरें शायद कूरियर रोक दें...
पर मेरी ये नज़्म, हवाओं से गुज़रकर,
तुम्हारे कानों में बस इतना कहेगी—
'तुम महफ़ूज़ रहना,
क्योंकि मेरी कहानी का हीरो तुम ही हो।'
जन्मदिन मुबारक, फौजी साहब।"*
मैसेज 'Sent' हो गया।
आरोही को उम्मीद थी कि विक्रम सो गया होगा क्योंकि फौज में दिन जल्दी शुरू होता है। वह फ़ोन तकिये के नीचे रखकर लेटने ही वाली थी कि फ़ोन की स्क्रीन जगमगा उठी।
Soldier_Vikram: Online
Soldier_Vikram is typing...
आरोही की धड़कनें रुक गईं। क्या वह जागा हुआ था?
एक मिनट बीता... दो मिनट बीते... विक्रम कुछ लंबा टाइप कर रहा था।
फिर मैसेज आया।
विक्रम का जवाब:
"जिंदगी में पहली बार किसी ने मेरे जन्मदिन पर मुझे 'हीरो' बोला है। यहाँ बंकर में हम केक नहीं काटते आरोही, अक्सर तारीख भी भूल जाते हैं। पर आज तुमने मुझे याद दिला दिया कि मैं ज़िंदा हूँ। तुम्हारी ये 'धूप' मुझ तक पहुँच गई है। आज तक का सबसे बेहतरीन तोहफा। शुक्रिया।"
उसके बाद एक और छोटा सा मैसेज आया:
"क्या मैं तुम्हें सुन सकता हूँ? बस 2 मिनट के लिए?"
आरोही का दिल ज़ोर से धड़का। यह पहली बार था जब विक्रम ने कॉल की मांग की थी।


अध्याय 6: आवाज़ का जादू 

आरोही ने कांपते हाथों से टाइप किया: "हाँ... कॉल कर लो।"
उसने मेसेज भेजा और तुरंत उठकर बैठ गई। उसने अपना गला साफ़ किया, बालों को ठीक किया (हालाँकि वो उसे देख नहीं सकता था, पर यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी)।
अगले ही पल, फ़ोन की स्क्रीन जगमगा उठी।
Incoming Audio Call: Soldier_Vikram
हॉस्टल के उस शांत कमरे में रिंगटोन की आवाज़ उसे बहुत तेज़ लगी। उसने एक लंबी सांस ली और हरे बटन को स्वाइप करके फ़ोन कान से लगा लिया।
शुरुआत के 5 सेकंड तक दोनों तरफ सिर्फ़ सन्नाटा था।
आरोही को अपनी धड़कनें सुनाई दे रही थीं, और उधर से... उधर से तेज़ हवाओं के चलने की सांय-सांय आवाज़ आ रही थी।
"हेलो?" आरोही ने बहुत धीमे स्वर में कहा, जैसे उसे डर हो कि तेज़ बोलने से कॉल कट जाएगी।
उधर से एक गहरी, भारी, और थोड़ी थकी हुई आवाज़ आई—ऐसी आवाज़ जो सीधे दिल में उतर जाए।
"हेलो... आरोही?"
उसने पहली बार अपना नाम उसकी आवाज़ में सुना था। किसी ने उसका नाम इतनी संजीदगी और अपनापन लिए हुए पहले कभी नहीं पुकारा था।
"जी... जन्मदिन मुबारक हो, विक्रम," आरोही की आवाज़ में हल्की थरथराहट थी।
विक्रम हंसा। उसकी हंसी थोड़ी खुरदुरी थी, जैसे सर्दी ने गले को जकड़ रखा हो।
"शुक्रिया। सच कहूँ तो... तुम्हारी लिखी वो लाइनें पढ़ने के बाद, मैं सिर्फ़ शब्दों से जवाब नहीं देना चाहता था। मुझे यकीन करना था कि तुम सच में हो, कोई सपना नहीं।"
आरोही मुस्कुरा दी, उसकी आँखों में पानी भर आया। "मैं सच हूँ कैप्टन। और मेरी नज़्म भी सच है।"
विक्रम कुछ पल चुप रहा। फिर बोला, "तुम्हारी आवाज़... बिल्कुल वैसी है जैसा मैंने सोचा था। सुकून देने वाली। यहाँ बाहर माइनस 15 डिग्री तापमान है, हवा हड्डियों को चीर रही है... पर तुम्हारी आवाज़ सुनकर लग रहा है जैसे अलाव (bonfire) के पास बैठा हूँ।"
आरोही का चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसने बात बदलने की कोशिश की। "पीछे बहुत शोर आ रहा है। आप कहाँ हैं?"
"बंकर के बाहर। अंदर नेटवर्क नहीं आता। अभी पहाड़ की चोटी पर बैठा हूँ, जहाँ से नेटवर्क की एक डंडी (bar) मिल रही है," विक्रम ने बताया।
"इतनी ठण्ड में बाहर? प्लीज आप अंदर जाइये, बीमार पड़ जाएंगे," आरोही ने फिक्र से कहा।
"फौजी बीमार नहीं पड़ते मैडम, या तो ड्यूटी पर होते हैं या शहीद होते हैं," विक्रम ने मज़ाक किया, लेकिन फिर संभल गया, "मज़ाक कर रहा हूँ। बस तुम्हारी आवाज़ सुननी थी। अब चला जाऊंगा।"
तभी पीछे से किसी और की आवाज़ आई (शायद किसी साथी फौजी की) — "साहब! राउंड का टाइम हो गया!"
विक्रम की आवाज़ थोड़ी जल्दबाज़ी में बदल गई। "आरोही, मुझे जाना होगा। ड्यूटी बुला रही है।"
"ध्यान रखना अपना," आरोही ने जल्दी से कहा।
"तुम भी। और हाँ... वो नज़्म... मैंने अपनी डायरी में उतार ली है। जब भी डर लगेगा, उसे पढ़ लूँगा।"
"जय हिन्द," विक्रम ने कहा।
"जय हिन्द," आरोही ने जवाब दिया।
कॉल कट गई।
आरोही ने फ़ोन को सीने से लगा लिया। बात मुश्किल से 2 मिनट हुई थी, लेकिन उन दो मिनटों ने उनके रिश्ते की परिभाषा बदल दी थी। अब वे सिर्फ़ 'Online Friends' नहीं थे।
उस रात आरोही को नींद नहीं आई। उसके कानों में विक्रम की वो गहरी आवाज़ गूंजती रही—"तुम्हारी आवाज़ सुनकर लग रहा है जैसे अलाव के पास बैठा हूँ।"


अध्याय 7: फासलों में नज़दीकियां

उस पहली कॉल के बाद, उनके बीच की झिझक की दीवार पूरी तरह गिर गई। बातों का वो सिलसिला, जो एक हिचक के साथ शुरू हुआ था, अब उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा बन गया था।
आदतों का बदलना
आरोही, जो पहले रात को देर तक जागकर पढ़ती थी, अब सुबह जल्दी उठने लगी थी—सिर्फ़ इसलिए ताकि विक्रम के पीटी (PT) परेड पर जाने से पहले उसे 5 मिनट बात करने का वक़्त मिल सके।
उधर विक्रम, जिसे अपनी सख्त दिनचर्या (Routine) से प्यार था, अब लंच ब्रेक में खाना जल्दी ख़त्म कर लेता था, ताकि बंकर के पीछे जाकर नेटवर्क ढूंढ सके और आरोही का हाल जान सके।
अब बातें सिर्फ़ शायरी नहीं थीं
शुरुआत में जहाँ वे सिर्फ़ गहरी और दार्शनिक बातें करते थे, अब वे 'बच्चों' जैसी बातें भी करने लगे थे।
आरोही उसे बताती कि आज मेस (Mess) में दाल कितनी बेकार बनी थी या प्रोफेसर ने उसे क्लास में डांटा।
विक्रम उसे बताता कि आज उसके साथी फौजी ने कैसे बर्फ़ में फिसलकर सब को हंसाया।
वे एक-दूसरे की 'ज़िंदा डायरी' बन गए थे।
एक अनकहा रिश्ता
यूनिवर्सिटी में आरोही की सहेलियाँ उसे चिढ़ाने लगी थीं। वो अक्सर देखतीं कि आरोही इयरफोन लगाकर, कोने में बैठकर मंद-मंद मुस्कुरा रही है।
"कौन है वो?" सहेलियाँ पूछतीं।
"सिर्फ़ दोस्त है," आरोही कहती, लेकिन उसकी आँखों की चमक कुछ और ही कहानी बयां करती थी।
उधर सरहद पर, विक्रम के साथी भी बदलाव महसूस कर रहे थे। वो सख्त कैप्टन, जो कभी मुस्कुराता नहीं था, अब अक्सर फ़ोन स्क्रीन को देखकर मुस्कुराता नज़र आता।
पहली वीडियो कॉल (The First Video Call)
रिश्ता और गहरा तब हुआ जब एक रविवार को विक्रम ने वीडियो कॉल की।
आरोही घबरा गई। उसने जल्दी से बाल ठीक किए और दुपट्टा सही किया।
स्क्रीन ऑन हुई। नेटवर्क थोड़ा कमज़ोर था, वीडियो रुक-रुक कर आ रही थी, लेकिन तस्वीर साफ़ थी।
पहली बार आरोही ने विक्रम को 'लाइव' देखा। वह वर्दी में था, चेहरे पर हल्की दाढ़ी (Stubble) थी और पीछे सफ़ेद बर्फ़ का पहाड़ चमक रहा था। वह तस्वीरों से भी ज़्यादा हैंडसम लग रहा था।
और विक्रम ने पहली बार आरोही को देखा—बिना किसी फ़िल्टर के, माथे पर एक छोटी सी बिंदी और चेहरे पर मासूमियत।
कुछ सेकंड तक दोनों चुप रहे, बस एक-दूसरे को स्क्रीन पर निहारते रहे।
"तुम हकीकत में तस्वीरों से ज्यादा खूबसूरत हो," विक्रम ने धीरे से कहा।
आरोही का चेहरा शर्म से लाल हो गया। "और आप... आप हकीकत में ज्यादा खड़ूस लगते हैं," उसने मज़ाक में कहा, लेकिन उसकी हंसी में प्यार साफ़ झलक रहा था।
उस दिन उन्होंने घंटों बात की। विक्रम ने उसे अपना बंकर दिखाया, अपनी राइफल दिखाई, और वो पहाड़ दिखाए जहाँ वो तैनात था। आरोही ने उसे अपनी किताबों का ढेर दिखाया और अपनी खिड़की से दिखने वाला शहर का नज़ारा।
अब वे एक-दूसरे के बिना अधूरे थे। विक्रम उसकी ताकत बन गया था और आरोही उसका सुकून। जब भी विक्रम किसी मुश्किल मिशन पर जाता, आरोही की 'दुआ' उसके साथ होती। और जब भी आरोही एग्ज़ाम को लेकर तनाव में होती, विक्रम का एक मैसेज—"तुम कर लोगी, तुम फौजी की दोस्त हो"—उसे हिम्मत दे देता।
दूरी अब भी 2000 किलोमीटर की थी, लेकिन रूहें एक-दूसरे में घुल चुकी थीं।

अध्याय 8: वादियों की पुकार 

दिसंबर का महीना शुरू हो चुका था। दिल्ली में हल्की सर्दी थी, लेकिन आरोही के दिल में एक अलग ही गर्मी थी। यूनिवर्सिटी में 'विंटर ब्रेक' (Winter Break) की घोषणा हो चुकी थी।
आमतौर पर आरोही छुट्टियों में अपने घर जाती थी, लेकिन इस बार उसका दिल कहीं और जाना चाहता था।
एक रात वीडियो कॉल पर विक्रम ने मज़ाक में कहा था:
"यहाँ पूरी वादी सफ़ेद हो गई है आरोही। काश तुम देख पातीं कि जन्नत हकीकत में कैसी लगती है।"
कॉल कटने के बाद आरोही ने आईने में खुद को देखा और सोचा, "काश नहीं... मैं देखूँगी।"
झूठ और तैयारियां (The Plan)
आरोही जानती थी कि उसके माता-पिता उसे अकेले कश्मीर जाने की इज़ाज़त कभी नहीं देंगे। उसे झूठ बोलना पड़ा।
उसने घर पर फ़ोन किया: "माँ, कॉलेज की तरफ से हम 'मनाली' ट्रिप पर जा रहे हैं। सारे प्रोफेसर्स साथ हैं, बहुत ज़रूरी है प्रोजेक्ट के लिए।"
माँ ने थोड़ी आना-कानी के बाद इज़ाज़त दे दी।
इसके बाद शुरू हुआ 'मिशन कश्मीर'।
आरोही ने अपनी सेविंग्स (Savings) से दिल्ली से श्रीनगर की फ्लाइट बुक की। उसने अपने बैग में सबसे मोटे स्वेटर, जैकेट और वो मफ़लर रखा जो उसने विक्रम के लिए खरीदा था।
विक्रम से यह राज़ छुपाना सबसे मुश्किल था।
उसने बातों-बातों में विक्रम से चालाकी से पूछ लिया: "वैसे विक्रम, तुम्हारा बेस कैंप श्रीनगर से कितना दूर है? मतलब अगर कोई टूरिस्ट आए तो क्या वहाँ आ सकता है?"
विक्रम ने मासूमियत से जवाब दिया: "श्रीनगर से करीब 3 घंटे का रास्ता है। कुपवाड़ा सेक्टर के पास। लेकिन टूरिस्ट्स को वहां आने की परमिशन नहीं होती मैडम। क्यों पूछ रही हो?"
आरोही ने बात संभाल ली: "बस ऐसे ही, जनरल नॉलेज के लिए।"
सफ़र की शुरुआत (The Journey)
जिस दिन फ्लाइट थी, आरोही के हाथ कांप रहे थे। यह सिर्फ़ एक यात्रा नहीं थी, यह उसके प्यार का सबसे बड़ा इम्तिहान था।
जैसे ही फ्लाइट ने बादलों को चीरते हुए श्रीनगर के ऊपर उड़ान भरी, आरोही ने खिड़की से नीचे देखा।
नीचे सब कुछ सफ़ेद था। बर्फ़! वही बर्फ़ जिसका ज़िक्र विक्रम रोज़ करता था।
श्रीनगर में कदम (Landing in Srinagar)
शेख-उल-आलम एयरपोर्ट पर उतरते ही बर्फीली हवा के एक झोंके ने उसका स्वागत किया। तापमान माइनस में था। आरोही ने अपना जैकेट कस लिया। दिल्ली की सर्दी इसके सामने कुछ भी नहीं थी।
उसने एक टैक्सी ली और डल झील (Dal Lake) के पास एक सुरक्षित होटल में चेक-इन किया।
शाम के 4 बज रहे थे। वह विक्रम से सिर्फ़ 3-4 घंटे की दूरी पर थी।
अब सबसे बड़ा सवाल यह था कि उसे बताया कैसे जाए?
आरोही होटल के कमरे की बालकनी में गई। सामने डल झील जमी हुई थी और दूर पहाड़ दिख रहे थे। उसने अपना फ़ोन निकाला। विक्रम का नंबर डायल करने के लिए उंगली उठाई, लेकिन फिर रुक गई।
"अगर मैंने फ़ोन पर बताया, तो वो गुस्सा करेंगे कि मैं यहाँ क्यों आई। मुझे उन्हें मिलकर ही बताना होगा, या कम से कम उन्हें पास बुलाना होगा।"
उसने एक प्लान सोचा। उसने उस होटल की बालकनी से, पीछे के बर्फीले पहाड़ों की फोटो खींची (बिलकुल वैसी जैसी विक्रम भेजता था) और उसे विक्रम को भेज दिया।
नीचे कैप्शन लिखा:
"सुना है तुम्हारी जन्नत में चाय बहुत अच्छी मिलती है...
मैं आ गई हूँ, क्या चाय पिलाने नहीं आओगे?"
मैसेज भेजकर उसने फ़ोन टेबल पर रख दिया और अपनी धड़कनों को काबू करने की कोशिश करने लगी। उसे पता था कि अगले 5 मिनट में या तो विक्रम का बहुत गुस्से वाला कॉल आएगा या फिर वो खुशी से पागल हो जाएगा।


अध्याय 9: इश्क़ और फिक्र 

आरोही की नज़रें फ़ोन की स्क्रीन पर गड़ी थीं। मैसेज पर 'Double Tick' (Delivered) हो चुका था, लेकिन 'Blue Tick' (Read) अभी नहीं हुआ था। हर एक सेकंड एक घंटे जैसा लग रहा था।
तकरीबन 10 मिनट बाद, अचानक फ़ोन बजा।
स्क्रीन पर नाम था: Soldier_Vikram।
आरोही ने हड़बड़ाहट में, खुशी और डर के मिले-जुले अहसास के साथ फ़ोन उठाया।
"हेलो विक्रम! सरप्राइ..."
"तुम कहाँ हो?"
विक्रम की आवाज़ में वो नरमी नहीं थी जो अक्सर होती थी। यह वो आवाज़ थी जो शायद वो अपने जूनियर सैनिकों पर चिल्लाते वक़्त इस्तेमाल करता होगा—सख्त, डरावनी और घबराहट से भरी।
आरोही की मुस्कान गायब हो गई। "मैं... मैंने बताया तो, मैं श्रीनगर में हूँ। डल झील के पास वाले होटल में..."
"क्या तुम पागल हो गई हो आरोही?" विक्रम लगभग चिल्लाया। "तुम्हें अंदाज़ा भी है तुमने क्या किया है? ये दिल्ली नहीं है! ये कश्मीर है। यहाँ हालात कब बदल जाएं, किसी को नहीं पता। तुमने मुझसे पूछा क्यों नहीं? घर पर क्या बताया? अकेले कैसे आ गई?"
सवालों की बौछार सुनकर आरोही की आँखों में आँसू आ गए। उसने तो एक रोमांटिक सरप्राइज सोचा था, लेकिन यहाँ तो डांट पड़ रही थी।
"मैं... मैं बस तुमसे मिलना चाहती थी विक्रम," आरोही की आवाज़ रुंध गई। "तुमने ही तो कहा था कि यहाँ जन्नत है..."
विक्रम की तरफ से कुछ पल की खामोशी रही। फिर उसकी एक गहरी साँस लेने की आवाज़ आई, जैसे वो खुद को शांत करने की कोशिश कर रहा हो।
"आरोही, मेरी बात ध्यान से सुनो," अब उसकी आवाज़ धीमी थी, पर उसमें एक अजीब सी कंपकंपी थी। "ये जन्नत है, पर यहाँ आग भी लगती है। मुझे तुम्हारी फिक्र है। अगर तुम्हें एक खरोंच भी आई, तो मैं... मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा। तुम समझ रही हो न?"
उसकी आवाज़ में छुपे डर को पहचानकर आरोही का दिल पिघल गया। यह गुस्सा नहीं था, यह बेइंतहा परवाह थी।
"हम्म... समझ रही हूँ। सॉरी," आरोही ने धीरे से कहा।
"अभी तुम जिस होटल में हो, वहीं रहना। कमरे से बाहर एक कदम भी मत निकालना। रूम लॉक रखो। खिड़की के परदे गिरा दो। समझी?" विक्रम ने आदेश दिया।
"जी, कैप्टन," आरोही ने कहा। "पर क्या तुम आओगे?"
"आ रहा हूँ," विक्रम ने कहा। "मैं बेस कैंप में हूँ। यहाँ से श्रीनगर पहुँचने में मुझे 3-4 घंटे लगेंगे अगर रास्ता साफ़ मिला तो। सीओ (CO) साहब से परमिशन लेनी पड़ेगी, पर मैं आऊँगा। चाहे कुछ भी हो जाए, मैं आ रहा हूँ। बस फ़ोन ऑन रखना।"
कॉल कट गई।
आरोही बेड के किनारे बैठ गई। बाहर अँधेरा घिरने लगा था। डल झील की खूबसूरती अब उसे थोड़ी डरावनी लग रही थी। लेकिन उसे एक सुकून था—विक्रम आ रहा था। वो 'सुपरहीरो' जिसे उसने सिर्फ़ कहानियों और वीडियो कॉल्स में देखा था, अब उसे बचाने, उससे मिलने आ रहा था।
रात के 9 बजे:
बाहर बर्फ़ गिरनी शुरू हो गई थी। सड़कों पर सन्नाटा था। आरोही बार-बार घड़ी देख रही थी। 4 घंटे बीत चुके थे।
तभी उसके फ़ोन पर मैसेज आया:
"होटल की लॉबी में हूँ। नीचे आ जाओ।"
आरोही का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। उसने अपना शॉल उठाया, आईने में एक बार चेहरा देखा और दौड़ते हुए कमरे से बाहर निकली। लिफ्ट का इंतज़ार करने का सब्र नहीं था, वो सीढ़ियों से ही नीचे भागी।
जैसे ही वो लॉबी में पहुँची, उसकी नज़र रिसेप्शन के पास खड़े एक शख्स पर पड़ी।
वह अपनी आर्मी की वर्दी में नहीं था, बल्कि एक भारी जैकेट और जीन्स में था। उसके बाल बिखरे हुए थे, चेहरा ठंड से लाल था और जूतों पर ताज़ा कीचड़ और बर्फ़ लगी थी।
यह विक्रम था।
हकीकत में खड़ा विक्रम।
उसने आरोही को देखा। उसकी आँखों में अभी भी वो सफ़र की थकान और डर था, लेकिन आरोही को देखते ही वो सब सुकून में बदल गया।
आरोही रुकी नहीं। वो दौड़कर उसके पास गई और बिना कुछ सोचे, बिना किसी झिझक के, उसे गले लगा लिया।
विक्रम एक पल के लिए चौंका, शायद उसे इसकी उम्मीद नहीं थी, लेकिन फिर उसने भी अपनी बाहें कस लीं।
"पागल लड़की..." विक्रम ने उसके कान में फुसफुसाया। "बहुत बड़ी पागल हो तुम।"
"सिर्फ़ तुम्हारे लिए," आरोही ने उसकी जैकेट में चेहरा छुपाते हुए कहा।


अध्याय 10: डल झील और गर्म कहवा

होटल से निकलकर वे दोनों डल झील के किनारे एक छोटे से, पुराने लेकिन बेहद खूबसूरत कैफ़े में पहुँचे। बाहर का तापमान माइनस में था। झील का पानी जम चुका था और उस पर खड़ी शिकारों (नावों) पर सफ़ेद बर्फ की चादर बिछी थी।
कैफ़े के अंदर लकड़ी की अंगीठी जल रही थी, जिससे एक भीनी-भीनी खुशबू और गर्माहट आ रही थी। वे दोनों खिड़की वाली टेबल पर आमने-सामने बैठे।
खामोश गुफ्तगू
शुरुआत के 5 मिनट तक कोई कुछ नहीं बोला। वे बस एक-दूसरे को देख रहे थे। वीडियो कॉल के पिक्सेल (Pixels) और अटकते नेटवर्क से दूर, आज वे एक-दूसरे के सामने 'सांस' लेते हुए महसूस कर रहे थे।
विक्रम ने अपनी जैकेट उतारकर कुर्सी पर रखी। वह अब एक गहरे रंग के स्वेटर में था। उसकी आँखों में अब गुस्सा नहीं, बस एक अजीब सी चमक थी।
"यकीन नहीं हो रहा कि तुम सच में यहाँ बैठी हो," विक्रम ने चुप्पी तोड़ी।
आरोही मुस्कुराई, "मैंने कहा था न कैप्टन, अगर पहाड़ मेरे पास नहीं आ सकता, तो मैं पहाड़ के पास आ जाऊंगी।"
वेटर आया और विक्रम ने आर्डर दिया: "दो कश्मीरी कहवा (Kahwa), प्लीज। बादाम और केसर ज़्यादा रखना।"
तोहफ़ा (The Gift)
जब वेटर चला गया, तो आरोही ने अपने बैग से एक पैकेट निकाला और मेज़ पर सरका दिया।
"यह क्या है?" विक्रम ने पूछा।
"खोलो," आरोही ने कहा।
विक्रम ने पैकेट खोला। अंदर एक गहरा स्लेटी (Grey) रंग का ऊनी मफ़लर था। यह बाज़ार का बना हुआ नहीं लग रहा था, शायद हाथ से बुना गया था या बहुत चुनकर खरीदा गया था।
"दिल्ली में जब ठंड बढ़ने लगी, तो मुझे तुम्हारी याद आई। सोचा वहाँ तो हवा और भी ज़ालिम होगी," आरोही ने धीरे से कहा।
विक्रम ने मफ़लर को हाथ में लिया। उसकी उंगलियाँ उस नरम ऊन को महसूस कर रही थीं।
"मैं इसे पहन लूँ?" विक्रम ने पूछा।
"लाओ, मैं पहना देती हूँ," आरोही अपनी कुर्सी से उठी।
वह विक्रम के पास गई। विक्रम बैठा रहा और आरोही ने झुककर वो मफ़लर उसके गले में लपेटा। उस एक पल के लिए, आरोही की सांसें विक्रम के चेहरे से टकराईं और विक्रम की धड़कनें तेज़ हो गईं। मफ़लर की गर्माहट से ज्यादा गर्माहट आरोही के उस स्पर्श में थी।
जब आरोही वापस अपनी कुर्सी पर बैठने लगी, तो विक्रम ने उसका हाथ पकड़ लिया।
उसकी पकड़ सख्त थी, एक फौजी वाली पकड़, लेकिन उसमें एक विनती भी थी—"मुझे छोड़कर मत जाना।"
कहवा और कसम
वेटर भाप उड़ता हुआ 'कहवा' ले आया। केसर की खुशबू उनके बीच फ़ैल गई।
विक्रम ने चाय का घूँट भरा और खिड़की से बाहर जमी हुई झील को देखा।
"आरोही, तुम्हें पता है?" विक्रम ने गंभीर होकर कहा, "मेरी ज़िंदगी में 'कल' की कोई गारंटी नहीं है। आज मैं यहाँ तुम्हारे साथ चाय पी रहा हूँ, कल शायद किसी मिशन पर होऊँ जहाँ से लौटना मुश्किल हो।"
आरोही ने उसके हाथ पर अपनी हथेली रख दी। "मुझे 'कल' की गारंटी नहीं चाहिए विक्रम। मुझे बस हमारा 'आज' चाहिए। और मेरा आज, अभी इसी टेबल पर, मेरे सामने बैठा है।"
विक्रम ने उसकी आँखों में देखा। उसे एहसास हुआ कि यह लड़की सिर्फ़ नाज़ुक शायरा नहीं है, इसका दिल किसी भी फौजी से ज्यादा मज़बूत है।
उसने अपनी जेब से कुछ निकाला। यह एक 'बुलेट का खोखा' (Empty Bullet Shell) था, जिसे उसने चाबी के छल्ले (Keyring) में बदल दिया था।
"मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई अंगूठी या सोना नहीं है," विक्रम ने उसे वो बुलेट शेल देते हुए कहा। "ये मेरी पहली पोस्टिंग की निशानी है। इसे मैंने हमेशा अपने पास रखा तावीज़ की तरह। आज से ये तुम्हारी हिफाज़त करेगा।"
आरोही ने उस अनोखे तोहफे को अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया। उसके लिए यह किसी हीरे से कम नहीं था।
घड़ी की सुईं टिक-टिक कर रही थी। रात के 10 बजने वाले थे। विक्रम को वापस लौटना था। वक़्त रेत की तरह फिसल रहा था, लेकिन उस छोटे से कैफ़े में, उस एक घंटे के लिए, वक़्त जैसे थम गया था।


अध्याय 11: आधा कप कहवा और अधूरा वादा 

कैफ़े में माहौल बहुत रोमानी था। विक्रम ने अभी-अभी वह 'बुलेट शेल' (Bullet Shell) आरोही की हथेली पर रखा ही था और आरोही कुछ कहने ही वाली थी कि...
ट्रिंग... ट्रिंग... ट्रिंग...
मेज़ पर रखे विक्रम के फ़ोन की घंटी बजी। यह कोई आम रिंगटोन नहीं थी, बल्कि एक बहुत तीखी और तेज़ सायरन जैसी आवाज़ थी, जो सिर्फ़ इमरजेंसी कॉल्स के लिए सेट थी।
विक्रम का हाथ, जो आरोही के हाथ पर था, एक झटके में हट गया। उसने फ़ोन उठाया। स्क्रीन पर फ़्लैश हो रहा था: "CO (Commanding Officer) - URGENT"।
विक्रम के चेहरे के भाव एक सेकंड में बदल गए। वो नरम दिल प्रेमी, जो अभी शायरी सुन रहा था, पलक झपकते ही एक सख्त 'कैप्टन' में बदल गया। उसकी आँखों में अब प्यार नहीं, बल्कि एक अजीब सी सतर्कता (alertness) थी।
उसने कॉल उठाया।
"Yes Sir. Jai Hind Sir... Location? ... Copy that. Moving out in 2 minutes. Over."
उसने फ़ोन काटा और तुरंत खड़ा हो गया।
"आरोही, चलो। अभी।" उसकी आवाज़ में एक ऐसा आदेश था जिसे टाला नहीं जा सकता था।
आरोही घबरा गई। "क्या हुआ विक्रम? सब ठीक तो है?"
"सवाल पूछने का वक़्त नहीं है। कोड रेड है। मुझे बेस कैंप पहुँचना है," विक्रम ने अपनी जैकेट पहनते हुए कहा और जेब से पैसे निकालकर मेज़ पर रख दिए।
उनका 'कश्मीरी कहवा' अभी भी प्यालों में आधा भरा हुआ था और उसमें से भाप निकल रही थी।
वे दोनों तेज़ी से कैफ़े से बाहर निकले। बाहर बर्फ़बारी तेज़ हो गई थी।
विक्रम ने जल्दी से एक टैक्सी रोकी। उसने टैक्सी वाले को सख्त हिदायत दी: "इन्हें डल गेट वाले होटल छोड़ो। और सुनो, जब तक ये अंदर न चली जाएं, गाड़ी मत बढ़ाना।"
फिर वह आरोही की तरफ मुड़ा।
आरोही की आँखों में आँसू तैर रहे थे। अभी तो मिले थे, और अभी बिछड़ने का वक़्त आ गया?
"तुम जा रहे हो?" उसने कांपती आवाज़ में पूछा। "वापस कब आओगे?"
विक्रम ने उसके दोनों कंधों को अपने मज़बूत हाथों से थाम लिया। उसकी आँखों में बेबसी थी, पर फर्ज़ उससे बड़ा था।
"वापस आऊंगा। ज़रूर आऊंगा," विक्रम ने कहा। फिर उसने कैफ़े की तरफ इशारा किया।
"मेरा आधा कहवा अभी वहीं मेज़ पर रखा है। यह उधार रहा। इसे पूरा करने ज़रूर आऊंगा।"
उसने आरोही के माथे को चूमा—जल्दी में, लेकिन बहुत शिद्दत से।
"जाओ, टैक्सी में बैठो। लॉक करो। मुझे तुम्हें जाते हुए देखना है।"
आरोही भारी मन से टैक्सी में बैठी। जैसे ही टैक्सी आगे बढ़ी, उसने पीछे मुड़कर देखा। विक्रम अभी भी वहीं खड़ा था, बर्फ़ में, तब तक, जब तक कि टैक्सी उसकी नज़रों से ओझल नहीं हो गई।
और जैसे ही टैक्सी मुड़ी, विक्रम ने दूसरी तरफ दौड़ लगा दी—अंधेरे और फर्ज़ की तरफ।
होटल का कमरा
होटल पहुँचकर आरोही अपने कमरे में आई। सन्नाटा उसे काट रहा था।
उसने टीवी ऑन किया। न्यूज़ चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी:
"उत्तरी कश्मीर के कुपवाड़ा सेक्टर में हलचल। सेना ने सर्च ऑपरेशन शुरू किया।"
आरोही समझ गई कि विक्रम कहाँ जा रहा है। उसने अपनी मुट्ठी खोली। विक्रम का दिया वो 'बुलेट शेल' उसकी हथेली में अभी भी गर्म था।
उसने उसे सीने से लगा लिया और खिड़की के बाहर उस अंधेरी वादी को देखकर फुसफुसायी:
"अपना वादा याद रखना कैप्टन। चाय उधार है..."


अध्याय 12: ख़ामोशी और खौफनाक खबर 

विक्रम के जाने के बाद वो रात आरोही के लिए सौ साल जितनी लंबी थी। उसने एक पल के लिए भी पलक नहीं झपकाई। उसका फ़ोन उसके हाथ में ही था, नज़रें स्क्रीन पर थीं, लेकिन स्क्रीन बिल्कुल काली थी। विक्रम का 'Last Seen' वही पुराना दिखा रहा था।
बाहर बर्फ़ गिर रही थी, लेकिन कमरे के अंदर आरोही को पसीने छूट रहे थे। हर सायरन की आवाज़ पर वो खिड़की की तरफ भागती कि शायद विक्रम वापस आ गया हो।
अगली सुबह: एक बुरी खबर
सूरज निकला, लेकिन वादी में कोहरा छाया हुआ था। आरोही ने टीवी ऑन किया। वह सिर्फ़ न्यूज़ चैनल्स बदल रही थी।
तभी एक न्यूज़ चैनल पर 'Breaking News' का फ्लैश आया:
"कुपवाड़ा सेक्टर में सेना और आतंकियों के बीच भारी गोलीबारी। सर्च ऑपरेशन जारी।"
आरोही का दिल बैठ गया। विक्रम ने कल 'कुपवाड़ा' का ही नाम लिया था।
वह टीवी स्क्रीन के बिल्कुल पास जाकर बैठ गई। एंकर बता रहा था:
"ताज़ा जानकारी के मुताबिक, दो आतंकी मारे गए हैं। लेकिन इस ऑपरेशन में सेना के एक अधिकारी (Officer) और दो जवान गंभीर रूप से घायल हुए हैं। घायल अधिकारी को श्रीनगर के बेस हॉस्पिटल एयरलिफ्ट किया जा रहा है।"
"घायल अधिकारी..."
ये दो शब्द आरोही के कानों में हथौड़े की तरह बजे।
उसने कांपते हाथों से विक्रम का नंबर मिलाया।
"द नंबर यू आर कॉलिंग इज़ स्विच्ड ऑफ (उपभोक्ता का मोबाइल स्विच ऑफ है)..."
उसने एक बार नहीं, पचास बार कॉल किया। हर बार वही जवाब।
उसका दिमाग सुन्न पड़ गया।
"क्या वो विक्रम है? नहीं, नहीं हो सकता। उसने वादा किया था। उसका कहवा उधार है... वो ऐसे नहीं जा सकता।"
वह कमरे में पागलों की तरह टहलने लगी। वह होटल से निकलकर हॉस्पिटल जाना चाहती थी, लेकिन उसे नहीं पता था कि कौन सा हॉस्पिटल? और क्या उसे वहां जाने दिया जाएगा? एक आम नागरिक (Civilian) आर्मी बेस हॉस्पिटल में कैसे घुस सकता है?
दोपहर के 2 बजे:
बेचैनी अब बर्दाश्त से बाहर हो रही थी। आरोही ने अपना बैग उठाया। उसने सोचा, "मैं रिसेप्शन पर जाकर पूछूँगी, पुलिस के पास जाऊंगी, लेकिन ऐसे कमरे में बंद होकर नहीं बैठ सकती।"
जैसे ही वो दरवाज़े की कुंडी खोलने वाली थी, उसका फ़ोन बजा।
नंबर 'Unknown' (अनजान) था।
आरोही ने इतनी तेज़ी से फ़ोन उठाया कि वो हाथ से फिसलते-फिसलते बचा।
"हेलो? विक्रम??" उसकी आवाज़ में रुलाई फूट पड़ी।
सामने से विक्रम की आवाज़ नहीं थी। एक अजनबी, लेकिन बेहद संयमित और भारी आवाज़ थी।
"क्या मेरी बात मिस आरोही से हो रही है?"
आरोही की सांसें अटक गईं। "जी... जी, मैं आरोही हूँ। आप कौन?"
"मैम, मैं सूबेदार मेजर राठी बोल रहा हूँ। 18 राष्ट्रीय राइफल्स से। कैप्टन विक्रम सिंह की यूनिट से।"
आरोही के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। यूनिट से फ़ोन आने का मतलब अक्सर सिर्फ़ दो ही होता है—या तो शहादत की खबर, या गंभीर हालत।
"विक्रम... विक्रम ठीक हैं?" उसने बड़ी मुश्किल से पूछा।
एक सेकंड की खामोशी रही, जो आरोही को जानलेवा लगी।
"मैम, कैप्टन साहब घायल हैं। ऑपरेशन के दौरान उनके कंधे और पैर में गोली लगी है। उन्हें श्रीनगर के 92 बेस हॉस्पिटल (92 Base Hospital) लाया गया है। उनकी सर्जरी अभी पूरी हुई है।"
आरोही वहीँ ज़मीन पर बैठ गई। आंसू गालों पर बहने लगे, लेकिन एक राहत थी—वह ज़िंदा है।
"क्या... क्या मैं उनसे मिल सकती हूँ? प्लीज? मैं श्रीनगर में ही हूँ।" वह बच्चों की तरह गिड़गिड़ाने लगी।
सूबेदार ने कहा, "साहब होश में आने से पहले बस आपका नाम ले रहे थे। वैसे सिविलियंस को अलाउड नहीं है, लेकिन सीओ (CO) साहब ने स्पेशल परमिशन दी है। आप 92 बेस हॉस्पिटल के गेट पर आ जाइए। मैं वहां मिलूँगा।"


अध्याय 13: जख्म और सुकून 

श्रीनगर का बादामी बाग कैंटोनमेंट (Badami Bagh Cantonment)। यह कोई आम जगह नहीं थी, यह भारतीय सेना का गढ़ था।
आरोही ऑटो से गेट पर उतरी। उसके पैर कांप रहे थे। गेट पर संतरी ने उसे रोका, लेकिन तभी पीछे से एक भारी भरकम मूछों वाले शख्स आए—सूबेदार राठी।
"मैम? आप आरोही मैम हैं?" उन्होंने पूछा।
आरोही ने बस सिर हिलाया, गले में आवाज़ जैसे फंस गई थी।
हॉस्पिटल का गलियारा
सूबेदार उसे अंदर ले गए। 92 बेस हॉस्पिटल की हवा में ही एक अजीब सी गंभीरता थी। कहीं दवाइयों की गंध थी, तो कहीं स्ट्रेचर के पहियों की आवाज़। आरोही ने देखा कि कुछ जवान व्हीलचेयर पर थे, कुछ के हाथ-पैर में पट्टियां बंधी थीं। उसे महसूस हुआ कि विक्रम जिस दुनिया में जीता है, वहां दर्द रोज़मर्रा की बात है।
वे एक प्राइवेट वॉर्ड के कमरे के बाहर रुके।
"साहब अंदर हैं। होश में हैं, लेकिन अभी कमज़ोर हैं," सूबेदार ने धीरे से कहा और दरवाज़ा खोल दिया।
मुलाकात
आरोही ने अंदर कदम रखा।
कमरे में मशीनों की धीमी 'बीप-बीप' आवाज़ आ रही थी। सफ़ेद चादर ओढ़े बेड पर विक्रम लेटा था।
उसका बायां कंधा और एक पैर भारी पट्टियों में लिपटा था। चेहरे पर कई खरोंचें थीं और माथे पर भी एक पट्टी बंधी थी। वह वही शख्स था जो कल शाम तक उसे कहवा पिला रहा था, लेकिन आज...
विक्रम की आँखें बंद थीं, शायद दवा के असर से नींद में था। लेकिन जैसे ही आरोही ने सिसकी भरी, उसने धीरे से अपनी आँखें खोलीं।
धुंधली नज़रों से उसने आरोही को पहचाना। उसके सूखे होंठों पर एक बहुत ही कमज़ोर, लेकिन वही पुरानी शरारती मुस्कान तैर गई।
आरोही से अब और नहीं रुका गया। वह दौड़कर बेड के पास गई और घुटनों के बल बैठ गई। उसने विक्रम का सही सलामत हाथ (दायां हाथ) अपने दोनों हाथों में थाम लिया और फूट-फूटकर रोने लगी।
"तुम्हें... तुम्हें कुछ हो जाता तो? तुम बहुत बुरे हो विक्रम... बहुत बुरे!" वह रोते हुए उसे डांट रही थी।
विक्रम ने अपनी उंगलियों से उसकी हथेली को भींचने की कोशिश की। उसकी आवाज़ बहुत धीमी और भारी थी, जैसे हर शब्द बोलने में ताकत लग रही हो।
"अरे... रो क्यों रही हो? कहा था न... मेरी चाय उधार है..."
आरोही ने भीगी आँखों से उसे देखा। "तुम्हें चाय की पड़ी है? मेरी जान निकल गई थी यहाँ!"
विक्रम हंसा, लेकिन दर्द से उसके चेहरे पर शिकन आ गई। उसने गहरी सांस ली और कहा:
"जान तो मेरी भी हलक में थी आरोही... गोली लगने पर दर्द नहीं हुआ, दर्द तब हुआ जब मुझे लगा कि मैं अपना वादा पूरा नहीं कर पाऊंगा। मुझे लगा कि तुम होटल में अकेली इंतज़ार करती रह जाओगी।"
उसने आरोही के गाल से एक आंसू पोंछा।
"देखो, मैं वापस आ गया। थोड़ा टूट-फूट गया हूँ, मरम्मत (repair) मांग रहा हूँ... लेकिन वापस आ गया हूँ।"
आरोही ने उसके माथे को चूमा—ठीक वैसे ही जैसे विक्रम ने कल शाम उसके माथे को चूमा था।
"अब मैं कहीं नहीं जा रही। जब तक तुम पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते, मैं यही रहूँगी। तुम्हारी नर्स बनकर, तुम्हारी दोस्त बनकर।"
तभी सूबेदार राठी एक ट्रे लेकर अंदर आए। उसमें दो कप चाय थी।
उन्होंने मुस्कुराते हुए चाय साइड टेबल पर रख दी और बाहर चले गए।
विक्रम ने चाय की तरफ इशारा किया।
"वो देखो... हमारी चाय। भले ही कहवा नहीं है, हॉस्पिटल की फीकी चाय है... पर साथ तो है।"
उस दिन हॉस्पिटल के उस कमरे में, दवाइयों की गंध के बीच, उन दोनों ने वो चाय पी। वह दुनिया की सबसे बेस्वाद चाय थी, लेकिन आरोही और विक्रम के लिए वह ज़िन्दगी की सबसे मीठी चाय थी।

उपसंहार: 5 साल बाद 

स्थान: उधमपुर कैंटोनमेंट (जम्मू-कश्मीर), एक पुराना ब्रिटिश-युग का बंगला।
समय: शाम के 5 बजे।
बंगले के लॉन में हल्की धूप बिखरी थी। एक आरामकुर्सी पर बैठकर आरोही अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी। अब वह सिर्फ़ एक स्टूडेंट नहीं, बल्कि एक जानी-मानी लेखिका (Author) थी। उसकी टेबल पर उसकी नई किताब की पांडुलिपि (Manuscript) रखी थी, जिसका शीर्षक था—"सरहद और स्याही"।
तभी पीछे से बूटों की 'खट-खट' आवाज़ आई।
आरोही ने मुड़कर देखा। मेजर विक्रम सिंह वर्दी में घर लौटे थे। उनके कंधों पर अब 'अशोक स्तम्भ' (Major Rank) चमक रहा था। उनके बालों में थोड़ी सफेदी आ गई थी—अनुभव की सफेदी—और उनके पैर में एक बहुत हल्की सी लंगड़ाहट (limp) थी, जो उस पुराने ज़ख्म की निशानी थी।
विक्रम ने अपनी पी-कैप (Cap) टेबल पर रखी और आरोही के पीछे खड़े होकर उसके कंधे पर हाथ रख दिया।
"क्या लिख रही हो, मिसेज मेजर?" विक्रम ने मुस्कुराते हुए पूछा।
आरोही ने कलम नीचे रखी और विक्रम का हाथ थाम लिया। उसकी उंगली में वही 'बुलेट शेल' वाला छल्ला अभी भी था, जो अब उसने एक सोने की चेन में पिरोकर गले में पहन लिया था।
"वही पुरानी कहानी," आरोही ने कहा। "वो डल झील, वो आधा कप कहवा, और वो अस्पताल की फीकी चाय।"
विक्रम हंसा। वह लॉन में रखी दूसरी कुर्सी पर बैठ गया।
तभी घर के अंदर से एक 3 साल की छोटी बच्ची, जिसके बाल दो चोटियों में बंधे थे, दौड़ती हुई आई।
"पापा! पापा!"
विक्रम ने झुककर अपनी बेटी को गोद में उठा लिया और हवा में उछाल दिया।
"मेरी नन्हीं सिपाही!"
आरोही उन दोनों को देख रही थी। उसकी आँखों में एक अजीब सा सुकून था। उसने सोचा, 5 साल पहले उसने एक घायल कैप्टन का हाथ थामने का फैसला किया था, और आज वो फैसला उसकी ज़िन्दगी का सबसे बेहतरीन फैसला बन गया था।
विक्रम ने बेटी को नीचे उतारा और आरोही की तरफ देखा।
"जानती हो आरोही," विक्रम ने संजीदगी से कहा। "लोग कहते हैं फौजी की ज़िंदगी में 'ठहराव' नहीं होता। पर जब मैं घर आता हूँ और तुम्हें लिखता हुआ देखता हूँ... तो मुझे लगता है कि मेरी दुनिया यहीं ठहर गई है।"
आरोही मुस्कुराई। उसने पास में रखी केतली से दो कप में 'कश्मीरी कहवा' डाला। भाप उठ रही थी।
उसने एक कप विक्रम की तरफ बढ़ाया।
"ये लो," आरोही ने कहा। "तुम्हारी उधारी। अब कोई कहवा अधूरा नहीं छूटेगा।"
विक्रम ने कप लिया और एक घूंट भरा।
"कभी नहीं।"
सूरज पहाड़ों के पीछे ढल रहा था। एक तरफ सरहद का रक्षक था, और दूसरी तरफ जज़्बातों की रखवाली करने वाली लेखिका। दोनों ने अपनी-अपनी दुनिया को मिलाकर एक 'घर' बना लिया था।

कहानी समाप्त।