🔹 "यह कहानी भोपाल गैस त्रासदी( भोपाल गैस कांड ) की सच्ची घटना से प्रेरित है।"
शहर जो कभी सोता नहीं था
भोपाल कभी एक शांत झीलों का शहर था, पर 1984 की सर्दियों में यहाँ के आसमान में एक अलग ही हलचल थी। सड़कों पर चाय की दुकानों से उठती भाप, पुराने शहर की गलियों से आती गरम जलेबियों की खुशबू और लोगों की धीमी-सी बातचीत — सब कुछ सामान्य था।
पर शहर के एक कोने में बनी एक बड़ी रासायनिक फैक्ट्री थी — यूनियन कार्बाइड। कई लोग वहाँ नौकरी करते थे, जिनमें से एक था राजू — पच्चीस साल का, हँसमुख और मेहनती लड़का।
राजू की पत्नी सरोजा और तीन साल की बेटी आरती उसके लिए दुनिया थीं। वह फैक्ट्री में काम करता और हर महीने की तनख्वाह से घर चलाता। उसे हमेशा लगता था —
“एक दिन मैं भी अपनी बेटी को बड़े स्कूल में पढ़ाऊँगा।”
चेतावनी जो किसी ने नहीं सुनी
कुछ मजदूरों को पहले से संदेह था कि फैक्ट्री के कुछ टैंक पुराने हो चुके हैं। एक दिन राजू ने देखा कि टैंक नंबर 610 के पास से तेज गंध आ रही है।
उसने अपने सुपरवाइज़र से कहा —
“साहब, ये गंध ठीक नहीं है… कुछ तो लीकेज है।”
सुपरवाइज़र ने हँसते हुए कहा —
“छोड़ो भी राजू, सब कुछ ठीक चल रहा है। बेवजह डरते हो।”
लेकिन राजू के मन में एक बेचैनी बैठ गई थी।
उस रात जब वह घर पहुँचा तो सरोजा ने पूछा —
“थके लग रहे हो… क्या हुआ?”
राजू ने बस इतना कहा —
“कुछ अजीब है आज… दिल कह रहा है कि कुछ ठीक नहीं।”
सरोजा ने उसका हाथ थामकर कहा —
“भगवान पर भरोसा रखो, सब अच्छा होगा।”
राजू भी मुस्कुराया, पर उस मुस्कान में डर छिपा था।
वो रात… जो कभी सुबह नहीं हुई
दिन था 2 दिसंबर 1984। रात के करीब 12 बजकर 30 मिनट।
शहर सो रहा था।
अचानक फैक्ट्री के टैंक से गैस रिसने लगी — मिथाइल आइसोसायनेट — एक ज़हरीली गैस जिसकी एक साँस जीवन और मृत्यु के बीच अंतर करती है।
कुछ ही मिनटों में पूरी हवा जहरीली धुंध से भर गई।
लोग अपनी नींद में खाँसते हुए जगने लगे।
कुत्ते चीखने लगे, पक्षी गिरने लगे।
सड़कें धुएँ से भरी थीं।
राजू भी खाँसते हुए जागा।
उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, साँस लेना मुश्किल हो गया।
सरोजा घबराई —
“क्या हुआ? ये कैसी हवा है?”
राजू ने तुरंत बेटी को उठाया और कहा —
“भागना होगा… ये गैस है!”
लेकिन वह खुद चलने में सक्षम नहीं था।
बाहर हज़ारों लोग सड़क पर भाग रहे थे —
कोई अपने बच्चों को उठा रहा था, कोई अपनी माँ को, कोई बेहोश हो चुका था।
धुआँ इतना जहरीला था कि लोग गिरते जा रहे थे।
टूटते रिश्ते, बुझती साँसें
सरोजा बेटी को लेकर भाग रही थी।
राजू पीछे-पीछे चल रहा था, पर उसकी साँसें जवाब दे रही थीं।
कुछ दूर जाकर वह गिर पड़ा।
सरोजा चिल्लाई —
“राजू!! उठो!!”
लेकिन राजू की आँखें धुंध में खो गई थीं।
सरोजा ने उसे उठाने की कोशिश की, पर गैस ने उसकी साँसें भी कमजोर कर दी थीं।
कुछ देर बाद उसकी बेटी आरती ने रोते हुए कहा —
“माँ… साँस नहीं आती…”
सरोजा ने उसे सीने से लगाया…
और उस धुँधली रात में तीनों वहीं सड़क पर गिर पड़े।
मौत के बाद का सन्नाटा
सुबह हुई, लेकिन वह सुबह रोशनी नहीं, मौत लेकर आई थी।
गली-गली लाशें पड़ी थीं।
लोग अपने परिजनों को पहचानते हुए फूट-फूटकर रो रहे थे।
सरोजा और राजू को देखने के लिए डॉक्टर आए, पर अब बहुत देर हो चुकी थी।
आरती उनके बीच में शांत पड़ी थी — जैसे सो रही हो, पर हमेशा के लिए।
बची हुई यादें
कई साल बीत गए।
भोपाल फिर बसा, पर उसके दिल में वह रात आज भी ज़िंदा है।
सरकारी बोर्ड, यादगार स्मारक और तस्वीरें — सब लोगों को याद दिलाती हैं कि कभी इस शहर ने एक ऐसी रात देखी थी जिसमें लाखों सपने मौत की धुंध में खो गए।
राजू, सरोजा और आरती जैसे हजारों परिवार खत्म हो गए, और जो बचे… उनकी सांसों में आज तक गैस का दर्द है।
।। "सीख जो कभी भूली नहीं जानी चाहिए"।।
भोपाल आज भी पूछता है —
“क्या विकास इंसानों की जान से बड़ा है?”
वो रात सिर्फ इतिहास नहीं…
एक चेतावनी है।
कि जब इंसान प्रकृति और सुरक्षा को अनदेखा करता है, तब सभ्यता नहीं — त्रासदी जन्म लेती है।
आज भी जब भोपाल की हवा में हल्की सर्द धुंध उतरती है, लगता है जैसे वो रात अब भी हवा में तैर रही हो… और हर सांस में पूछ रही हो —
🕯️
“क्या इंसान ने सच में सीख ली?”
Story writer:- .............
Vikram kori .........