Vachan Or Nikah in Hindi Love Stories by vikram kori books and stories PDF | वचन और निकाह

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वचन और निकाह

‎"वचन और निकाह"
‎वाराणसी के एक छोटे से मोहल्ले में रहती थी एक लड़की जिसका नाम था।
‎ सिया  — एक सीधी-सादी, संस्कारी हिन्दू लड़की। 
‎पिता सरकारी स्कूल में टीचर थे, और माँ घर का काम करती थी ।
‎ सिया का बचपन गंगा किनारे बीता था, जहाँ आरती की घंटियों की गूंज और फूलों की खुशबू उसके मन में भक्ति और शांति का भाव भर देती थी।
‎वहीं, उसी शहर के दूसरे छोर पर रहता था आरिज़  — एक समझदार, शिक्षित और नम्र स्वभाव का लड़का। 
‎वह एक कंप्यूटर इंजीनियर की पढ़ाई कर था, और उसकी सोच आधुनिक होते हुए भी संस्कारों से जुड़ी थी। 
‎उसके अब्बू मस्जिद के पास एक छोटी सी दवाइयों की दुकान चलाते थे, और अम्मी बेहद सादगी से घर संभालती थीं।
‎सिया और आरिज़ की पहली मुलाक़ात कॉलेज के एक “संस्कृति उत्सव” में हुई थी।
‎सिया वहाँ भजन गाने आई थी, और आरिज़ उस कार्यक्रम की  व्यवस्था देख रहा था। जब सिया मंच पर पहुँची और गाना शुरू किया —
‎पूरे सभागार में सन्नाटा छा गया। उसकी आवाज़ में इतनी सच्चाई थी कि हर कोई उससे मनमोहित  हो गया।
‎आरिज़ ने पहली बार किसी को इतने मन से गाते देखा था।
‎कार्यक्रम के बाद, उसने थोड़ा संकोच करते हुए  कहा,
‎“आप बहुत अच्छा गाती हैं… दिल को छू गया।”
‎सिया ने मुस्कराकर कहा,
‎“धन्यवाद… पर आप और आपकी  टीम भी बहुत बढ़िया थी, माइक की आवाज़ बिल्कुल साफ़ थी।”
‎दोनों मुस्कराए, और वहीं से एक अनजाना सा रिश्ता जन्म लेने लगा।
‎दिन बीतते गए, और कॉलेज की हर बैठक में, हर आयोजन में दोनों की बातें बढ़ती गईं।
‎कभी आरिज़ सिया को उसके प्रोजेक्ट्स में मदद करता, तो कभी सिया उसे हिंदी कविताएँ समझाती।
‎एक दिन गंगा किनारे दोनों बातें कर रहे थे, तब सिया ने कहा,
‎“कभी-कभी लगता है, ये सब कितना अलग है न… तुम्हारे घर की दुनिया और मेरी दुनिया।”
‎आरिज़ ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
‎“अलग तो है, पर बुरा नहीं है। और शायद यही फर्क हमें एक-दूसरे को समझना सिखा रहा है।”
‎उस दिन सिया को लगा कि आरिज़ सिर्फ एक दोस्त नहीं, उससे कहीं बढ़कर कोई है।
‎समय बीतता गया, और उनके बीच का बंधन गहरा होता गया।
‎एक शाम, बारिश के बाद कॉलेज की छत पर सिया खड़ी थी। हवा में मिट्टी की महक थी।
‎आरिज़ ने धीरे से कहा,
‎“सिया, अगर मैं कहूँ कि मुझे तुम्हारे बिना ज़िंदगी अधूरी लगती है, तो तुम्हारा रिएक्शन क्या होगा क्या तुम मुझ पर गुस्सा करोगी ।
‎सिया ने उसकी आँखों में देखा —
‎“नहीं आरिज़, मैं गुस्सा नहीं करूंगी… क्योंकि शायद मुझे भी यही एहसास होता है।”
‎उस पल बारिश की कुछ बूँदें उनके चेहरों पर गिरीं, और सिया के होंठों पर मुस्कान थी।
‎दोनों ने महसूस किया — यह सिर्फ मोहब्बत नहीं, एक दिल का बंधन है।
‎जब सिया ने अपने घर में यह बात बताई, तो घर में जैसे सन्नाटा छा गया।
‎पिता बोले,
‎“सिया, हम तुम्हें किसी मुसलमान लड़के से शादी नहीं करने दे सकते। समाज क्या कहेगा?”
‎सिया ने शांति से कहा,
‎“पापा, वो सिर्फ मुसलमान नहीं है, वो इंसान है। और शायद सबसे अच्छा इंसान जिसे मैंने जाना है।”
‎उधर, आरिज़ के घर में भी कम विरोध नहीं था।
‎उसकी अम्मी बोलीं,
‎“बेटा, वो हिंदू लड़की है… कल को बच्चों का क्या होगा? समाज क्या सोचेगा?”
‎पर आरिज़ ने बस इतना कहा,
‎“अम्मी, अगर खुदा ने दिल दिया है, तो मोहब्बत भी उसी की मर्ज़ी से हुई होगी।”
‎काफी संघर्षों, आँसुओं और समझाइश के बाद, दोनों परिवारों ने एक बात मान ली —
‎अगर वे एक-दूसरे से सचमुच इतना प्रेम करते हैं, तो उन्हें अलग करना अन्याय होगा।
‎थोड़ी झिझक, थोड़ी चिंता और ढेर सारा प्यार लिए, दोनों की निकाह और फेरे एक साथ हुए —
‎आरिज़ ने कहा “क़ुबूल है”, और सिया ने आँसुओं में मुस्कुराते हुए कहा “हाँ”।
‎वह पल मानो दो संस्कृतियों, दो धर्मों और दो दिलों के मिलन का प्रतीक बन गया।
‎शादी के बाद सिया ने जब पहली बार आरिज़ के घर की चौखट पर कदम रखा, तो दिल में कई भाव एक साथ उमड़ आए।
‎सामने उसकी अम्मी, अब्बू, छोटी बहन सना और दादी थीं।
‎आरिज़ ने मुस्कुराते हुए कहा,
‎“अम्मी, ये हैं आपकी बहू… सिया।”
‎अम्मी ने  मुस्कान दी, लेकिन चेहरा भावहीन था।
‎दादी ने धीरे से सिर हिलाया, “अल्लाह भला करे।”
‎सिया ने आदर के साथ झुककर सलाम किया — 
‎अम्मी थोड़ी चौंक गईं —
‎“अरे, तुम्हें सलाम करना आता है?”
‎सिया मुस्कुराई,
‎“सीखा है… क्योंकि अब यह भी मेरा घर है।”
‎नया घर, नई चुनौतियाँ
‎दिन बीतते गए। सिया हर सुबह घर के कामों में मदद करने लगी।
‎वह अम्मी के साथ रसोई में जाती, नमाज़ के समय पर्दा कर लेती, और फिर अपने कमरे में पूजा भी करती।
‎वह किसी पर अपनी आस्था नहीं जताती थी, बस अपनी भक्ति निभाती थी — शांति से, सम्मान के साथ।
‎लेकिन पड़ोस में बातें शुरू हो गईं —
‎“देखो, खान साहब के घर में हिंदू बहू आई है।”
‎“अरे, वो तो करवा चौथ भी रखेगी शायद!”
‎ऐसी बातें सिया तक भी पहुँचतीं, मगर वह चुप रहती।
‎उसके लिए सबसे ज़रूरी था — आरिज़ की मुस्कान।
‎पति-पत्नी का रिश्ता
‎आरिज़ बहुत समझदार था।
‎वह सिया की हर छोटी बात समझता था —
‎कभी उसके हाथ का खाना खाने की तारीफ करता,
‎कभी शाम को गंगा किनारे उसे टहलाने ले जाता।
‎एक रात, जब दोनों छत पर बैठे थे, सिया बोली,
‎“आरिज़, तुम्हारे घरवाले मुझसे बहुत दूर हैं। मैं कोशिश करती हूँ सबका दिल जीत लूँ, पर पता नहीं क्यों… कोई मुझे अपनाना नहीं चाहता।”
‎आरिज़ ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा,
‎“सिया, किसी का दिल जीतने में वक्त लगता है। लेकिन मुझे भरोसा है — तुम्हारा सच्चा दिल एक दिन सबके दिल जीत लेगा ।”
‎सिया की आँखों में नमी आ गई, पर दिल में सुकून भी था।
‎कुछ ही महीनों में करवा चौथ आने वाला था।
‎सिया के मन में विचार आया —
‎“भले ही मैं अब एक मुस्लिम परिवार की बहू हूँ, लेकिन पति के लिए व्रत रखना तो प्रेम का प्रतीक है, धर्म का नहीं।”
‎उसने मन ही मन ठान लिया कि वो इस बार अपने आरिज़ के लिए करवा चौथ का व्रत रखेगी।
‎सुबह सिया ने चुपचाप से  थोड़ा पानी पिया और व्रत शुरू किया।
‎आरिज़ ने जब देखा कि सिया दिन भर बिना कुछ खाए-पिए है, तो घबरा गया।
‎“सिया! तुम ठीक हो न? ये सब क्यों कर रही हो?”
‎सिया मुस्कुराई,
‎“तुम्हारे लिए… हमारे रिश्ते के लिए। जब तुम रोज़ नमाज़ में मेरी सलामती की दुआ करते हो, तो क्या मैं एक दिन तुम्हारे लिए व्रत नहीं रख सकती?”
‎आरिज़ कुछ कह नहीं सका, बस उसकी आँखों में भावनाएँ उमड़ आईं।
‎लेकिन जब अम्मी को यह बात पता चली, तो घर में तूफ़ान आ गया।
‎“क्या कहा? तुमने करवा चौथ रखा है? ये सब हमारे घर में नहीं चलेगा!”
‎सिया ने शांत स्वर में कहा,
‎“अम्मी, मैंने किसी को मजबूर नहीं किया। मैंने सिर्फ अपने पति के लिए एक व्रत रखा है, आस्था से नहीं, प्रेम से।”
‎दादी ने गुस्से में कहा,
‎“ये सब तुम्हारे रीति-रिवाज हमारे मज़हब के खिलाफ़ हैं।”
‎आरिज़ ने बीच में बोलना चाहा, मगर सिया ने उसका हाथ थाम लिया —
‎“नहीं आरिज़, रहने दो। मुझे अपना प्यार साबित करने दो।”
‎उसने पूरे दिन बिना कुछ खाए-पिए, मुस्कुराते हुए घर के सारे काम किए।
‎शाम को जब चाँद निकला, तो छत पर अकेली खड़ी होकर उसने छलनी से चाँद देखा —
‎और फिर आरिज़ की तस्वीर को देखा।
‎उस पल उसकी आँखों से आँसू झर गए, और होंठों पर मुस्कान थी।
‎रात का समय था। आसमान में पूर्णिमा का चाँद जैसे सिया के चेहरे पर उतर आया था।
‎सिया ने छलनी से चाँद देखा, फिर अपने पति की तस्वीर को निहारा और मुस्कुराई।
‎लेकिन उसी क्षण, नीचे से अम्मी की आवाज़ आई —
‎“सिया! जल्दी नीचे आओ!”
‎उसकी आवाज़ में घबराहट थी।
‎सिया ने घबराकर छलनी नीचे रखी और सीढ़ियाँ उतरते हुए पूछा,
‎“क्या हुआ, अम्मी?”
‎अम्मी बोलीं —
‎“आरिज़ दवा लेने दुकान गया था… सड़क पार करते समय गाड़ी से टकरा गया है!”
‎सिया के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
‎उसका दिल धड़कना बंद-सा हो गया।
‎वो बिना कुछ सोचे अस्पताल की ओर भागी।
‎अस्पताल पहुँचते ही उसने देखा, आरिज़ स्ट्रेचर पर लेटा है, उसके सिर पर पट्टी बँधी है।
‎डॉक्टर बाहर आकर बोले,
‎“चिंता मत कीजिए, चोट ज़्यादा गहरी नहीं है, लेकिन बहुत खून बह गया था। हमने समय रहते खून चढ़ा दिया।”
‎सिया की आँखों में आँसू आ गए।
‎वह चुपचाप उसके पास बैठ गई, उसका हाथ थामा और बोली,
‎“आरिज़… देखो, मैंने कहा था न, मेरा व्रत तुम्हें हर मुसीबत से बचाएगा।”
‎धीरे-धीरे आरिज़ ने आँखें खोलीं।
‎“सिया… तुम?”
‎वह मुस्कुराई, “हाँ, मैं ही हूँ… तुम्हारी सिया। अब बोलो, तुम मुझे व्रत रखने से रोकते रहोगे?”
‎आरिज़ हँसते हुए बोला, “कभी नहीं… तुम्हारा ये व्रत मेरे लिए दुआ बन गया।”
‎जब यह खबर घर पहुँची कि सिया की दुआ और व्रत के बाद ही डॉक्टरों ने आरिज़ की जान बचाई, तो पूरा परिवार  शॉक्ड  रह गया।
‎अम्मी, जो अब तक सिया के रीति-रिवाजों से नाराज़ थीं, धीरे-धीरे उसके पास आईं।
‎“बेटी… माफ़ करना। हमें नहीं पता था कि तुम्हारे प्रेम में इतनी ताकत है।”
‎सिया ने विनम्रता से कहा,
‎“अम्मी, मैंने कुछ नहीं किया… बस अपने खुदा और भगवान, दोनों से एक साथ दुआ माँगी थी — कि वो मेरे आरिज़ की हिफ़ाज़त करें।”
‎दादी की आँखों में भी नमी आ गई।
‎उन्होंने सिया के सिर पर हाथ रख दिया,
‎“बेटी, तुम सच में हमारी बहू हो। धर्म तो बस रास्ता है, मगर दिल ही असली इबादत है।”
‎अस्पताल से छुट्टी के बाद आरिज़ कुछ दिनों तक आराम पर था।
‎सिया उसकी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ती थी — सुबह से रात तक वही उसके पास रहती, दवा देती, खाना खिलाती, उसके बालों में तेल लगाती।
‎एक शाम, आरिज़ ने कहा,
‎“सिया, तुम जानती हो? जब मैं सड़क पर गिरा था, तो मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा गया था। मगर तभी तुम्हारा चेहरा याद आया… और मुझे लगा कोई मेरे पास खड़ा कह रहा है, 
‎सिया मुस्कुराई, “शायद वो मेरी दुआ थी।”
‎धीरे-धीरे घर का माहौल बदलने लगा।
‎अम्मी अब सिया को रसोई में साथ बुलाने लगीं, दादी उससे बातें करने लगीं।
‎यहाँ तक कि पड़ोसी भी अब उसे “सिया बहू” कहकर पुकारने लगे।
‎एक दिन जब आरिज़ की अम्मी ने सिया को देखा कि वो नमाज़ के वक्त पर्दे के पीछे बैठकर आरिज़ की सलामती की दुआ कर रही है, तो वे मुस्कुराईं और बोलीं,
‎“अल्लाह करे तुम्हारा और हमारे बेटे का प्यार हमेशा सलामत रहे।”
‎सिया ने सिर झुका लिया —
‎आरिज़ के ठीक होने के कुछ सप्ताह बाद, पूरे घर का माहौल जैसे बदल गया था।
‎जहाँ पहले सिया को एक “अजनबी” की तरह देखा जाता था,
‎अब वही सिया सबके दिलों में जगह बना चुकी थी।
‎सुबह जब वह रसोई में जाती, तो अम्मी मुस्कुराकर कहतीं —
‎“सिया, आज पराठे तुम बनाओगी, तुम्हारे हाथ का स्वाद तो अब सबको भा गया है।”
‎और सिया हँसते हुए कहती,
‎“ठीक है अम्मी, पर चाय आप बनाएँगी… आपके हाथ की खुशबू कोई नहीं दे सकता।”
‎घर में हँसी की खनक लौट आई थी।
‎एक दिन आरिज़ ने कहा,
‎“सिया, अब वक्त आ गया है कि तुम्हारे पापा-मम्मी को भी हमारे घर बुलाया जाए। इतने दिन हो गए, वे भी देख लें कि तुम्हारी दुनिया यहाँ कितनी बदल गई है।”
‎सिया की आँखों में चमक आ गई।
‎“सच में? वो लोग बहुत खुश होंगे!”
‎कुछ दिनों बाद, सिया के माता-पिता आरिज़ के घर आए।
‎पहले तो थोड़ा संकोच था — आखिर संस्कृतियाँ अलग थीं।
‎लेकिन जब अम्मी ने सिया की माँ को गले लगाया और कहा,
‎“आपकी बेटी ने हमारे घर को स्वर्ग बना दिया,”
‎तो सिया के पिता की आँखों में आँसू आ गए।
‎उन्होंने धीरे से कहा,
‎“मुझे डर था, मेरी बेटी का क्या होगा…
‎पर आज लग रहा है, हमने उसे खोया नहीं, पाया है।”
‎पूरा घर उस दिन दीपावली-सी रौशनी से जगमगा उठा।
‎एक साल बीत गया।
‎फिर वही दिन आया — करवा चौथ का।
‎पर इस बार माहौल अलग था।
‎अब सिया अकेली नहीं थी,
‎पूरा घर उसके साथ इस व्रत की खुशी बाँट रहा था।
‎अम्मी ने खुद उसके लिए व्रत की तैयारियां की —
‎ और बोली अब ये सिर्फ तुम्हारा नहीं, हमारा भी त्योहार है।”
‎यह सुनकर सिया भावुक हो गई।
‎उसने अम्मी के पैर छू लिए —
‎“आपका आशीर्वाद ही मेरा सबसे बड़ा व्रत है।”
‎रात को छत पर सब लोग एक साथ चाँद देखने आए।
‎सिया ने छलनी उठाई —
‎पहले चाँद को देखा, फिर अपने पति आरिज़ को।
‎आरिज़ मुस्कुराते हुए बोला,
‎“पिछली बार तुमने मेरा जीवन बचाया था, आज मैं वादा करता हूँ —
‎जब तक साँस है, तुम्हारा साथ नहीं छोड़ूँगा।”
‎सिया ने हल्के से हँसकर कहा,
‎“तो फिर आज का व्रत सफल हुआ।”
‎आरिज़ ने उसके हाथों से पानी का गिलास लिया और कहा,
‎“अब मैं तुम्हें अपने हाथों से व्रत खोलाऊँगा… क्योंकि यह प्रेम का नियम है —
‎जो भूख में साथ दे, वही सुख में भी सच्चा साथी होता है।”
‎सिया की आँखों से खुशी के आँसू झर गए।
‎पूरा घर तालियाँ बजाने लगा।
‎अगले दिन, मोहल्ले के कई लोग सिया से मिलने आए।
‎किसी ने कहा —
‎“सिया बहू, आपने तो मिसाल कायम कर दी।
‎आपने दिखाया कि धर्म से ऊपर इंसानियत है।”
‎ 
‎ कुछ औरते बोली
‎“हम भी अब समझ गए हैं, व्रत सिर्फ भगवान का नहीं, अपने जीवनसाथी के प्यार का प्रतीक है।”
‎सिया ने बस मुस्कुराकर कहा,
‎“मैंने कुछ नहीं किया… बस अपने दिल की सुनी।
‎धर्म अलग हो सकते हैं, पर प्रेम का रंग सबमें एक-सा होता है।”
‎शाम का समय था।
‎गंगा के घाट पर सिया और आरिज़ बैठे थे।
‎हवा में दीपों की लौ揺 रही थी, और पानी में चाँद का प्रतिबिंब झिलमिला रहा था।
‎आरिज़ बोला,
‎“सिया, कभी सोचा था कि हमारी कहानी इतनी आगे आएगी?”
‎सिया मुस्कुराई,
‎“सोचा तो नहीं था… पर भरोसा था।”
‎दोनों ने हाथ थामे, और गंगा में एक साथ दीप प्रवाहित किया।
‎दीप धीरे-धीरे बहते हुए दूर चला गया — जैसे उनके प्रेम का प्रतीक, जो हर लहर से होकर भी बुझा नहीं।
‎सिया ने अपने कर्म, प्रेम और धैर्य से यह साबित कर दिया कि
‎धर्म की सीमाएँ इंसान बनाता है,
‎पर प्रेम उन्हें मिटा देता है।
‎उसका करवा चौथ का व्रत सिर्फ पति की दीर्घायु का नहीं,
‎बल्कि दो दिलों, दो धर्मों और दो संस्कृतियों के मिलन का प्रतीक बन गया।
‎और इस तरह “सिया” और “आरिज़” की कहानी बन गई —
‎एक अमर मिसाल,
‎कि जब प्रेम सच्चा हो, तो
‎ना धर्म की दीवार रहती है,
‎ना समाज की।
‎बस रह जाता है — एक दिल, एक वचन, और एक जीवनभर का साथ।
              ‎ story writer:- .......
‎           
                                  ‎ ....... Vikram kori !