तीनों आज मानव जीवन के प्रमुख आधार हैं। तीनों आवश्यक भी हैं, परंतु त्रुटिपूर्ण हैं क्योंकि तीनों में “दृष्टि” नहीं है। ये अंधकार में चल रहे मार्गदर्शक हैं — बिना विवेक के साधन, निष्क्रिय नियम और आडंबरपूर्ण सभ्यता।विज्ञान: साधन या भ्रमविज्ञान जीवन का अंग है, उसकी उपयोगिता अनिवार्य है
उसके दो पहलू हैं —उत्पादन करने वाला
(निर्माता)उपयोग करने वाला (उपभोक्ता)परंतु दोनों विवेकहीन हैं। जैसे अग्नि जीवन भी देती है और संहार भी करती है, वैसे ही विज्ञान भी वरदान और अभिशाप दोनों है।
मोबाइल इसका उदाहरण है — पहले उपलब्धि, फिर सुख, फिर आदत, फिर बोझ। अंत में वही साधन जीवन से अलग हो जाता है।धर्म: नियम या नशाधर्म के नाम पर जीवन भर मनुष्य नियमों, पूजा-पाठ और परंपराओं में उलझा रहता है। धीरे-धीरे यह साधना की जगह नशा बन जाता है —
जो विकृति, अंधविश्वास और पाखंड में बदल जाता है।
धर्म, जो आत्मा की शांति का माध्यम होना चाहिए था, वह अब भय, दुराग्रह और भेदभाव का केंद्र बन चुका है।
इस अंधे धर्म ने ही विष का बीज बोया है, जिससे संसार युद्ध और हिंसा के रास्ते पर चल पड़ा है।सभ्यता: संवाद या दूरीसभ्यता आरंभ में मर्यादा और व्यवहार का पुल है। यह दो व्यक्तियों के बीच सौजन्य का बंधन है —
जैसे स्त्री-पुरुष का प्रथम परिचय, व्यापारी का व्यवहार।
पर जब प्रेम गहरा होता है, तब सभ्यता की सीमाएँ मिट जानी चाहिए।
स्थायी सभ्यता, आत्मिक मिलन से वंचित रखती है।
सभ्य होना अच्छा है, पर सभ्य बने रहना आध्यात्मिक दूरी बनाए रखता है।तीनों का सत्य: साधन नहीं, साधनाविज्ञान, धर्म और सभ्यता — ये तीनों आवश्यक हैं, पर मौलिक नहीं।
ये जीवन का माध्यम हैं, जीवन स्वयं नहीं।
जो इन्हें पकड़ लेता है, वह जीवन के गहरे अर्थ से दूर हो जाता है।
जब भीतर “जीवन जीने की किरण” जागती है, तब ये तीनों स्वतः छूट जाते हैं।
जीवन का सार इन माध्यमों में नहीं, बल्कि जीवंत अनुभव, संवेदना और रस-बोध में है।निष्कर्ष:सत्य कोई वस्तु नहीं जिसे पाया जाए; वह जीवित बोध है।
ईश्वर भी कोई दूर की मंज़िल नहीं, बल्कि जीने की गहराई में मिलने वाला आनंद है।
जब जीवन को उसकी सहजता में जिया जाता है, तब वही “जीवन जीना” साधना बन जाता है — और वहीं ईश्वर खिलता है, फूल की तरह।
विज्ञान, धर्म और सभ्यता तब केवल सीढ़ियाँ रह जाते हैं — मार्ग, मंज़िल नहीं।
जरूरतें जीवन नहीं, जीवन का साधन हैं ज़रूरतें जीवन के अंग हैं, जीवन स्वयं नहीं।
जैसे शरीर के लिए हाथ-पैर आवश्यक हैं, पर वे जीवन नहीं होते — वैसे ही भोजन, वस्त्र, घर, साधन या सुविधा आवश्यक हैं, पर वे लक्ष्य नहीं।
हाथ-पैर के बिना जीवन कठिन हो सकता है, पर केवल उनके होने से जीवन पूर्ण नहीं होता।
पूरा जीवन तब सार्थक होता है जब उसके पीछे कोई ऊँचा अर्थ, कोई आंतरिक उद्देश्य हो — प्रेम, शांति और आत्मिक विकास।जीवन की ज़रूरतें साधन की तरह मिल जाती हैं, लेकिन इन्हें “विजय” या “लक्ष्य” बनाना भूल है।
जब लक्ष्य केवल प्राप्ति रह जाता है, तब जीवन गति खो देता है;
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✧अध्याय 18- विज्ञान साधन, धर्म नियम, सभ्यता व्यवहार — तीनों ज़रूरी, पर तीनों अंधे ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓨𝓪𝓷𝓲
विज्ञान साधन है,
धर्म नियम है,
सभ्यता व्यवहार है —
ये तीनों ज़रूरी हैं,
लेकिन तीनों के पास आँख नहीं है।
तीनों अंधकार में चल रहे हैं।
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✧ 1. विज्ञान — उपयोगी, पर विवेकहीन
विज्ञान जीवन का अंग है।
साधन उपयोगी हैं,
उनकी उपयोगिता के कई अर्थ हैं,
और उनके उत्पादन के कई ढंग हैं।
पर साधन पैदा करने वाला भी विवेकहीन,
और साधन उपयोग करने वाला भी विवेकहीन।
दोनों ही उपयोगिता और उत्पादन की आँख से खाली हैं।
जैसे अग्नि—
एक ही अग्नि जन्म में रोटी बनाती है,
मृत्यु में शरीर को राख करती है।
आत्मा निकल जाती है,
मिट्टी रह जाती है।
विज्ञान भी ऐसा ही है।
उसके साधनों का अर्थ समय के साथ बदलता है।
पहले “पाना” सफलता लगता है,
फिर वही वस्तु सुख बनती है,
फिर मनोरंजन,
फिर जरूरत —
और कल वही छूट जाती है।
मोबाइल इसका उदाहरण है —
पहले आकर्षण,
फिर सुख,
फिर मनोरंजन,
फिर लत,
अब जरूरत।
और अंत में —
बोझ बनकर छूट जाता है।
विज्ञान का साधन हम पाते हैं,
फिर उपयोग करते हैं,
फिर अंत में खो देते हैं।
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✧ 2. धर्म — नियम, पर सतही और नशा
धर्म नियम है —
एक सतही प्राथमिकता।
इसे जीवन भर ढोना नशा है।
और यह नशा धीरे-धीरे रोग,
विकृति,
अंधविश्वास
और पाखंड में बदल जाता है।
जन्म से ही पूजा-पाठ,
कर्मकांड,
नियम सिखाए जाते हैं।
और मृत्यु तक इन्हें जीवन का “सत्य” माना जाता है —
जैसे इसी के लिए पैदा हुए हों।
लेकिन सत्य पंचतत्व हैं।
धर्म नहीं —
नियम नहीं —
पानी, सांस, भोजन सत्य हैं;
ये जरूरतें हैं,
मूल जीवन हैं।
पर मनुष्य ने साधन, धर्म, सभ्यता —
इन सबको सत्य मान लिया।
यहीं पाखंड शुरू होता है।
साधन की पकड़ गुलामी है।
सभ्यता की पकड़ अहंकार है।
और धर्म की पकड़ मृत्यु है।
जब धर्म आगे नहीं ले जाता,
तो वही नर्क बन जाता है —
अशांति, हिंसा, युद्ध, अराजकता,
आतंक और राजनीति इसी से जन्मते हैं।
भाई–भाई शत्रु बन जाते हैं।
सभ्यताओं के बीच द्वेष जन्मता है।
और यही धीमा, अंदरूनी विश्व युद्ध चल रहा है।
धर्म की रक्षा के नाम पर
देशों की सीमाएँ बारूद से भर चुकी हैं।
आकाश–पाताल तक भय का जाल है।
धर्म की आग में विज्ञान घी बनता है —
क्योंकि दोनों अंधे हैं।
अंधा आविष्कार + अंधा नियम = नर्क।
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✧ 3. सभ्यता — ज़रूरी, पर स्थाई नहीं
सभ्य और सभ्यता ज़रूरी हैं —
यह दो के बीच पहला संवाद है।
जब तक दो लोग प्रेम में एक नहीं होते,
सभ्यता उचित है।
जब प्रेम घनिष्ठ हो जाता है,
तो सभ्यता के शब्द हट जाते हैं,
व्यवहार पिघल जाता है,
और स्वभाव जन्मता है।
एक स्त्री–पुरुष का प्रारंभिक मिलन सभ्य होता है।
दो व्यापारियों का संबंध भी सभ्य होता है।
यह सभ्यता प्रारंभिक स्तर है।
लेकिन सभ्यता स्थाई नहीं रहनी चाहिए।
इसका विस्तार आत्मिक प्रेम और मैत्री में होना चाहिए —
जहाँ दो एक हो जाएँ।
अगर कोई संबंध हमेशा सभ्य ही रहे,
तो वह आत्मिक नहीं बन पाता।
सभ्यता दो को जोड़ती है,
लेकिन स्थाई होने पर
दो को “दो ही” बनाए रखती है।
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✧ 4. तीनों की समस्या — आवश्यक होकर भी जाल बन गए
जीवन में पाने जैसा,
हासिल जैसा,
जितने जैसा कुछ नहीं है।
विज्ञान, धर्म, सभ्यता —
ये तीनों आवश्यकता हैं,
पर सत्य नहीं।
समस्या तब शुरू हुई
जब मनुष्य ने इन्हें पकड़कर
इन्हें ही “जीवन” मान लिया।
इन तीनों ने
आत्मिक प्रेम,
सत्य,
शांति,
संतोष,
मुक्ति —
सबकी जगह ले ली।
जिन्हें जीवन जीने का माध्यम होना था,
वे ही जीवन के शत्रु बन गए।
मनुष्य जीवन जीना भूल गया है,
और विज्ञान, धर्म, सभ्यता —
जीवन बनकर बैठ गए हैं।
मौलिक जीवन आत्मा में है —
इन तीनों में एक भी मौलिक नहीं।
तीनों की जरूरत है,
पर ये तीनों सिर्फ सतही प्राथमिकताएँ हैं।
जब जीवन की किरण भीतर जागती है,
तो साधन, धर्म और सभ्यता —
सब अपने आप छूट जाते हैं।
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✧ 5. अंतिम सत्य — ईश्वर पाने की वस्तु नहीं, जीने का फूल है
साधन, धर्म, विज्ञान, सभ्यता —
ये मार्ग हैं
पर मंज़िल नहीं।
जीवन को संवेदना, गहनता, रस और बोध से जीना —
यही साधना है।
साधन नहीं —
जीवन साधना है।
ईश्वर पाने की चीज़ नहीं —
जीने का अनुभव है।
जब जीवन खुले,
तो ईश्वर फूल की तरह खिल जाता है।
अनंत का बोध
फिर पूरे ब्रह्मांड का आनंद बन जाता है।
और वही आनंद —
परम आनंद है।
यही विज्ञान का अर्थ,
धर्म का अर्थ,
सभ्यता का अर्थ,
और जीवन का अंतिम अर्थ है।
और जब लक्ष्य आत्मा का प्रकाश, प्रेम का विस्तार और शांति का अनुभव बनता है, तब जीवन खिल उठता है।