पुराने दिनों की गूँज
शाम के साढ़े पाँच बजे थे।
दिल्ली की सर्द हवा में हल्की धूप अब सुनहरी परछाईं में बदल चुकी थी।
कॉफ़ी हाउस के बाहर पुरानी घड़ी की सुइयाँ जैसे किसी बीते वक्त को याद दिला रही थीं —
वही वक्त, जब नीहा और राहुल की हँसी पूरे स्कूल में गूंजा करती थी।
नीहा ने दरवाज़ा खोला।
हल्की-सी घंटी बजी — “टिन टिन” — और उसके साथ एक पुराना चेहरा सामने था।
राहुल।
वो अब पहले जैसा लड़का नहीं था जो हर वक़्त मस्ती करता था।
अब वो शांत, संयमित और थोड़ा थका हुआ-सा दिख रहा था।
नीहा के चेहरे पर मुस्कान आई, मगर उस मुस्कान में झिझक थी —
क्योंकि सालों की दूरी ने उनके बीच न जाने कितनी अनकही बातें जमा कर दी थीं।
“हाय…”
“हाय…”
बस यही दो शब्द बोले दोनों ने,
और फिर — खामोशी।
. खामोशी में कहे गए जज़्बात
दोनों खिड़की के पास वाली सीट पर बैठे।
बाहर सूरज धीरे-धीरे ढल रहा था,
और कॉफ़ी कप से उठती भाप के साथ हवा में वही पुरानी महक घुलने लगी —
वो महक जो कभी उनके कॉलेज की कैंटीन में बसती थी।
नीहा ने हल्के से पूछा,
“कैसे हो राहुल?”
“ठीक हूँ… तुम?”
“मैं भी।”
फिर दोनों मुस्कुराए।
लेकिन उस मुस्कान के पीछे जो सन्नाटा था,
वो उन बीते सालों की बात कर रहा था —
जब उन्होंने एक-दूसरे को खो दिया था, बिना किसी झगड़े, बिना किसी अलविदा के।
कॉफ़ी का पहला घूंट राहुल ने लिया,
फिर बोला,
“पता है, कभी-कभी लगता है वक्त रुक गया था… बस हम अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े।”
नीहा ने उसकी तरफ देखा।
उसकी आँखों में वही सादगी, वही गहराई थी जो कॉलेज के दिनों में हुआ करती थी।
“हाँ… शायद वक्त हमें अलग नहीं करता,
बस हमें खुद को पहचानने का मौका देता है।”
राहुल ने मुस्कुराते हुए सिर झुका लिया।
उनके बीच अब कोई शब्द नहीं थे,
फिर भी हर खामोशी में एक कहानी थी —
पहली बारिश की, पहले झगड़े की, और उस अधूरे अलविदा की।
पुरानी यादों का रास्ता
कॉफ़ी खत्म होने के बाद राहुल ने कहा,
“थोड़ा घूम आओ? वही पुरानी गली से।”
नीहा ने हाँ कहा।
दोनों धीरे-धीरे पुराने रास्तों पर चलने लगे।
हर मोड़, हर दीवार, हर पेड़ — जैसे उन्हें पहचान रहा था।
वो बेंच जहाँ राहुल ने कभी नीहा को पहली बार कविता सुनाई थी,
आज भी वहीं थी — बस अब उस पर धूल की परत थी।
“याद है?” राहुल ने पूछा।
“हाँ, बहुत अच्छी तरह,” नीहा ने मुस्कुराते हुए कहा,
“तुम्हारी वो कविता आधी थी…”
राहुल ने जवाब दिया,
“हाँ, क्योंकि आधी बात कहने की हिम्मत नहीं थी।”
नीहा चुप रही।
लेकिन उसकी आँखों में वो अधूरी पंक्तियाँ तैरने लगीं —
“तुम्हारी हँसी से जो दिन खिलते हैं,
वो शायद ही किसी मौसम में मिलते हैं…”
. दिल की आवाज़
रात ढलने लगी थी।
सड़क पर पीली रोशनी और हवा में ठंडक घुल चुकी थी।
दोनों एक पुल पर जाकर रुक गए —
वही पुल जहाँ से शहर की रोशनी झिलमिलाती थी।
नीहा ने धीरे से कहा,
“राहुल, क्या तुम्हें कभी लगा कि जो हम महसूस करते थे…
वो बस दोस्ती थी?”
राहुल ने उसकी ओर देखा।
“नहीं… मुझे हमेशा लगता था कि वो कुछ और था,
पर तब हम दोनों में से किसी में भी उसे कहने की हिम्मत नहीं थी।”
नीहा ने सिर झुका लिया।
“और अब?”
राहुल ने कुछ नहीं कहा।
बस उसकी ओर एक लंबी नज़र डाली —
वो नज़र, जिसमें बरसों का सुकून, पछतावा और मोहब्बत सब एक साथ थे।
नीहा की आँखों में भी नमी थी।
वो बोली,
“कभी-कभी सोचती हूँ, अगर हम तब खुलकर बोल पाते…
तो शायद ज़िंदगी कुछ और होती।”
राहुल ने कहा,
“शायद… लेकिन तब हम आज इतने सच्चे एहसास तक नहीं पहुँचते।”
उनके बीच फिर खामोशी छा गई।
लेकिन इस बार वो खामोशी बोझिल नहीं थी —
वो सुकून भरी थी, जैसे किसी गाने का आखिरी सुर जो दिल में गूंजता रह जाए।
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. अधूरा नहीं, बस शांत
राहुल ने आसमान की ओर देखा —
चाँद अब बादलों से निकलकर पूरा था।
उसने कहा,
“नीहा, कुछ रिश्ते शायद पूरे नहीं होते…
लेकिन वो अधूरे भी नहीं रहते। बस — शांत हो जाते हैं।”
नीहा ने मुस्कुराते हुए कहा,
“हाँ, और शायद वही खामोशी हमें सिखाती है कि प्यार हमेशा बोलने से नहीं… महसूस करने से पूरा होता है।”
राहुल ने उसके हाथ की ओर देखा —
पहली बार, बिना किसी डर के, उसने धीरे से उसका हाथ थाम लिया।
वो पल ठहर गया।
कोई वादा नहीं, कोई भविष्य की बात नहीं —
बस एक एहसास था कि उनके बीच अब कुछ भी अधूरा नहीं रहा।
हवा हल्की चल रही थी,
कॉफ़ी की खुशबू अब भी नीहा की उँगलियों में बसी थी,
और राहुल के चेहरे पर वो सुकून था जो बरसों से गायब था।
दोनों पुल से नीचे बहते पानी को देखते रहे।
वो पानी बहता रहा — जैसे वक्त का प्रतीक हो।
पर इस बार, वो दोनों उसमें खो नहीं रहे थे,
बल्कि खुद को पा रहे थे।
. अंत — "वे खामोशी"
नीहा ने कहा,
“कभी-कभी लगता है, जो बातें हम नहीं कह पाते,
वो सबसे गहराई से महसूस होती हैं।”
राहुल ने धीरे से मुस्कुरा कर जवाब दिया,
“हाँ, और शायद वही ‘वे खामोशी’ हमें जोड़ती हैं…
बिना किसी शोर के, बिना किसी शब्द के।”
दोनों एक आखिरी बार एक-दूसरे को देखे —
और फि
र अपने-अपने रास्तों पर चल पड़े।
क्योंकि अब उन्हें मालूम था —
हर मुलाकात का अंत ‘अलविदा’ नहीं होता,
कभी-कभी वो बस एक खामोशी होती है जो दिल के भीतर सदा बोलती रहती है।
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पाँच साल बीत चुके थे।
वक़्त ने दोनों की ज़िंदगी को नई दिशा दी थी —
नीहा अब जयपुर में एक आर्ट गैलरी चलाती थी,
जहाँ हर पेंटिंग में उसकी भावनाएँ और अधूरी कहानियाँ बोलती थीं।
राहुल मुंबई में एक आर्किटेक्ट बन चुका था —
काग़ज़ पर इमारतें बनाते-बनाते वो अपने अंदर के खालीपन को दीवारों के पीछे छुपा देता था।
किसी को नहीं पता था कि दोनों अब भी कभी-कभी एक-दूसरे का नाम हवा में सुनते हैं —
बिना पुकारे, बिना जवाब के।
फिर एक दिन, नियति ने एक खेल खेला।
जयपुर में आयोजित “Silent Emotions – The Art of Unspoken Love” प्रदर्शनी में,
नीहा की पेंटिंग्स लगाई गईं।
उसी प्रदर्शनी में राहुल एक अतिथि आर्किटेक्ट के तौर पर आमंत्रित था।
नीहा को इस बात का अंदाज़ा नहीं था।
वो अपनी पेंटिंग्स के पास खड़ी थी —
और तभी किसी ने धीरे से कहा,
“अब भी तुम्हारी रेखाओं में वही खामोशी है, नीहा।”
वो आवाज़ — वही थी।
राहुल।
पुराना एहसास, नई धड़कन
नीहा ने मुड़कर देखा।
राहुल सामने था — पहले से ज्यादा परिपक्व, शांत, और फिर भी वैसा ही सच्चा।
उसकी आँखों में वही गहराई थी,
बस अब उनमें वक़्त की परिपक्वता भी थी।
“तुम?” नीहा के होंठों से इतना ही निकला।
“हाँ… मैं,” राहुल ने मुस्कुराते हुए कहा,
“शायद कुछ अधूरी बात अब भी बाकी थी।”
दोनों के बीच वही मौन उतर आया —
पर अब वो खामोशी अजीब नहीं थी,
वो सुकून देती थी।
नीहा ने कहा,
“मैंने सोचा था, अब कभी मुलाक़ात नहीं होगी।”
राहुल ने जवाब दिया,
“कुछ खामोशियाँ कभी खत्म नहीं होतीं, बस वक्त उनका नया रूप चुनता है।”
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एक शाम, दो सच्चाईयाँ
शाम को प्रदर्शनी के बाद दोनों पास के एक कैफ़े में बैठे।
बाहर गुलाबी शहर की हवाएँ थी,
अंदर उनकी पुरानी यादें।
“नीहा,” राहुल ने धीरे से कहा,
“तुम्हारी ये पेंटिंग...”
उसने सामने लगी तस्वीर की ओर इशारा किया —
जहाँ एक लड़की खिड़की के पास बैठी थी,
और हवा में उसके बाल उड़ रहे थे।
उसकी आँखें किसी दूर जाते इंसान को देख रही थीं।
“क्या ये... हमारे बारे में है?” राहुल ने पूछा।
नीहा मुस्कुराई।
“शायद। या शायद हर उस एहसास के बारे में जो कहा नहीं जा सका।”
दोनों के बीच फिर खामोशी थी,
लेकिन इस बार उस खामोशी में एक गहराई थी —
जैसे वक्त ने दोनों को अपने अंदर गूंधकर फिर से एक ही धड़कन में ढाल दिया हो।
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अधूरापन नहीं, स्वीकार
राहुल ने कहा,
“जानती हो, नीहा… मैंने अब सीखा है कि कुछ लोग ज़िंदगी में लौटकर नहीं आते,
बस हमेशा दिल में रह जाते हैं।”
नीहा ने उसकी तरफ देखा,
“और अगर वो लौट आएं तो?”
राहुल मुस्कुराया,
“तो शायद अब कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती।
क्योंकि खामोशियाँ खुद बोलना सीख जाती हैं।”
नीहा ने उसकी आँखों में देखा —
वहाँ अब कोई अधूरापन नहीं था।
सिर्फ एक स्वीकार था —
कि उनका रिश्ता अब किसी नाम, किसी वादे से बंधा नहीं,
बल्कि उस एहसास से जुड़ा है जो वक्त से परे है।
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अंत — फिर वही सुकून
रात गहराने लगी थी।
दोनों कैफ़े से बाहर निकले।
आसमान में तारे थे —
और हवा में वही पुरानी सुगंध, जो पाँच साल पहले दिल्ली की शाम में थी।
राहुल ने नीहा से कहा,
“शायद यही हमारी कहानी थी —
ना पूरी, ना अधूरी… बस सच्ची।”
नीहा ने धीरे से कहा,
“हाँ… वे खामोशी जो अब शब्दों से कहीं ज़्यादा खूबसूरत लगती है।”
दोनों अलग दिशाओं में चल पड़े —
पर इस बार कोई अलविदा नहीं था।
क्योंकि अब दोनों जानते थे,
प्यार कभी खत्म नहीं होता…
वो बस रूप बदलकर खामोशी बन जाता है।
वे खामोशी जो लफ़्ज़ों से कह न सके,
वो दिल की धड़कनों में रह गई।
ना शिकायत, ना कोई इल्ज़ाम था,
बस मोहब्बत थी — जो अधूरी नहीं,
बस चुप हो गई। 💔
चेहरों पे मुस्कान, निगाहों में सुकून,
पर दिल के अंदर अब भी वो जुनून।
कभी नज़रों ने पूछा, कभी दिल ने कहा,
क्या प्यार हमेशा बोलना ज़रूरी होता है?
शायद नहीं...
कभी-कभी वे खामोशी ही सबसे खूबसूरत जवाब होती है। 🌙