village girl in Hindi Motivational Stories by Vijay Sharma Erry books and stories PDF | गाँव की बेटी

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गाँव की बेटी

गाँव की बेटी: एक सुन्दर सपना
लेखक: विजय शर्मा एरी
(शब्द संख्या: लगभग १५००)
गाँव की धूल भरी सड़कें, जहाँ हर कदम पर मिट्टी का स्वाद लगता है, और हवा में खेतों की ताज़गी घुली रहती है। ऐसा ही एक छोटा-सा गाँव था हरियाणा के कोने में बसा हुआ—नाम था हरिपुर। यहाँ की ज़िंदगी सरल थी, लेकिन सपनों से भरी। सुबह होते ही मुर्गियों की कांव-कांव, गायों का मूँह उठाना और किसानों की हँसी-मज़ाक से गूँज उठता था हरिपुर। लेकिन इस सबके बीच एक ऐसी बेटी थी, जिसके सपनों ने पूरे गाँव को रोशन कर दिया था। उसका नाम था रानी।
रानी का जन्म हरिपुर के सबसे साधारण घर में हुआ था। उसके पिता, रामस्वरूप, एक छोटे से किसान थे, जिनके पास बस दो बीघा ज़मीन थी। माँ, सरला, घर संभालतीं और कभी-कभी खेतों में भी हाथ बँटातीं। रानी तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी थी—दो बड़े भाई, जो खेतों में पिता का हाथ बँटाते थे। गाँव में लड़कियों को पढ़ाने का चलन कम था। "बेटी तो पराई धन है," कहकर कई परिवार अपनी बेटियों को किताबों से दूर रखते थे। लेकिन रानी के पिता अलग थे। उन्होंने बचपन से ही रानी को स्कूल भेजा। "पढ़-लिख लेगी तो अपना घर बसा लेगी," वे कहते।
रानी को पढ़ना-सुनना बहुत पसंद था। गाँव के प्राइमरी स्कूल में, जहाँ दीवारें टूटी-फूटी थीं और बेंचें लकड़ी की पुरानी, वह सबसे आगे बैठती। टीचर जी, मिस्टर शर्मा, उसे बहुत चाहते थे। "रानी, तू तो डॉक्टर बनेगी एक दिन," वे हँसते हुए कहते। रानी की आँखें चमक उठतीं। डॉक्टर! हाँ, यही सपना था उसका। गाँव में जब कोई बीमार पड़ता, तो डॉक्टर साहब गाड़ी से आते, महँगी दवाएँ लिखते और चले जाते। रानी सोचती, काश वह भी ऐसी हो जाए। गाँव की हर बेटी को मुफ्त इलाज दे, ताकि कोई माँ बेटी के लिए रो न सके।
स्कूल के बाद रानी घर लौटती तो सीधे खेतों की ओर। वहाँ माँ के साथ पानी देती, फसल काटने में मदद करती। लेकिन शाम को, जब सूरज ढलता, वह अपनी छोटी-सी दुनिया में खो जाती। एक पुरानी किताबें का संग्रह था उसके पास—पिता ने शहर से लाकर दिया था। उनमें डॉक्टरों की कहानियाँ थीं, जो बीमारियों से लड़ते थे। रानी पढ़ती और कल्पना करती—खुद को सफेद कोट में, स्टेथोस्कोप गले में लटकाए, गाँव वालों को देखते हुए। "रानी डॉक्टर बेटी," गाँव की औरतें कहतीं, तो वह शरमा जाती। लेकिन सपना तो सपना था—सुन्दर, चमकदार, जैसे चाँदनी रात का तारा।
एक दिन, गर्मियों की दोपहर में, सब कुछ बदल गया। रानी के बड़े भाई, हरिया, खेत में काम करते हुए गिर पड़ा। सूरज की तपिश ने उसे चक्कर दे दिया। गाँव का डॉक्टर आया, लेकिन देर हो चुकी थी। हरिया को शहर के अस्पताल ले जाना पड़ा। वहाँ ऑपरेशन हुआ, लेकिन खर्चा इतना कि परिवार कर्ज़ में डूब गया। रामस्वरूप ने अपनी आधी ज़मीन बेच दी। रानी को देखकर उनका दिल बैठ गया। "बेटी, अब तू भी खेत में मदद कर। पढ़ाई बाद में," उन्होंने कहा। लेकिन रानी ने सिर झुका लिया। "पापा, सपना तो पूरा होना चाहिए। हरिया भैया ठीक हो जाएँगे, मैं डॉक्टर बनूँगी।"
गाँव की पंचायत हुई। बुजुर्गों ने फैसला सुनाया—लड़कियों की पढ़ाई पर रोक। "गाँव की बेटी घर संभाले, यही उसका धर्म है।" रानी की माँ रो पड़ीं। लेकिन रानी ने हार न मानी। रात को चुपके से पढ़ती। पड़ोस की दीदी, जो शहर गई पढ़ाई के लिए, से चिट्ठियाँ आतीं। "रानी, हिम्मत रख। सपने टूटते नहीं, उड़ते हैं।" रानी ने सोचा, अब क्या करे? तभी उसे एक ख्याल आया। गाँव के सरपंच के पास एक पुरानी लाइब्रेरी थी। वहाँ किताबें पड़ी सड़ रही थीं। रानी ने सरपंच से विनती की। "चाचा जी, मुझे पढ़ने दो। मैं गाँव के बच्चों को भी पढ़ाऊँगी।"
सरपंच हँसे। "अरे रानी बिटिया, तू तो जिद्दी है। ठीक है, लेकिन शाम को आना।" बस, रानी की ज़िंदगी में एक नई रोशनी आ गई। दिन भर खेतों में काम, शाम को लाइब्रेरी में पढ़ाई। वहाँ न सिर्फ किताबें थीं, बल्कि शहर के अखबार भी आते। रानी ने पहली बार डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षाओं के बारे में पढ़ा। एमबीबीएस! कितना लंबा सफर। लेकिन सपना था न, सुन्दर सपना। रानी ने फैसला किया—शहर जाऊँगी। लेकिन पैसे कहाँ से?
तभी गाँव में एक मेले का आयोजन हुआ। हर साल की तरह, नाटक, गीत-संगीत। रानी ने सोचा, क्यों न एक नाटक लिखूँ? विषय रखा—'गाँव की बेटी का सपना'। उसने गाँव के बच्चों को इकट्ठा किया। दो हफ्तों में नाटक तैयार। मंच पर रानी मुख्य भूमिका में—एक गरीब बेटी, जो डॉक्टर बनने का सपना देखती है। दर्शक ठहाके लगाते, तालियाँ बजाते। मेले के अंत में सरपंच ने इनाम दिया—पाँच सौ रुपये। रानी की आँखें नम हो गईं। "ये मेरे सपने के लिए," उसने सोचा।
लेकिन इतना कम था। रानी ने गाँव वालों से गुहार लगाई। "चाचा-अंकल, आंटियाँ, मेरी मदद करो। मैं डॉक्टर बनूँगी, आपके लिए।" कुछ ने मजाक उड़ाया, "अरे, लड़की हो, क्या करोगी?" लेकिन कई ने दिल से दिया। एक किसान ने अपनी बकरी बेचकर सौ रुपये दिए। एक विधवा ने अपनी सारी जमा-पूँजी—पचास रुपये। धीरे-धीरे पैसे जमा होने लगे। रानी की माँ ने अपना मंगलसूत्र तक बेच दिया। "बेटी, तू मेरा सपना है," उन्होंने कहा।
आखिरकार, परीक्षा का दिन आया। रानी शहर पहुँची—ट्रेन में चढ़कर, पहली बार। दिल्ली स्टेशन की भीड़ ने उसे घेर लिया। लेकिन सपना था न, जो रास्ता दिखा रहा था। प्रवेश परीक्षा का सेंटर एक बड़े कॉलेज में। रानी ने हॉल में बैठकर कागज़ देखा—सवाल कठिन थे। जीव विज्ञान, रसायन, भौतिकी। रानी की साँसें तेज़ हो गईं। लेकिन उसने आँखें बंद कीं। गाँव की याद आई—खेत, माँ की गोद, भाई का हँसना। "मैं कर लूँगी," उसने खुद से कहा। तीन घंटे बीते, पेन रुका नहीं। बाहर निकलकर, वह काँप रही थी।
परिणाम का दिन। गाँव में तनाव। रामस्वरूप ने रेडियो पर समाचार सुना—"प्रवेश परीक्षा के परिणाम घोषित।" नामों की लिस्ट पढ़ी गई। "रानी देवी, हरिपुर।" गाँव उछल पड़ा। ढोल-नगाड़े बजे। रानी पास हो गई! टॉप दस में! कॉलेज ने स्कॉलरशिप भी दी। सपना सच होने लगा।
लेकिन सफर आसान न था। एमबीबीएस के पहले साल में, रानी को शहर की चकाचौंध ने घेर लिया। हॉस्टल में अमीर लड़कियाँ, महँगे कपड़े, पार्टीज़। रानी को अपना सूटकेस देखकर हँसी आती। उसमें गाँव के कपड़े, माँ का अचार। एक रूममेट, नेहा, ने कहा, "रानी, तू तो गाँव वाली लगती है। यहाँ क्या करेगी?" रानी मुस्कुराई। "सपना पूरा करने।" पढ़ाई कठिन थी। रातें जागकर किताबें निबटाती। प्रैक्टिकल में लाशें देखकर डर लगता, लेकिन सोचती—गाँव में कितने बच्चे बिना इलाज मर जाते हैं।
दूसरे साल, एक दुर्घटना हुई। रानी का भाई हरिया फिर बीमार पड़ गया। किडनी फेल। शहर लाए गए। रानी हॉस्टल से भागी, अस्पताल पहुँची। डॉक्टरों ने कहा, "डायलिसिस चलेगा, लेकिन ट्रांसप्लांट चाहिए।" रानी रो पड़ी। वह खुद डॉक्टर बन रही थी, लेकिन अपने भाई को बचा न सकी। हरिया ने कहा, "रानी, तू मत रुक। तेरा सपना मेरा भी है।" रानी ने हिम्मत जुटाई। पढ़ाई जारी रखी। इंटर्नशिप में, वह गाँव जैसे इलाकों में जाती। वहाँ गरीब मरीज़ देखती, दवाएँ मुफ्त बाँटती। "एक दिन मैं लौटूँगी," सोचती।
पाँच साल बीत गए। रानी एमबीबीएस पूरी कर चुकी थी। ग्रेजुएशन डे पर, जब डिग्री मिली, वह मंच से नीचे उतरी तो आँसू बह रहे थे। माँ-पापा आए थे—गाँव के सादे कपड़ों में। नेहा ने गले लगाया। "तू जीत गई, गाँव की बेटी।" रानी ने सोचा, अब क्या? प्राइवेट क्लिनिक? अमीर शहर? नहीं। सपना तो गाँव का था।
रानी हरिपुर लौटी। गाँव वालों ने स्वागत किया—झाँकियाँ, नाच-गाना। उसने सरपंच से कहा, "चाचा, एक क्लिनिक बनवाओ। मैं मुफ्त इलाज करूँगी।" सरपंच ने सरकारी मदद ली। एक छोटा-सा भवन बना। 'रानी मेडिकल सेंटर'—नाम पड़ा। सुबह से शाम तक मरीज़ आते। बुखार, कफ, प्रसव—सब संभालती रानी। गर्भवती महिलाओं को पोषण सिखाती। बच्चों को टीके लगवाती। "गाँव की बेटी डॉक्टर बनी," गूँजता गाँव।
एक रात, आँधी आई। बाढ़ आ गई। खेत डूबे, घर बहने लगे। एक विधवा का बेटा, छोटू, बह गया। रानी दौड़ी। नाव पर चढ़ी, अँधेरे में तैरती। छोटू को पकड़ा, CPR दिया। बच गया वह। गाँव ने देखा—सपना सिर्फ रानी का नहीं, सबका था। बुजुर्गों ने कहा, "बिटिया, तू हमारी शान है। लड़कियों को पढ़ाओ।"
रानी ने स्कूल खोला—लड़कियों के लिए। "सपने देखो, पूरा करो," कहती। आज हरिपुर बदला है। बेटियाँ पढ़ रही हैं, डॉक्टर, इंजीनियर बन रही हैं। रानी की शादी हुई—एक ऐसे डॉक्टर से, जो गाँव सेवा करता है। लेकिन उसका सबसे बड़ा साथी है वह सुन्दर सपना, जो कभी न टूटा।
गाँव की बेटी रानी साबित कर गई—सपने सीमाओं से परे होते हैं। वे उड़ान भरते हैं, और पूरे आकाश को रोशन कर देते हैं। हरिपुर आज भी गूँजता है—'रानी की जय हो!'
(शब्द संख्या: १४८७। यह कहानी प्रेरणा पर आधारित है, जो गाँव की बेटियों के संघर्ष और विजय को दर्शाती है।)