This friendship in Hindi Motivational Stories by Vijay Sharma Erry books and stories PDF | यह दोस्ती

Featured Books
Categories
Share

यह दोस्ती

यह दोस्ती
लेखक: विजय शर्मा एरी
अध्याय 1: मिलन की शाम
शहर की चकाचौंध भरी शाम थी। दिल्ली की सड़कें हमेशा की तरह हलचल से भरी हुई थीं। ट्रैफिक का शोर, होर्डिंग्स की चमक और लोगों की भागदौड़। इसी बीच, कॉलेज के कैंपस में दो लड़के पहली बार मिले। एक था राज, लंबा कद, गोरा चेहरा, हमेशा मुस्कुराता हुआ। राज अमीर घराने का था – उसके पिता एक बड़े बिजनेस मैन थे, जिनकी कारें शहर की सड़कों पर दौड़ती रहतीं। राज को लग्जरी की आदत थी, लेकिन उसका दिल सादा था। दूसरा था अजय, छोटा कद, सांवला रंग, लेकिन आंखों में एक चमक जो किसी को भी अपनी ओर खींच ले। अजय गरीब परिवार से था। उसके पिता एक छोटे से दुकानदार थे, जो किराने की दुकान चलाते थे। अजय रात-दिन पढ़ाई करता, ताकि एक दिन परिवार का बोझ कम हो सके।
कैंपस के लाइब्रेरी में दोनों की मुलाकात हुई। राज एक किताब ढूंढ रहा था – "दुनिया की महान दोस्तियां" नाम की। अजय भी वही किताब पढ़ रहा था। "एक्सक्यूज मी, क्या मैं इसे ले सकता हूं?" राज ने पूछा। अजय ने किताब बंद की और मुस्कुराया, "बिल्कुल, लेकिन पहले बताओ, दोस्ती पर क्यों पढ़ रहे हो? खुद दोस्त बनाने में दिक्कत हो रही है क्या?" राज हंस पड़ा। "नहीं भाई, बस सोचा, किताब से सीख लूंगा। तू तो लगता है एक्सपर्ट है।" बस, यहीं से बातें शुरू हो गईं। शाम ढलते-ढलते दोनों चाय की स्टॉल पर बैठे थे। राज ने चाय का बिल चुकाया, अजय ने हिचकिचाते हुए कहा, "अगली बार मैं दूंगा।" राज ने कंधा उछाला, "दोस्ती में हिसाब-किताब नहीं चलता।"
उस दिन से दोनों के बीच दोस्ती पनपने लगी। कॉलेज के दिनों में वे साथ घूमते, साथ पढ़ते। राज अजय को अपने घर ले जाता, जहां अजय पहली बार पूल में तैरना सीखा। अजय राज को अपनी गली में ले जाता, जहां वे सड़क किनारे चाट-पकौड़े खाते। "यह कैसे दोस्ती है, राज? तू अमीर, मैं गरीब। फिर भी हम साथ हैं," अजय ने एक बार कहा। राज ने जवाब दिया, "दोस्ती तो दिल से दिल तक होती है, ना कि जेब से जेब तक।" वे हंसते, और लगता जैसे दुनिया की सारी परेशानियां भूल गईं।
अध्याय 2: परीक्षा का तूफान
समय बीतता गया। कॉलेज के फाइनल ईयर में पहुंचे दोनों। परीक्षाएं नजदीक थीं। राज हमेशा की तरह लापरवाह था। पार्टीज, घूमना-फिरना, उसके लिए पढ़ाई दूसरी प्राथमिकता थी। अजय उल्टा, रात-दिन किताबों में डूबा रहता। एक रात, राज के फोन पर अजय का मैसेज आया: "भाई, मैथ्स का पेपर कल है। तू तैयार है?" राज ने जवाब दिया, "हां यार, बस थोड़ा रिवाइज कर लूंगा।" लेकिन सच तो यह था कि राज ने कुछ छुआ तक नहीं था।
अगले दिन परीक्षा हॉल में राज घबरा गया। पेपर देखते ही उसके चेहरे का रंग उड़ गया। सवाल मुश्किल थे, और राज के दिमाग में खालीपन। वह इधर-उधर देखने लगा। अजय उसके बगल में बैठा था। अजय ने राज की हालत भांप ली। धीरे से कागज पर कुछ लिखा और राज की ओर सरकाया। राज ने देखा – अजय ने सारे महत्वपूर्ण फॉर्मूले लिख दिए थे। राज ने जल्दी से कॉपी किया। परीक्षा खत्म होने पर राज ने अजय को गले लगा लिया। "तूने मेरी जान बचाई, भाई। बिना तेरे के मैं फेल हो जाता।" अजय मुस्कुराया, "दोस्ती यही तो है। लेकिन अगली बार खुद पढ़ना।"
परिणाम आए। अजय टॉप किया, राज पास। राज के पिता ने राज को डांटा, लेकिन राज ने कहा, "पापा, अजय ने बचाया। वह मेरा सच्चा दोस्त है।" पिता ने अजय को बुलाया और कहा, "बेटा, तूने मेरे बेटे को सही रास्ता दिखाया।" अजय शर्मा गया। लेकिन राज जानता था, यह दोस्ती अभी और परीक्षाओं से गुजरेगी।
अध्याय 3: नौकरी की दौड़
कॉलेज खत्म हुआ। दोनों ने इंजीनियरिंग की डिग्री ली। राज को उसके पिता की कंपनी में नौकरी मिल गई – हाई सैलरी, लग्जरी ऑफिस। अजय ने कई इंटरव्यू दिए। एक-दो जगह रिजेक्ट हो गया। आखिरकार, एक छोटी कंपनी में जॉब लग गई – सैलरी कम, लेकिन अनुभव मिलेगा। राज खुश था अजय के लिए, लेकिन अजय के चेहरे पर उदासी थी। "भाई, तू तो उड़नखटोले पर है, मैं साइकिल पर। कैसे बराबरी करेंगे अब?"
राज ने कहा, "दोस्ती में बराबरी नहीं, साथ चलना होता है। चल, आज पार्टी करते हैं।" वे एक रेस्तरां गए। राज ने बिल चुकाया, अजय ने विरोध किया। "नहीं राज, अब मैं अकेला कमाता हूं। तू हमेशा क्यों?" राज हंस पड़ा, "क्योंकि तू मेरा भाई है। हिसाब मत रख।" लेकिन अजय के मन में एक कांटा खटकने लगा। धीरे-धीरे, मुलाकातें कम होने लगीं। राज की नौकरी व्यस्त थी – मीटिंग्स, ट्रैवल। अजय की भी – लंबे घंटे, कम पैसे। फोन पर बातें होतीं, लेकिन वो पुरानी मस्ती कहां?
एक दिन, अजय को प्रमोशन का मौका मिला। लेकिन उसके लिए एक बड़ा प्रोजेक्ट करना था, जिसमें राज की कंपनी का को-ऑपरेशन चाहिए। अजय राज के पास गया। "भाई, मदद कर दे। तू तो वहां सीनियर है।" राज ने हामी भरी। लेकिन जब प्रोजेक्ट राज के बॉस के पास गया, तो बॉस ने कहा, "राज, यह कॉम्पिटिटर कंपनी है। हमारा प्रोजेक्ट प्रभावित होगा। ना करो।" राज दुविधा में पड़ गया। दोस्ती या नौकरी? उसने अजय को फोन किया, "सॉरी यार, ऑफिस ने मना कर दिया।" अजय चुप रहा। "कोई बात नहीं," कहा और फोन काट दिया। लेकिन उसके दिल में दर्द था। "यह कैसे दोस्ती है? जब जरूरत पड़ी, तो पीठ दिखा दी।"
अध्याय 4: संकट की घड़ी
महीनों बीत गए। अजय ने प्रोजेक्ट अकेले किया, लेकिन प्रमोशन नहीं मिला। कंपनी ने उसे निकाल दिया। बेरोजगारी की मार पड़ी। परिवार पर बोझ बढ़ा। अजय के पिता बीमार हो गए। दवा का खर्च, किराया – सब कुछ ऊंट के मुँह में जीरा। अजय राज को फोन करता, लेकिन राज व्यस्त। "कल बात करता हूं," कहकर टाल देता। एक रात, अजय टूट गया। सड़क पर बैठा रो रहा था। "यह कैसे दोस्ती थी? सब झूठा।"
दूसरी तरफ, राज की जिंदगी चमक रही थी। प्रमोशन, नई कार, शादी की बातें। लेकिन रातों में नींद नहीं आती। अजय का चेहरा याद आता। "मैंने गलती की। दोस्ती को नौकरी के आगे हरा दिया।" एक दिन, राज को पता चला – अजय के पिता अस्पताल में हैं। राज दौड़ा चला आया। अस्पताल के बाहर अजय को देखा – थका-हारा, आंखें सूजी हुईं। "अजय!" राज दौड़कर गले लगा। अजय पीछे हटा। "अब क्या काम? मदद चाहिए तो आ गया?"
राज के आंखों में आंसू थे। "नहीं यार, मैं आया हूं माफी मांगने। मैंने गलती की। प्रोजेक्ट वाली बात... मैं डर गया था। नौकरी खराब हो जाएगी सोचा। लेकिन तू मेरा भाई है। तेरे बिना जिंदगी अधूरी है।" अजय चुप। राज ने हाथ पकड़ा, "चल, अंकल से मिलते हैं। खर्चा मैं दूंगा।" अजय ने झटक दिया। "नहीं राज। दोस्ती पैसे से नहीं चलती। तूने जब मेरी मदद न की, तब पता चला – यह कैसे दोस्ती है? सुख में साथ, दुख में पीछे।"
राज टूट गया। वह वहीं बैठ गया। "सच कह रहा है तू। लेकिन मुझे मौका दे। मैं सब सुधारूंगा।" अजय ने सिर झुका लिया। "सुबह बात करेंगे। अभी अंकल के पास जाऊं।" राज रुका रहा। रात भर जागा। सोचा, दोस्ती क्या है? किताबों में लिखा – सुख-दुख में साथ। लेकिन रियल लाइफ में? राज ने फैसला किया – सब कुछ दांव पर लगाएगा।
अध्याय 5: त्याग की परीक्षा
सुबह हुई। राज अजय के घर पहुंचा। अजय के पिता की हालत स्थिर थी। राज ने कहा, "अजय, मैंने नौकरी छोड़ दी।" अजय चौंका। "क्या बकवास कर रहा है?" राज ने बताया, "प्रोजेक्ट वाली कंपनी में जॉब अप्लाई की। वहां तेरे प्रोजेक्ट को सपोर्ट करूंगा। तू भी साथ आ। हम दोनों मिलकर कुछ बड़ा करेंगे।" अजय हंस पड़ा, लेकिन आंसू बह रहे थे। "पागल है तू? तेरी जिंदगी सेट है। मेरे लिए सब छोड़ देगा?"
राज ने कहा, "दोस्ती यही तो है। जब तूने परीक्षा में मेरी मदद की, तब हिसाब नहीं रखा। अब मैं रखूं? यह कैसे दोस्ती होगी? आधी-अधूरी।" अजय गले लगा लिया। "तू सच्चा है, राज। माफ कर दे। मैंने जल्दबाजी में बुरा सोचा।" दोनों रोए, हंसे। राज ने पिता को फोन किया। "पापा, मैं नई शुरुआत कर रहा हूं। अजय के साथ।" पिता ने कहा, "बेटा, तूने सही किया। दोस्ती अमूल्य है।"
दोनों ने मिलकर नई कंपनी शुरू की। छोटी सी, लेकिन सपनों से भरी। शुरुआत मुश्किल थी। पैसा कम, क्लाइंट्स कम। लेकिन वे साथ थे। राज का अनुभव, अजय की मेहनत – सब मिला। एक साल में कंपनी चल पड़ी। अजय के पिता ठीक हो गए। राज की शादी अजय की बहन से हुई – नहीं, मजाक था। लेकिन परिवार एक हो गए।
अध्याय 6: यह कैसे दोस्ती – सबक
आज, सालों बाद, दोनों बालकनी में बैठे हैं। चाय पी रहे हैं। शहर अब भी चकाचौंध भरा है, लेकिन उनका दिल शांत। "याद है, पहली मुलाकात?" राज कहता है। अजय हंसता है, "हां, किताब वाली। तभी सोचा था – यह कैसे दोस्ती बनेगी? अमीर-गरीब।" राज जवाब देता है, "बनी तो सही। परीक्षाओं से गुजरी, संकटों से लड़ी। लेकिन मजबूत हुई।"
दोस्ती एक रहस्य है। कभी आसान, कभी कठिन। लेकिन जब सच्ची हो, तो अमिट। यह कैसे दोस्ती? वह जो दिल से हो, जो त्याग सिखाए, जो साथ निभाए। राज और अजय की कहानी यही बताती है – दोस्ती कोई संयोग नहीं, बल्कि चुनाव है। हर मोड़ पर चुनना पड़ता है – स्वार्थ या साथ?
(शब्द संख्या: लगभग 1520। यह कहानी दोस्ती की गहराई को छूती है, जहां सुख-दुख के बीच का बंधन मजबूत होता है। विजय शर्मा एरी की कल्पना से सजाई गई।)