शीर्षक: बरगद और वो
लेखक: विजय शर्मा एरी
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गांव के किनारे, जहाँ मिट्टी की खुशबू हवा में घुल जाती थी और नदिया का पानी सूरज की किरणों से सोने सा चमकता था, वहीं एक विशाल बरगद का पेड़ खड़ा था — मानो समय का साक्षी। उसकी जड़ें ज़मीन से बाहर निकल कर धरती को गले लगातीं, और उसकी छाँव में बैठा कोई भी इंसान अपने दुख भूल जाया करता।
गांव के लोग उसे “बाबा बरगद” कहते थे। कहते हैं, उस पेड़ के नीचे बैठने से मन को शांति मिलती है, और जो सच्चे मन से अपनी बात कहे, उसकी मुराद पूरी होती है।
वहीं, हर शाम एक नौजवान लड़का आता था — आरव। उम्र मुश्किल से 24 साल, पर चेहरा किसी बूढ़े साधक सा शांत। वो कुछ देर तक पेड़ को निहारता और फिर चुपचाप उसके नीचे बैठ जाता।
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पहला मिलन
एक दिन गांव की नयी अध्यापिका, सिया, अपने स्कूल से लौटते वक्त बरगद के पास रुकी। वह शहर से आई थी, पर गाँव की शांति और इस पेड़ की छाँव में उसे कुछ अजीब सा अपनापन महसूस हुआ।
आरव वहाँ पहले से बैठा था, आँखें बंद किए।
सिया ने मुस्कराते हुए कहा,
“आप रोज़ यहां बैठते हैं? क्या कोई मन्नत मांगी है आपने?”
आरव ने धीरे से आँखें खोलीं,
“नहीं... मन्नत नहीं... बस यादें हैं, जो यहाँ आकर चुप हो जाती हैं।”
सिया को आश्चर्य हुआ,
“यादें? कैसी यादें?”
आरव ने हल्की मुस्कान दी,
“वो... जो लौटकर कभी नहीं आतीं।”
सिया ने देखा, उसकी आँखों में कोई गहरी कहानी छुपी थी। शायद किसी अपने की।
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अतीत की छाया
अगले दिन से सिया भी रोज़ वहीं रुकने लगी। वह बरगद की जड़ों से टिककर बैठती, और आरव से बात करती।
धीरे-धीरे उसे पता चला कि यह पेड़ आरव के लिए सिर्फ़ एक पेड़ नहीं, एक स्मारक था।
“यहीं मैंने उसे पहली बार देखा था,” आरव ने एक दिन कहा।
“किसे?” सिया ने पूछा।
“मीरा को,” आरव ने जवाब दिया, उसकी आवाज़ में यादों की नमी थी।
“वो गांव की सबसे हँसमुख लड़की थी। बरगद के नीचे बच्चों को कहानी सुनाती थी। उसकी हँसी से पूरा माहौल खिल जाता था।”
सिया चुप रही।
आरव ने आगे कहा,
“हम दोनों का बचपन यहीं बीता। इसी पेड़ के नीचे खेलते, बातें करते, सपने बुनते। जब मैं कॉलेज गया, उसने कहा—‘लौट आना, बरगद के नीचे मिलूंगी।’”
सिया ने धीरे से पूछा,
“और आप लौटे नहीं?”
आरव की आँखें झुक गईं,
“लौटा तो था... पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बरसात की रात में वो नदी पार करते वक्त बह गई थी। लोग कहते हैं, उसने मुझे लौटते देखा था... और उसी वक्त तेज़ धारा में कदम रख दिया।”
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बरगद की छाँव में दर्द
सिया के दिल में कुछ टूट सा गया।
उसने देखा, बरगद का तना जैसे हर कहानी जानता हो।
उस शाम आरव ने मीरा की पसंदीदा पंक्तियाँ गुनगुनाईं —
> “तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं...”
“तेरे बिना ज़िंदगी भी लेकिन ज़िंदगी तो नहीं...”
सिया की आँखें भी भर आईं।
बरगद की पत्तियाँ जैसे हवा में थरथरा उठीं। मानो मीरा की आत्मा अब भी वहीं हो।
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समय का पहिया
दिन बीतते गए।
सिया अब स्कूल के बच्चों को बरगद के नीचे पढ़ाने लगी थी। उसे यह जगह बेहद पसंद आने लगी।
एक दिन आरव नहीं आया। फिर अगले दिन भी नहीं।
सिया बेचैन हो उठी। गांववालों से पूछने पर पता चला कि आरव बीमार है, शहर के अस्पताल में भर्ती है।
वो तुरंत भागी।
अस्पताल में आरव कमजोर था, लेकिन मुस्करा रहा था।
सिया बोली,
“आपने बताया क्यों नहीं? बरगद अब भी आपका इंतज़ार कर रहा है।”
आरव ने थकी हुई मुस्कान से कहा,
“बरगद से कहना... मीरा से कहना... मैं अब उसके पास आ रहा हूँ।”
सिया का दिल कांप गया।
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बरगद के नीचे अंतिम मुलाकात
कुछ दिन बाद गाँव में खबर आई — आरव अब नहीं रहा।
पूरा गाँव बरगद के नीचे इकट्ठा हुआ। सिया ने अपनी आंखों से बरगद की एक जड़ के पास आरव की अस्थियाँ रखवाईं।
उसने धीमे से कहा,
“अब वो और वो... हमेशा यहीं रहेंगे।”
बरगद की पत्तियाँ हवा में झूम उठीं, जैसे किसी पुरानी आत्मा ने उसे छू लिया हो।
उस शाम सिया ने अकेले में वही गीत गाया —
> “जीते हैं चलो इस प्यार में, मर भी जाएं तो क्या...”
बरगद की जड़ें जैसे उस सुर में झूम उठीं।
लोग कहते हैं, उस दिन से जब भी शाम की हवा चलती है, दो परछाइयाँ उस पेड़ के नीचे दिखाई देती हैं — एक मीरा की और एक आरव की।
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बरगद की नई कहानी
वक़्त बीता।
सिया अब गांव की स्थायी अध्यापिका बन चुकी थी। वह रोज़ बरगद के नीचे बच्चों को पढ़ाती, और बीच-बीच में कहानियाँ सुनाती।
एक दिन एक बच्ची ने पूछा,
“मैडम, ये पेड़ इतना बड़ा कैसे हुआ?”
सिया मुस्कराई,
“क्योंकि इसे दो दिलों का प्यार मिला है... आरव और मीरा का।”
बच्ची ने फिर पूछा,
“क्या वो दोनों अब भी आते हैं?”
सिया ने बरगद की पत्तियों की सरसराहट सुनी और बोली,
“हाँ... जब हवा चलती है, तो वो मुस्कराते हैं। जब बारिश आती है, तो वो रोते हैं। और जब धूप फैलती है, तो वो हमें आशीर्वाद देते हैं।”
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बरगद का संदेश
बरगद अब भी वहीं खड़ा है — बूढ़ा, पर अटल।
गांव में अब बिजली, मोबाइल, और सड़कें आ गईं, लेकिन लोग अब भी शाम को बरगद के नीचे बैठते हैं।
कई प्रेमी वहां आकर एक-दूसरे से वादा करते हैं कि वो कभी जुदा नहीं होंगे।
कई बूढ़े वहां बैठकर अपने बीते कल को याद करते हैं।
सिया अब बूढ़ी हो चली थी। एक शाम वह बरगद के नीचे आई, बच्चों को कहानी सुनाने के बाद बोली—
“जानते हो बच्चों, पेड़ और इंसान में फर्क क्या है?”
बच्चे बोले, “क्या?”
वो मुस्कराई,
“पेड़ कभी छोड़कर नहीं जाता। वो वहीं खड़ा रहता है, चाहे मौसम कोई भी हो। इंसान बदल जाता है, लेकिन पेड़ याद रखता है सब कुछ।”
इतना कहकर उसने बरगद के तने को छुआ और आंखें बंद कीं।
उसकी आंखों से एक आँसू गिरा... जैसे किसी पुराने दोस्त को अलविदा कह रही हो।
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अंतिम स्पर्श
रात में गांव पर हल्की बारिश हुई।
सुबह जब लोग पहुंचे, सिया वही बरगद के नीचे शांत पड़ी थी। उसके होंठों पर हल्की मुस्कान थी।
बरगद की शाखाओं से पानी की बूँदें उसके चेहरे पर गिर रही थीं, जैसे पेड़ उसे अंतिम विदाई दे रहा हो।
गांव वालों ने वहीं उसकी समाधि बना दी।
अब उस जगह तीन नाम हैं —
मीरा, आरव और सिया।
लोग कहते हैं, जब भी चाँदनी रात में हवा धीरे चलती है, बरगद की छाँव में तीन परछाइयाँ दिखाई देती हैं।
और दूर से किसी कोमल स्वर में वही गीत सुनाई देता है —
> “तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं...”
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बरगद का संदेश — जीवन का सार
बरगद का पेड़ आज भी खड़ा है,
हर आने-जाने वाले को ये संदेश देता है —
कि प्यार सिर्फ़ साथ होने का नाम नहीं, बल्कि स्मृति में जिंदा रहने की कला है।
कभी-कभी जो चले जाते हैं, वो भी अपने निशान पीछे छोड़ जाते हैं — हवा में, मिट्टी में, और एक बरगद के पेड़ में।
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समाप्त।
✍️ लेखक: विजय शर्मा एरी