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🕯️ एपिसोड 21 : “मिट्टी के नीचे दबी आवाज़”
रात फिर वही थी — भारी, ठंडी और धीमी साँसों से भरी।
दरभंगा की पुरानी हवेली अब राख में मिल चुकी थी, पर उसकी आवाज़... अब भी ज़िंदा थी।
रमाकांत ने तीन दिन बाद उस जगह कदम रखा जहाँ हवेली हुआ करती थी।
अब वहाँ बस मिट्टी थी, और मिट्टी के नीचे किसी की छुपी पुकार।
हवा में हल्की धूप थी, लेकिन जैसे-जैसे वह आगे बढ़ा, चारों ओर फिर वही अजीब सन्नाटा उतर आया।
“ई ज़मीन अब भी गरम बा…” उसने झुककर हाथ रखा —
मिट्टी सचमुच धड़क रही थी।
“लगता है कहानी ख़त्म नइखे भइनी…” उसने बुदबुदाया।
उसी वक़्त पीछे से किसी ने फुसफुसाया —
“रमाकांत…”
आवाज़ बहुत धीमी थी, पर पहचानने लायक।
वह पलटा — कोई नहीं था।
बस हवा में राख के कुछ कण तैर रहे थे।
राख की उस हल्की परत पर कुछ लिखा था —
“पन्ना अभी बाकी है।”
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🌒 1. नई छत, पुराना डर
तीन महीने बाद —
दरभंगा की उसी ज़मीन पर अब एक नया बंगला खड़ा था।
उसका नाम रखा गया था — “नवप्रभा विला।”
मालिक — आयुषी मेहरा, जो शहर से यहाँ रिसर्च के लिए आई थी।
उसे यह जगह सरकारी नीलामी में बहुत सस्ती मिली थी।
“इतनी कम कीमत में इतनी ज़मीन!” उसने हँसते हुए कहा था।
लेकिन अब… रातें उसे सोने नहीं देती थीं।
हर रात किसी के चलने की आवाज़ आती —
धीरे, मिट्टी में रगड़ खाते क़दम।
पहले उसे लगा शायद चूहे हों,
फिर एक दिन उसने दीवार पर लिखा देखा —
“लिखना बंद मत करना।”
आयुषी की साँसें थम गईं।
वो दौड़कर कमरे से बाहर आई, पर घर में कोई नहीं था।
रात का समय ठीक तीन बजकर चौदह मिनट — वही वक्त,
जब अनामिका की आख़िरी साँस ली गई थी।
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🌘 2. किताब की वापसी
अगली सुबह, बाग़ के कोने में खुदाई हो रही थी।
मज़दूर ने अचानक चिल्लाकर कहा,
“मैडम! इधर कुछ मिलल बा!”
आयुषी ने देखा — मिट्टी में आधी दबी एक किताब।
धूसर रंग, किनारों पर राख जमी हुई।
कवर पर उभरे अक्षर थे —
“अधूरी किताब – भाग तीन : पुनर्जन्म की स्याही”
उसके स्पर्श करते ही ठंडी हवा बह चली।
आयुषी ने किताब खोली —
पहला पन्ना खाली था,
पर धीरे-धीरे उस पर लाल स्याही उभरने लगी —
“लेखक वही बनेगा, जिसने पिछले जन्म की राख छुई थी।”
वो पीछे हटी, पर किताब अपने आप खुलती चली गई।
हर पन्ने से जैसे कोई रूह झाँक रही थी।
“कौन है वहाँ?”
“तू ही तो…”
वो आवाज़ उसी के भीतर से आई।
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🌑 3. अनामिका की परछाई
रात को जब सब सो गए,
आयुषी के कमरे की लाइट अपने आप जल उठी।
टेबल पर किताब खुली थी।
धीरे-धीरे उस पर धुएँ से एक चेहरा बनने लगा —
अनामिका।
उसकी आँखों में वैसा ही धुँधलापन, पर चेहरा शांत।
“तू…” आयुषी फुसफुसाई।
अनामिका मुस्कुराई — “नया जन्म, नई पहचान।
कहानी फिर शुरू हुई है, और तुझे इसे खत्म करना होगा।”
“मैं क्यों?”
“क्योंकि तू वही है, जो कभी मेरी राख को छूकर इस ज़मीन को अपना घर बना बैठी।”
आयुषी के होंठ सूख गए।
“मतलब… मैं?”
“हाँ,” अनामिका बोली, “तेरे अंदर मेरी अधूरी रूह का हिस्सा है।”
आयुषी के कानों में फुसफुसाहट गूँजने लगी —
“अगर तूने आख़िरी पन्ना न लिखा, तो इस बार सिर्फ़ हवेली नहीं, पूरा गाँव राख हो जाएगा…”
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🌕 4. आर्यन की परछाईं
आधी रात —
बिजली चली गई, और घर में सिर्फ़ मोमबत्ती की रोशनी थी।
आयुषी ने देखा — दीवार पर एक साया हिल रहा था।
वह पीछे मुड़ी —
कोई नहीं।
फिर वही साया उसके सामने बना —
आर्यन।
वह पहले से ज़्यादा फीका, पर आँखों में गहराई थी।
“अनामिका…” उसने धीमे कहा,
“या कहूँ, आयुषी।”
वो डर गई — “तुम कौन?”
“तेरी कहानी का वो हिस्सा, जो अब भी नहीं मिटा।
मैंने तुझे ढूँढ लिया, क्योंकि तू वही लेखनी है जो मुझे मुक्त कर सकती है।”
“मुझे क्यों?”
“क्योंकि तू अब लेखक नहीं, श्राप की उत्तराधिकारी है।”
उसकी हथेली से राख झरने लगी।
कमरे की हवा ठंडी हो गई, मोमबत्ती की लौ नीली हो उठी।
दीवार पर अब चार शब्द उभरे —
“पन्ना लिखो या गाँव मिटाओ।”
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🌒 5. राख की रात
आयुषी ने किताब खोली।
उसके पन्ने अब अपने आप लिखने लगे —
हर शब्द किसी अदृश्य हाथ से बनता जा रहा था।
“यह कैसे हो रहा है?”
आर्यन की परछाई ने कहा, “क्योंकि तेरे भीतर वही खून है जिसने पहली बार यह किताब लिखी थी।”
वह काँपती हुई बोली, “और अगर मैं इसे पूरा कर दूँ?”
“तो मैं मुक्त हो जाऊँगा, और तू… शायद।”
वह कलम उठाती है,
पर तभी आवाज़ आई —
“मत लिखो!”
दरवाज़ा अपने आप खुल गया —
बाहर राख में बनी परछाई — तनिषा।
“तू फिर लौट आई?” आर्यन चिल्लाया।
तनिषा ने शांत स्वर में कहा —
“हर जन्म में कोई न कोई रूह गलती दोहराती है।
मैं अब और आत्मा नहीं देख सकती जो इस किताब की स्याही में डूब जाए।”
आयुषी ने काँपते हुए पूछा, “तो मुझे क्या करना होगा?”
तनिषा बोली, “किताब को खत्म नहीं, मिटाना होगा।
इस बार स्याही से नहीं, रूह से नहीं… बल्कि मिट्टी से।”
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🌘 6. आख़िरी निर्णय
रात का तीसरा पहर।
आयुषी किताब लेकर उसी ज़मीन पर पहुँची जहाँ हवेली थी।
चाँद पूरा था — पर उसकी रोशनी भी राखी लग रही थी।
आर्यन की आवाज़ हवा में गूँजी —
“मत कर ऐसा! किताब में मेरी मुक्ति है!”
तनिषा की परछाई फुसफुसाई — “यही मुक्ति है — जब कोई और तुझे याद न रखे।”
आयुषी ने ज़मीन में गड्ढा खोदा।
किताब उसके हाथ में काँप रही थी —
हर पन्ने से स्याही की बूंदें गिर रही थीं, जैसे खून।
“शायद यही अंत है…”
उसने किताब को मिट्टी में दबाया।
जैसे ही उसने मिट्टी डाली,
आसमान से राख की बारिश शुरू हुई।
कानों में फुसफुसाहट —
“हर कहानी एक दिन खुद को मिटाती है…”
आर्यन की परछाई धीरे-धीरे हवा में घुल गई,
तनिषा की मुस्कान धुंध में खो गई,
और ज़मीन स्थिर हो गई।
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🌑 7. सुबह की गवाही
अगली सुबह गाँव वाले उस जगह पहुँचे।
वहां मिट्टी पर कुछ भी नहीं था —
न राख, न किताब, न कोई निशान।
पर पेड़ की जड़ में उभरा एक वाक्य था —
“अधूरी किताब अब पूरी है।”
रमाकांत वहाँ खड़ा था, उसकी आँखों में आँसू थे।
“लगता है अब सच में कहानी थम गइल…”
लेकिन जैसे ही वह मुड़ा,
हवा का झोंका उसके चेहरे से टकराया —
उस झोंके में एक आवाज़ थी —
“हर कहानी मिटती नहीं, बस अगला लेखक ढूँढती है…”
रमाकांत ने पीछे देखा —
एक पुराना पन्ना हवा में उड़ता हुआ उसके पैरों के पास गिरा।
उस पर लिखा था —
“भाग चार – ख़ामोश स्याही”
रमाकांत मुस्कुराया —
“तो अब नया खेल शुरू होई…”
हवा में हल्की राख फिर उड़ चली,
और सूरज की किरणों में जैसे किसी ने फुसफुसाया —
“अधूरी किताब… फिर से जाग उठी।”
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🕯️ एपिसोड 21 समाप्त।
अगला भाग: 🌕 “भाग 22 – ख़ामोश स्याही”
(जहाँ किताब की आत्मा अब लेखक को नहीं, खुद को लिखने लगेगी…)