Samadhi from sexual intercourse - 6 in Hindi Spiritual Stories by Agyat Agyani books and stories PDF | संभोग से समाधि - 6

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संभोग से समाधि - 6

 
✧ सौंदर्य: देह से आत्मा तक ✧
 
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
 
सौंदर्य का अनुभव सबसे पहले आँख से होता है,
पर उसका स्रोत आँख में नहीं — आत्मा में है।
जो सुंदर दिखता है, वह क्षणिक है;
जो सुंदर लगता है, वह अनंत का संकेत है।
 
देह की हर रेखा, हर मुस्कान, हर रंग —
सिर्फ उस ऊर्जा की झिलमिल है, जो भीतर से बहती है।
सच्चा सौंदर्य तब प्रकट होता है
जब देह अपने अहं को छोड़कर
चेतना के लिए एक पारदर्शी पात्र बन जाती है।
 
स्त्री में सौंदर्य अधिक स्पष्ट दिखता है,
क्योंकि वह अस्तित्व के सबसे कोमल केंद्र से जुड़ी है।
उसका सौंदर्य देह से नहीं,
उसकी ग्रहणशीलता से जन्मता है।
पुरुष का सौंदर्य उसकी दृष्टि में है —
वह जितना देखना जानता है,
उतना ही वह सुंदर होता जाता है।
 
संसार ने गलती यहीं की —
देखने वाले और दिखने वाले को अलग कर दिया।
पुरुष ने सौंदर्य को वस्तु समझा,
स्त्री ने उसे सजावट मान लिया।
दोनों भूल गए कि सौंदर्य तो वह सेतु था
जहाँ देह मिलती नहीं, विलीन होती है।
 
सौंदर्य का मूल विज्ञान यही है —
पंचतत्व जब चैतन्य के स्पर्श में आते हैं,
तो रूप ले लेते हैं।
पर जब चैतन्य उनसे पीछे हटता है,
रूप बस मिट्टी रह जाता है।
इसलिए हर सुंदर चीज़ अस्थायी है,
पर हर अस्थायी में उसी अनंत का दर्शन छिपा है।
 
जब कोई व्यक्ति यह जान लेता है
कि “सुंदरता मेरी नहीं, मुझसे बहती हुई सत्ता है,”
वहीं से उसका सौंदर्य शाश्वत हो जाता है।
तब न उसे किसी की स्वीकृति चाहिए,
न किसी दर्पण की दृष्टि।
वह स्वयं प्रकाश बन जाता है —
जो देखता है और जो दिखता है,
दोनों एक हो जाते हैं।
 
 कविता — “सौंदर्य का मौन” ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
 
देह चमकी — जैसे जल में चाँद,
पर चाँद तो भीतर था,
आँख बस झिलमिला उठी।
 
सौंदर्य —
किसी के होंठों की मुस्कान नहीं,
वह तो मौन का प्रसाद है,
जो भीतर के शून्य से झरता है।
 
स्त्री ने सोचा — “मैं सुंदर हूँ”,
पुरुष ने कहा — “तू सुंदर है”,
और यहीं सौंदर्य मर गया।
 
जब दोनों भूल गए यह कहना,
और बस देखने लगे —
तब सौंदर्य पुनर्जन्मा,
आँख नहीं रही,
केवल दृष्टि रह गई।
 
रूप, रंग, देह, गंध — सब बह गए,
बस एक कंपन रह गया —
जो न स्त्री है, न पुरुष,
न देखने वाला, न दिखने वाला।
 
वह कंपन ही आत्मा है,
जो पंचतत्व में मुस्कराती है,
जो सौंदर्य को नहीं देखती —
स्वयं सुंदर हो जाती है।
 
 
✧ सौंदर्य सूत्र — देह से आत्मा तक ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
 
 
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१. सौंदर्य देह का नहीं — देह के पार से झरने वाला प्रकाश है।
२. आँख देखती है रूप, पर हृदय अनुभव करता है चेतना।
३. जहाँ देखने वाला और दिखने वाला एक हो जाएँ — वही सौंदर्य है।
४. पंचतत्व जब चैतन्य को छूते हैं, रूप जन्म लेता है।
५. और जब चैतन्य पीछे हटता है, वही रूप मिट्टी बन जाता है।
 
६. स्त्री सौंदर्य है क्योंकि वह ग्रहणशील है;
पुरुष सौंदर्य है क्योंकि वह देखना जानता है।
७. जब ग्रहणशीलता और दृष्टि मिल जाएँ —
वहीं से आत्मा की झिलमिल प्रकट होती है।
 
८. सौंदर्य को पकड़ने की इच्छा ही कुरूपता है।
९. जो सुंदरता को छोड़ दे — वही सुंदर होता है।
१०. सुंदरता किसी का स्वामित्व नहीं — यह अस्तित्व का उत्सव है।
 
११. रूप अस्थायी है, पर उसका कंपन शाश्वत है।
१२. उस कंपन को जिसने सुन लिया,
उसने ईश्वर का पहला स्वर सुन लिया।
 
१३. सौंदर्य का बोध तभी जन्मता है
जब अहंकार अपनी देह भूल जाए।
१४. वहाँ कोई “मैं” नहीं बचता — केवल “यह” रह जाता है।
 
१५. सुंदरता दिखाई नहीं देती,
वह होती है — जब तुम होना छोड़ देते हो।
 
१६. जो सुंदर दिखता है, वह समय का है;
जो सुंदर लगता है, वह अनंत का है।
१७. बाहरी रूप भीतर के तेज का परावर्तन है।
१८. भीतर का तेज अगर बुझ जाए,
तो रूप बस रंगीन छाया बन जाता है।
 
१९. सौंदर्य का बोध ही आत्मा का प्रथम दर्शन है।
२०. जब कोई सुंदरता में खो जाता है,
वह ईश्वर को अनजाने में छू लेता है।
 
✧ अध्याय २ — दृष्टि का धर्म ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
 
 
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१. दृष्टि साधारण नहीं होती — वह तुम्हारे अस्तित्व की दिशा है।
जहाँ तुम देखते हो, वहीं तुम बहते हो।
 
२. देह आँख से देखती है,
पर आत्मा दृष्टि से।
आँख को वस्तु चाहिए,
दृष्टि को शून्य।
 
३. देखने की दो अवस्थाएँ हैं —
एक, देखने के लिए;
दूसरी, देखने में खो जाने के लिए।
पहली से ज्ञान आता है,
दूसरी से बोध।
 
४. दृष्टि तब धर्म बनती है
जब उसमें चयन नहीं रहता।
जहाँ तुम बिना निर्णय के देखते हो,
वहाँ सत्य प्रकट होता है।
 
५. पुरुष की दृष्टि जब सजग हो,
और स्त्री की ग्रहणशीलता जब मौन हो,
तब संसार नहीं, सृष्टि घटती है।
 
६. सुंदरता को देखने वाला
यदि उसे पकड़ना चाहे —
तो दृष्टि मर जाती है।
जो बस देखे,
वह दृष्टा हो जाता है।
 
७. दृष्टि वही है जो देह से पार देखती है,
रूप में रूप से अधिक देखती है।
वह देखना नहीं,
अस्तित्व से एकाकार होना है।
 
८. दृष्टि जब शुद्ध होती है,
वह दर्पण बन जाती है —
वह जो कुछ देखे,
वह उसी का रूप ले लेती है।
 
९. इसलिए देखने का अभ्यास,
ध्यान का आरंभ है।
ध्यान का अर्थ है —
देखना, पर छूना नहीं।
 
१०. जब दृष्टि भीतर लौट आती है,
वह तीसरी आँख बन जाती है।
वहीं से सत्य का प्रथम प्रकाश फूटता है।
 
 
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११. दृष्टि का धर्म यह नहीं कि वह सुंदरता चुने,
बल्कि वह देखे — सुंदरता कैसे घटती है।
१२. जो देखने में खो गया,
वह देखने वाले को पा गया।
 
१३. जिस दिन तुम किसी चीज़ को देखो
और उसके पार तक पहुँच जाओ,
उस दिन तुम धर्म देखोगे —
देवता नहीं, दर्शन।
 
१४. दृष्टि का पवित्र होना
आँख के संयम से नहीं,
हृदय के मौन से होता है।
 
१५. जहाँ दृष्टि निर्मल हो जाती है,
वहीं से बोध का जन्म होता है।
और बोध —
दृष्टि का परिपक्व मौन है।
 
 
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समापन ✧
जब दृष्टि वस्तु से हटती है,
वह विषय बन जाती है।
जब विषय से हटती है,
वह आत्मा बन जाती है।
और जब आत्मा भी मिट जाती है —
वह वही सौंदर्य रह जाता है
जो कभी देखा ही नहीं गया था,
फिर भी सदा था।
 
 
 
 
 
 
 
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