अध्याय 16–
: भीतर की साधना
दसवीं की परीक्षा में गांव के सबसे बड़े इकलौते सरकारी स्कूल वह में तीसरे स्थान पर आई थी – तनु।नाम भी हुआ, नंबर भी। मोहल्ले में उसके नाम का चर्चा होने लगा था —“देखो, सूर्यवंशी की बेटी ने कमाल कर दिया!”माँ बाप का नाम रोशन हो गया आगे भी पढ़ाई जारी रखो बेटागांवको भी तुम जेसे बच्चे चाहिए गांव का भी मान रखा है तुमने
मगर अजीब बात थी कि उस शोर-गुल के बीच भी, तनु के भीतर कहीं खामोशी ही गूँज रही थी।ना जाने क्यों, भीतर कोई डोर टूटी-सी लग रही थी।
---
घर – पहली पाठशाला
बचपन की सबसे पहली पाठशाला हमारा घर होता है।और वहाँ के रिश्ते हमारी आत्मा पर अमिट छाप छोड़ते हैं।
जब कोई बच्चा यह देखता है कि उसका पिता माँ से अपमानजनक, कठोर या अवज्ञा से भरा व्यवहार करता है — तो वह केवल माँ को ही दुख होता नहीं देखता, वह खुद भी कहीं भीतर टूटता है।
तनु भी यही देखती रही थी।पिता का गुस्सा, माँ की चुप्पी, और उस चुप्पी के पीछे छिपी अनगिनत मजबूरियाँ…उसकी छोटी-सी आत्मा रोज़ाना घायल होती थी।
ऐसे माहौल में बच्चे अक्सर दोहरी उलझन में फँस जाते हैं:
एक तरफ पिता से डर या तनाव
दूसरी तरफ माँ की चुप्पी , संघर्ष और असहायता।
बच्चा यह समझ ही नहीं पाता कि किसे सही माने, किससे स्नेह रखे और किससे नाराज़ हो।तनु का भी यही हाल था।
धीरे-धीरे…👉 कोई बच्चा खुद बहुत दब्बू हो जाता है।👉 कोई भीतर ही भीतर एक चुपचाप गुस्सा पालने लगता है।👉 और कोई यह मान बैठता है कि प्यार में अपमान सहना ही सामान्य है।
माँ-पिता का रिश्ता बच्चों के दिल में “रिश्तों का मानचित्र” खींचता है।अगर वह मानचित्र ही टूटा-फूटा, कंटीला हो — तो बच्चे को जीवन भर अपनापन तलाशना पड़ता है।
तनु के मन में पहला सवाल उभरा था:"क्या मेरी माँ वाकई कमज़ोर थीं… या हालात ने उन्हें चुप रहना सिखा दिया था?"
---
नया स्कूल, नया संघर्षनया स्कूल घर से काफी दूर ही था पैदल ही जाना था पगडण्डी से
पढ़ाई में अच्छी होने के बावजूद, जब उसने नया स्कूल जॉइन किया तो वहाँ एक अदृश्य प्रतिस्पर्धा उसका इंतज़ार कर रही थी।पुराने छात्र-छात्राएँ एक-दूसरे को पहले से जानते थे।और अब वह — एक नई लड़की — अचानक उनके बीच आ गई थी।
क्लास में तेज़ होने के बावजूद, वह हाशिए पर थी।कभी तारीफ़, तो कभी ताने…कभी जलन, तो कभी उपेक्षा।सब कुछ झेलते हुए भी, वह टिके रहने की कला सीख रही थी।
बाहर से तेज़ दिखती रही, पर भीतर धीरे-धीरे कमज़ोर होती जा रही थी।एक अकुलाहट-सी थी, जिसे वह शब्द नहीं दे पा रही थी।
घर में कोई अपना नहीं था — और अब स्कूल में भी कोई ‘अपना’ नहीं था।वह अकेली पड़ने लगी थी।
मन का एक कोना निरंतर भीगता जा रहा था —एक ऐसा कोना, जिसे कोई देख नहीं पाता था।और वहीं… उसी भींगे कोने में उसकी अल्हड़ रूह जाग रही थी।
---
भीतर की शक्ति
फिर जैसे भीतर कहीं कोई नई शक्ति जाग उठी।तनु ने ठान लिया —“मैं हार नहीं मानूँगी।”
अब वह पढ़ाई में और भी होशियार हो गई।स्कूल में अव्वल, भाषण और नृत्य प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाली,कई सर्टिफिकेट्स, सम्मान…और सबसे ज़रूरी — उसने अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी।
धीरे-धीरे चेहरे पर आत्मविश्वास झलकने लगा।सखियाँ उसके चारों ओर घूमने लगीं।
पर मन अब भी भीतरी द्वार पर बैठा अपनी असल उड़ान को पहचानने की प्रतीक्षा कर रहा था।
👧🏻 वही लड़की —जिसकी आँखों का रंग बिल्ली जैसा, चेहरा हल्का गेंहुआ।जिसकी चाल में आत्मविश्वास की धीमी लहरें बहती थीं।जिसे देख सहेलियाँ कहतीं — “घमंडी है, खुद में रहती है…”वही लड़की भीड़ में सबसे ज़्यादा खुलकर हँसती थी।
लेकिन भीतर कहीं…एक अनकहा अकेलापन थहर जाता था।
---
भीड़ में अकेलापन
👗 सहेलियाँ थीं, खिलखिलाहटें भी थीं।लेकिन आत्मा के स्तर पर कोई “अपना” नहीं था।
नज़दीकी की चाह, गहराई की तड़प —हर हँसी में कहीं न कहीं अजनबीपन की गूंज।
घर की जिम्मेदारियाँ, पिता का डर, माँ की चुप्पी —सबके बीच तनु ने तय किया:“मैं पढ़ाई में अव्वल आऊँगी। मैं रुकूँगी नहीं।”
⚖️ व्यावहारिकता में थोड़ी कमी थी,पर जो भी समझ सामने आती —वहीं से वह नया रास्ता गढ़ लेती।
अकेलेपन को साथी बनाकर,वह धीरे-धीरे सयानी हो रही थी।
“कभी-कभी भीड़ में सबसे मुस्कुराता चेहरा सबसे टूटा हुआ होता है।जो भीतर टूटता है, वही बाहर संवरता है — यही उसकी सबसे बड़ी साधना बन जाती है।”
---
बारहवीं की परीक्षा
समय बीतता गया।फिर आई 12वीं की परीक्षा।
तनु ने जी-जान से मेहनत की। कई विषयों में अच्छे अंक आए।
शायद वही अंक उसके लिए जीवन का सहारा बने।क्योंकि घर में न कोई मार्गदर्शन था, न प्रोत्साहन।बस पढ़ाई ही एक ऐसी डोर थी, जो उसे आगे खींच सकती थी।
---
कॉलेज का अनुभव
कॉलेज में दाख़िला तो मिल गया,पर न तो विषय उसके मन के थे, न ही वह जगह।
अजनबी शहर…अजनबी लड़कियाँ…और सबसे अजनबी — खुद वह।
जो विषय चुने — उन पर कुछ ने नाज़ किया, कुछ ने हँसी उड़ाई।“आज के ज़माने में भला ऐसे विषय कौन लेता है?” — किसी ने कहा।
शायद किसी ने यह नहीं जाना कि तनु ने ये विषय अपने शौक से नहीं,बल्कि अंकों के आधार पर चुने थे।
उसके जीवन की दिशा अब अंक तय कर रहे थे… आत्मा नहीं।
---
भीतर की अल्हड़ रूह
तनु के चेहरे पर अब एक परिपक्वता आ चुकी थी।वह मुस्कुराती थी, हँसती थी,पर उसके भीतर की रूह अब भी जाग रही थी —एक ऐसी रूह, जो जीवन से केवल पढ़ाई, नौकरी, शादी नहीं…बल्कि एक पहचान चाहती थी। आत्मसम्मान की अभिलाषा
वह पहचान कैसी होगी, यह वह खुद भी नहीं जानती थी।पर इतना निश्चित था —भीतर की साधना उसे कहीं बड़ी मंज़िल तक लेकर जाएगी।
---
📖 यह अध्याय यहीं समाप्त नहीं होता…क्योंकि तनु की कहानी अब कॉलेज से आगे,जीवन के नए संघर्षों और नई खोजों की ओर बढ़ रही है।
---