अध्याय 12 – छोटी-छोटी खुशियाँ और सपनों की परछाइयाँ
जीवन की सबसे मीठी यादें अक्सर वही होती हैं जिन्हें हम बचपन में बहुत साधारण मानते हैं। तनु के लिए भी उसका बचपन रोज़मर्रा की उन्हीं छोटी-छोटी बातों से भरा हुआ था, जो आज भी दिल को मुस्कुराने पर मजबूर करती हैं।
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गांव की गली का छोले-कुलचे वाला
गली में अक्सर एक भैया आता था। उसके कंधे पर पीतल का बड़ा-सा कनस्तर और हाथ में लोहे की ट्रॉली होती थी। कनस्तर खोलते ही उसमें से भाप उठती और छोले की खुशबू पूरे मोहल्ले में फैल जाती।
भैया ज़ोर से आवाज़ लगाता—“गरमा-गरम छोले-कुलचे…!”
जैसे ही यह आवाज़ तनु के कानों तक पहुँचती, वह सब काम छोड़कर भागती।“मां… पैसे दे दो, छोले-कुलचे खाने हैं।”
कभी मां मुस्कुराकर पैसे दे देतीं, तो कभी कह देतीं,“नहीं, आज नहीं… घर का खाना खा।”
लेकिन तनु इतनी आसानी से हार मानने वाली कहाँ थी! वह जिद करती, रूठती और कभी-कभी तो मां की ममता पिघल जाती। तब वह गरम छोले, ऊपर से हरी चटनी और प्याज डालकर कुलचे के साथ खाती और दिल से खुश हो जाती।
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मौसंबी वाले की आवाज़
एक और ठेलेवाला गली में आता था—मौसंबी वाला।वह बड़े-बड़े चमकते मौसंबी काटता और ऊपर से नमक-चाट मसाला छिड़ककर देता।
तनु हमेशा मां से कहती—“मां, ये मौसंबी ले दो, चाट मसाला डालकर।”
मां कभी मान जातीं, कभी मना कर देतीं।लेकिन तनु को मौसंबी का वह खट्टा-मीठा स्वाद बहुत भाता।उसके लिए यह सिर्फ फल नहीं, बल्कि छोटी-सी जन्नत थी।
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कुत्तों के बच्चों से लगाव
तनु का दिल सिर्फ खाने-पीने में नहीं, बल्कि जानवरों में भी बहुत लगता था।एक बार उसने गली से एक छोटा-सा पिल्ला उठा लिया और घर ले आई।
वह हैंडपंप से पानी भरती, उसे गुनगुना करती और उसमें डिटॉल डालकर पिल्ले को नहलाती।बेचारा छोटा पिल्ला ठंड से सिकुड़ जाता, और तनु खिलखिलाकर कहती—“अरे, डरपोक कहीं का!”
पिल्ले की मां दरवाजे पर खड़ी रहती और तब तक इंतज़ार करती जब तक तनु उसका बच्चा वापस न कर दे।ऐसा कई बार हुआ—तनु पिल्ले उठा लाती, मां डांटतीं, और फिर वापस छोड़ना पड़ता।
फिर भी जानवरों के प्रति उसका यह लगाव कभी कम न हुआ।
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पेड़-पौधों का शौक
जानवरों की तरह तनु को पौधों से भी बहुत लगाव था।बाबूजी ने छत पर तोरी की बेल चढ़ा रखी थी।जब लंबी-लंबी तोरियाँ हवा में लटकतीं, तो देखने में बेहद सुंदर लगतीं।
इसी से प्रेरणा पाकर तनु भी यहाँ-वहाँ से पौधे तोड़कर लाने लगी।कभी मनीप्लांट, कभी गुलाब, कभी गेंदा—वह सब घर की क्यारी में लगा देती।
मां-बाबूजी हंसते और कभी-कभी डांट भी देते—“ये क्या झाड़ लगा दिया है? निकालो इसे।”
लेकिन तनु की ज़िद चलती रही।धीरे-धीरे उसकी क्यारी छोटी-सी बगिया में बदल गई।यहीं से उसके भीतर बागवानी का शौक गहराता चला गया।
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हैंडपंप के दिन
उस समय घरों में नल और गीजर नहीं थे।नहाने के लिए हैंडपंप से पानी भरना पड़ता।सर्दियों में वही पानी गरम करके बाल्टी में भरते और फिर बाथरूम ले जाते।
तनु को यह सब झंझट नहीं लगता था।बल्कि वह अक्सर खुद ही हैंडपंप चलाकर पानी भर लाती।उसके लिए यह भी एक खेल जैसा ही था।
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टीवी का आकर्षण और मां की पाबंदी
टीवी उस जमाने में बहुत बड़ी चीज़ थी।गली के एकाध घर में ही टीवी हुआ करता।तनु का मन टीवी देखने के लिए हमेशा मचलता।
एक बार पड़ोस में “ताजमहल” फिल्म लगी।तनु ने मां से कहा—“मां, ये पढ़ाई वाली पिक्चर है। कोर्स में ताजमहल है, देखना जरूरी है।”
मां मान गईं और बोलीं—“ठीक है, मैं भी चलती हूँ।”
लेकिन जैसे ही फिल्म शुरू हुई, परदे पर प्रेम की कहानी चल पड़ी।मां गुस्से से बोलीं—“तूने झूठ बोला! ये पढ़ाई की पिक्चर थोड़ी है, ये तो इश्क-मोहब्बत दिखा रहे हैं।”
मां तनु से बहुत नाराज़ हुईं और आगे से मना कर दिया कि वह पड़ोस में पिक्चर देखने न जाए।
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झूठ बोलकर फिल्में देखना
लेकिन तनु कहाँ मानने वाली थी!उसका फिल्मों और चित्रहार से लगाव इतना गहरा था कि उसने मां को कई बार बहलाकर झूठ कहा—“भगवान की पिक्चर है।”
और फिर पड़ोसियों के घर जाकर फिल्म देख आती।उसे गानों, दृश्यों और कहानियों में इतना आनंद आता कि वह किसी भी कीमत पर उन्हें छोड़ नहीं पाती थी।
चित्रहार का समय तो उसके लिए त्यौहार जैसा होता।सबसे पहले जाकर खिड़की के पास बैठना और फिर गानों की धुन में खो जाना उसकी आदत बन चुकी थी।
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मन का एंटरटेनमेंट
तनु के लिए टीवी और फिल्में सिर्फ समय गुजारने का साधन नहीं थीं।वे उसके जीवन का मनोरंजन, प्रेरणा और सपनों की उड़ान थीं।
हर गाना, हर दृश्य वह दिल में सहेज लेती।कभी-कभी उन दृश्यों को खुद पर जीती,तो कभी कल्पना करती कि वह भी परदे पर है और सब तालियाँ बजा रहे हैं।
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छोटी-छोटी खुशियाँ
तनु का बचपन उन साधारण खुशियों से भरा था,जो आज के समय में शायद बहुत छोटी लगें—
गली में छोले-कुलचे खाना,
मौसंबी पर चाट मसाला लगवाना,
पिल्लों को नहलाना,
पौधे लगाना,
हैंडपंप से पानी भरना,
और पड़ोसियों के घर चित्रहार देखना।
लेकिन तनु के लिए यही छोटी-छोटी बातें जीवन के बड़े खज़ाने थीं।
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सपनों की नींव
धीरे-धीरे इन अनुभवों से तनु का व्यक्तित्व बन रहा था।उसमें जिज्ञासा थी, जिद थी, और सपनों को पूरा करने की चाह भी।
मां की पाबंदियों के बावजूद उसने अपने लिए रास्ते ढूंढे।पौधों, पालतू जानवरों और फिल्मों के जरिए उसने अपनी कल्पना को पंख दिए।
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तनु का मन
अंदर से वह बहुत संवेदनशील थी।हर छोटी चीज़ से जुड़ जाती और हर अनुभव को दिल में संजो लेती।
शायद यही कारण था कि उसे मोहल्ले की बाकी लड़कियों से अलग माना जाता।वह सिर्फ खेल-कूद में नहीं, बल्कि सोचने और महसूस करने में भी सबसे आगे थी।
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जीवन का सबक
इस तरह बचपन के वे साल तनु को बहुत कुछ सिखा गए।उसे समझ आया कि—
खुशियाँ खरीदी नहीं जातीं, छोटी-छोटी चीज़ों में मिलती हैं।
सपनों को रोकने से वे और भी गहरे होते हैं।
और अगर दिल में चाह हो, तो साधारण जीवन भी किसी फिल्म की तरह रंगीन लग सकता है।