Adhure Sapno ki Chadar - 5 in Hindi Women Focused by Umabhatia UmaRoshnika books and stories PDF | अधूरे सपनों की चादर - 5

Featured Books
Categories
Share

अधूरे सपनों की चादर - 5

अध्याय 5– घर के आँगन की किलकारियाँ

घर के बाहर एक लंबी कतार में कीकर के पेड़ खड़े थे। उनकी टेढ़ी-मेढ़ी डालियाँ, काँटों से भरी टहनियाँ और हल्की-सी पीली-हरी छाँव बचपन के खेलों की साथी थीं। भाइयों का सबसे बड़ा शौक उन्हीं पर चढ़कर जंगली फल तोड़ना था। सुबह से लेकर शाम तक उनका यही काम—कभी डाल पर लटक जाना, कभी काँटों से बचते हुए टोकरी भर लेना। माँ और बाबूजी का जी घबराता था कि कहीं कोई गिर न पड़े। घर के ठीक सामने ही एक नाला बहता था। पेड़ों पर झूलते बच्चों को देखकर सबको यही डर रहता कि कहीं खेल-खेल में वे नाले में न गिर जाएँ।मँझला भाई तो जैसे नटखट का दूसरा नाम था। अक्सर किसी न किसी की पिटाई कर देता। उसकी शरारतें इतनी बढ़ जातीं कि माँ को दिन में कई बार हल्दी वाला दूध बनाकर देना पड़ता। चोट लगी तो मरहम भी, और डाँट खाई तो भी दूध की प्याली। माँ के आँचल में ही सब सुलह-सफाई हो जाती थी।माँ कभी स्कूल नहीं गई थीं, लेकिन पढ़ाई का शौक उनके भीतर गहरे बैठा था। उन्हें लगता, काश! वे भी किताब खोलकर पढ़ पातीं, अपना नाम लिख पातीं। शायद इसी अधूरेपन को पूरा करने के लिए वे अपने बच्चों को पढ़ाई में सख़्ती करतीं। सुबह-सुबह उठकर चाय-नाश्ता बना देतीं और दो महीने की गर्मी की छुट्टियों में चारपाई बिछाकर सबको बरामदे में बैठा देतीं—“पढ़ो बेटा, पढ़ो।” उनकी आवाज़ में आदेश भी होता और छिपा हुआ प्यार भी।एक दिन माँ ने तनु को बुलाकर कहा—“बेटा, मुझे भी अक्षर सिखा दो। मैं भी अंगूठा नहीं, अपना नाम लिखकर हस्ताक्षर करना चाहती हूँ।”सारे भाई-बहन उत्साह में आ गए। हम सबने मिलकर माँ को ‘क, ख, ग’ से शुरू कराया। धीरे-धीरे उन्होंने लिखना सीख लिया। जब पहली बार उन्होंने अपना नाम कागज़ पर लिखा, तो बाबूजी की आँखें चमक उठीं। वे आश्चर्य में बोले—“अरे, ये तो अब अपना नाम लिखने लगी है।” उस दिन घर का माहौल किसी त्यौहार-सा हो गया।गली में जब भी नाई की आवाज़ लगती—“बाल कटवा लो… बाल कटवा लो”—तो सब भाई भागकर कोने-कोने में छुप जाते। किसी को बाल कटवाना पसंद नहीं था। सब लंबे-लंबे बाल बढ़ा लेते। पर छुट्टी के दिन बाबूजी सबको पकड़कर नाई के सामने लाइन से बैठा देते। फिर क्या था—एक-एक कर सबका सिर खाली। बच्चों की ग़ुस्साई आँखें और गली के लोगों की हँसी मिलकर अनोखा दृश्य बना देते। बाल कटने के बाद बाथरूम में भी झगड़ा छिड़ जाता—“पहले मैं नहाऊँगा, पहले मैं नहाऊँगा।”इसी बीच बड़ी दीदी की शादी हो चुकी थी। पर उनकी पढ़ाई अधूरी रह गई थी। वे गर्भवती भी थीं और साथ ही ग्रेजुएशन की परीक्षाएँ भी सामने थीं। बाबूजी ने कहा—“लड़की की पढ़ाई अधूरी नहीं रहनी चाहिए, उसे पेपर देने दो।” दीदी की लगन देखने लायक थी। गर्भावस्था की तकलीफ़ें सहते हुए भी वे परीक्षा केंद्र तक जातीं। उनका जज़्बा देखकर हम सब हैरान रहते। जीजा जी थोड़े मसखरे स्वभाव के थे। मज़ाक करना, सबको छेड़ना उनकी आदत थी। वहीं दीदी बिल्कुल शांत और गंभीर स्वभाव की। दोनों की जोड़ी देखने में अलग-सी लगती थी, पर प्यार भरी।कुछ महीनों बाद घर में एक नई किलकारी गूँजी। दीदी ने पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम रखा गया—विकेश। घर में मानो नया उत्सव उतर आया। बच्चे की हँसी और रोना आँगन की हर दीवार को महका देता। माँ उसे गोद में उठाकर इधर-उधर घूमती रहतीं, छोटे-छोटे कपड़े खरीदकर सजातीं। दीदी जब विकेश को लेकर मायके आईं, तो घर की रौनक दोगुनी हो गई। पहली बार किसी छोटे शिशु की किलकारी घर में गूँजी थी। हम सब भाई-बहन उसके इर्द-गिर्द मंडराते रहते।कुछ दिनों बाद उसकी विदाई की तैयारी हुई। माँ ने बड़े मन से कपड़े बनवाए, खिलौने खरीदे और ढेर सारी सौग़ातें दीं। दीदी और जीजा जी को आशीर्वाद देकर विदा किया गया। घर का माहौल भावुक भी था और उल्लास से भरा भी। उस समय ऐसा लगता था मानो जीवन की सारी थकान और चिंताएँ उसी नन्हीं मुस्कान में घुलकर गायब हो गई हों।---रूह-स्पर्श टिप्पणी

✨यह अध्याय हमें यह सिखाता है कि घर की असली पूँजी न बड़े मकान होते हैं, न ही कीमती गहने, बल्कि वे यादें होती हैं जिनमें शरारतें, संघर्ष और नई किलकारियाँ मिलकर जीवन को रंगीन बनाती हैं। माँ का अधूरा सपना बच्चों के ज़रिए पूरा हुआ, दीदी का साहस सबके लिए प्रेरणा बना और घर की पहली किलकारी ने आँगन को स्वर्ग बना दिया।---