गाँव की चौपाल पर उस सुबह एक अजीब-सी खामोशी थी। पिछली बैठक की हलचल और बहस अब भी हवा में तैर रही थी। लोग जानते थे कि आज निर्णय होना है। कोई हँसी-मज़ाक नहीं, कोई उत्साह नहीं—सिर्फ़ गंभीर चेहरे और गहरी निगाहें।
बच्चे भी आज दूर खड़े थे, खेलते नहीं, बस देख रहे थे कि बड़ों के चेहरों पर कौन-सा रंग चढ़ता है। महिलाएँ घरों से झाँक-झाँक कर चौपाल की ओर देख रही थीं। हर घर की साँसें आज पंचायत की चौपाल से बँधी थीं।
मुखिया आज और भी सधे हुए अंदाज़ में आया। उसका चेहरा कठोर था, जैसे उसने पहले ही ठान लिया हो कि ढील नहीं देनी। वह चौपाल के बीच अपने आसन पर बैठा, चारों तरफ बुज़ुर्ग और पंचायत के सदस्य जमा थे।
“भाइयों,” उसने धीरे-धीरे कहना शुरू किया, “पिछली बैठक में हम सबने अपनी-अपनी बात रखी। बहस भी हुई, मतभेद भी सामने आए। लेकिन आज हम यहाँ किसी नतीजे पर पहुँचने के लिए इकट्ठा हुए हैं। यह फैसला आसान नहीं है, पर हमें इसे लेना ही होगा। गाँव की गरिमा और भविष्य इसी पर टिका है।”
उसके स्वर में कठोरता थी। भीड़ में कोई फुसफुसाहट नहीं, सब स्तब्ध होकर सुन रहे थे।
एक बुज़ुर्ग ने फिर बबलू का नाम आगे बढ़ाते हुए कहा—
“मुखिया जी, जैसा हम सब जानते हैं, बबलू का दिल साफ़ है। उसने गाँव के लिए जितना किया है, उतना और कौन करता है? उसकी सादगी, उसकी ईमानदारी—यही उसे झंडा उठाने योग्य बनाती है।”
कुछ लोग सहमति में सिर हिलाने लगे।
तभी धर्म धीरे-से उठा। उसका चेहरा शांत था, मगर आँखों में गहराई थी।
“मुखिया जी, मैं फिर वही कहूँगा जो पहले कहा था। बबलू योग्य है, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन आर्यन भी किसी मायने में उससे कम नहीं। यह गाँव उसे बाहर का मानता है, पर उसने कभी खुद को बाहर का नहीं समझा। वह हर सुख-दुख में हमारे साथ खड़ा रहा। अगर हम उसे केवल जन्म की वजह से नकार देंगे, तो यह अन्याय होगा।”
सभा में फिर हलचल हुई।
किसी ने कहा—“धर्म की बात में दम है।”
तो कोई दूसरा चिल्लाया—“परंपरा तोड़कर हमें क्या मिलेगा? बीस साल से यही होता आया है।”
तीसरा बोला—“परंपरा अगर अन्याय बने तो क्या उसे निभाना चाहिए?”
आवाज़ें फिर ऊँची होने लगीं।
मुखिया ने लाठी ज़मीन पर ठोंक दी।
“बस!” उसकी आवाज़ में ऐसी गूँज थी कि भीड़ तुरंत शांत हो गई।
“मैंने सबकी बातें सुनीं। मैं जानता हूँ कि धर्म सही कह रहा है—आर्यन ने गाँव के लिए बहुत किया है। लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि परंपरा सिर्फ़ रस्म नहीं है। यह हमारी पहचान है। अगर हम इसे तोड़ देंगे तो आने वाली पीढ़ियाँ किस पर भरोसा करेंगी? यह झंडा केवल मेहनत या गुण का प्रतीक नहीं, यह वंश और मिट्टी का प्रतीक है। और इसी मिट्टी का बेटा बबलू है। इसलिए मेरा निर्णय है कि इस बार झंडा बबलू ही उठाएगा।”
उसके शब्दों के बाद चौपाल में गहरी खामोशी छा गई।
धर्म सिर झुका कर खड़ा रह गया। उसकी आँखों में कहीं गुस्सा नहीं था, पर एक गहरी निराशा ज़रूर थी। वह जानता था कि मुखिया की बात गाँव में अंतिम होती है।
उसका दिल कह रहा था कि न्याय आर्यन के साथ होना चाहिए था। लेकिन गाँव का फैसला कुछ और था ।
वह सोच रहा था—
“शायद मैं ही ग़लत हूँ। शायद इस मिट्टी का बेटा कहलाना ही सबसे बड़ा तर्क है। पर फिर आर्यन का क्या? उसका समर्पण, उसका त्याग—क्या यह सब बेकार है?”
उसके होंठ नहीं हिले, पर भीतर का द्वंद्व उसकी आँखों में साफ़ झलक रहा था।
मुखिया के निर्णय के बाद भीड़ धीरे-धीरे उठने लगी। कुछ लोग बबलू के पास जाकर उसकी पीठ थपथपा रहे थे।
“बधाई हो बेटा, तूने गाँव का नाम रोशन कर दिया।”
“हमारा प्रतिनिधि बनकर हमें गर्व दिलाना।”
बबलू के चेहरे पर मुस्कान थी, लेकिन भीतर कहीं अपराधबोध भी। उसे लग रहा था जैसे वह आर्यन से कुछ छीन रहा है।
दूसरी तरफ़ कुछ लोग धर्म के पास आए और धीरे-से बोले—
“तुम्हारी बात ग़लत नहीं थी, पर परंपरा भारी पड़ गई।”
“आर्यन सच में योग्य है, पर गाँव अभी तैयार नहीं है।”
धर्म बस चुपचाप सुनता रहा।
धीरे-धीरे भीड़ छँट गई। चौपाल खाली होने लगा।
धूल के कण हवा में उड़ रहे थे, और उस सुनसान चौपाल पर धर्म अकेला बैठा रह गया—गहरी सोचों में डूबा हुआ।
शाम ढल रही थी। पश्चिम की ओर डूबते सूरज की आख़िरी लालिमा खेतों पर फैल गई थी। हवा में हल्की ठंडक थी, लेकिन गाँव का माहौल अब भी दिन की पंचायत से भारी था। चौपाल की गहमागहमी भले खत्म हो चुकी थी, लेकिन उसके असर से गाँव के घर-आँगन अब भी दबे-सहमے से थे।
गाँव की पगडंडी से गुज़रते हुए बबलू चुप था। उसका सिर झुका हुआ था। लोग उसे देखकर मुस्कुरा रहे थे, बधाइयाँ दे रहे थे, लेकिन उनके शब्द उसके दिल में गूंज नहीं रहे थे। उसे लग रहा था कि उसने कुछ पा लिया, पर शायद किसी और से छीन कर।
उधर, आर्यन खेत के किनारे अकेला बैठा था। उसकी निगाहें मिट्टी की बनी मेड़ पर दौड़ रही थीं। वह अपने हाथों से मिट्टी के ढेले तोड़ता और फिर हवा में फेंक देता। उसकी आँखों में कोई शिकायत नहीं थी, न ही हार का ग़म। बस एक गहरी सोच थी—शायद बबलू को सामने देखकर वह सब कुछ कहना चाहता था जो भीतर दबा था। बबलू धीरे-धीरे उसकी तरफ़ बढ़ा। कुछ पल दोनों चुप रहे। हवा में सिर्फ़ झींगुरों की आवाज़ और दूर बैलों की घंटियों की झंकार थी।
आख़िर बबलू ने भारी आवाज़ में कहा—“तुम नाराज़ तो नहीं हो, आर्यन?”
आर्यन ने सिर उठाया, उसकी आँखों में मासूमियत और सच्चाई झलक रही थी। उसने हल्की-सी मुस्कान दी।
“नाराज़? क्यों भैया? मुझे तो खुशी है। गाँव का झंडा आपके हाथों में जाएगा। मैं और क्या चाहूँगा?”
बबलू को लगा जैसे उसके सीने पर कोई बोझ और भारी हो गया हो। उसने धीरे-से कहा—
“पर मुझे लगता है कि यह हक़ तुम्हारा था। अगर गाँव ने मेरी जगह तुम्हारा नाम चुना होता, तो शायद मुझे ज़्यादा खुशी होती।”
आर्यन ने मिट्टी का ढेला हाथ से गिरा दिया और गंभीर स्वर में बोला—
“नहीं भैया। यह सौभाग्य आपको आपकी मेहनत और आपके गुणों की वजह से मिला है। अगर गाँव वाले मानते हैं कि आप सबसे योग्य हैं, तो इसमें कोई गलती नहीं। सच कहूँ, मैं तो हमेशा से यही चाहता हूँ कि मैं भी आपके जैसा बनूँ। आपका नाम सुनकर ही लोग सम्मान से भर जाते हैं, और मैं सोचता हूँ कि कभी वैसा ही बन सकूँ।”
उसकी आवाज़ में ईमानदारी थी। वह यह जताना चाहता था कि बबलू को यह सम्मान किसी परंपरा के कारण नहीं, बल्कि उसकी मेहनत और चरित्र की वजह से मिला है।
बबलू ने उसकी आँखों में देखा। वहाँ कोई ईर्ष्या नहीं थी, कोई शिकायत नहीं। बल्कि वहाँ तो एक अजीब-सी अपनापन और श्रद्धा थी।
बबलू के होंठ काँपे।
“आर्यन, सच कहूँ, जब मुखिया ने मेरा नाम पुकारा, तो मेरा दिल खुश नहीं हुआ। मुझे लगा जैसे मैं तुम्हारा हक़ छीन रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि गाँव तुम्हें पूरी तरह अपना मानता नहीं। लेकिन मैंने अपनी आँखों से देखा है—तुमने इस मिट्टी के लिए जितना किया है, उतना तो कोई जन्मजात बेटा भी न कर पाए। तुम इस गाँव की आत्मा हो, चाहे लोग मानें या न मानें।”उसके शब्दों में दर्द था।
आर्यन ने धीरे से उसका हाथ पकड़ा।
“भैया, मुझे कुछ भी छिना हुआ नहीं लगता। मैं जानता हूँ कि यह गाँव मुझे कभी-भी पूरी तरह अपना नहीं समझेगा। लेकिन मेरे लिए यह मायने नहीं रखता। मैं यहाँ रहता हूँ, यहीं साँस लेता हूँ, और यह मिट्टी ही मेरी पहचान है। अगर लोग आपको झंडा उठाने का सौभाग्य दे रहे हैं, तो इसका मतलब है कि मैं सही रास्ते पर हूँ। क्योंकि मैं तो हमेशा से आपके जैसा ही बनना चाहता हूँ।”
बबलू की आँखों में आँसू छलक आए। उसने आर्यन को अचानक गले से लगा लिया।
“तुम मेरे भाई से भी बढ़कर हो, आर्यन। काश गाँव समझ पाता कि असली बेटा कौन है।”
आर्यन भी भीग गया। उसने बबलू की पीठ थपथपाई और मुस्कुराते हुए कहा—
“गाँव चाहे जो सोचे, मेरे लिए आप ही मेरे अपने हैं। और यह झंडा—यह गाँव का सम्मान है, लेकिन मेरे लिए यह आप ही का सम्मान है। जब आप इसे उठाएँगे, तो मुझे लगेगा जैसे मैंने भी उठाया है।”
दोनों भाइयों की आँखें नम थीं। खेत की हवा अचानक और गहरी हो गई थी। दूर कहीं नगाड़े की हल्की आवाज़ सुनाई दे रही थी—जैसे आने वाले मेले का संकेत।
दोनों कुछ देर तक वैसे ही चुप बैठे रहे। आसमान में तारे एक-एक करके जगमगाने लगे थे। खेत की मेड़ों पर ठंडी हवा बह रही थी।
इस चुप्पी में जैसे धरती भी उनके संवाद को सुन रही थी। आर्यन का निस्वार्थ समर्थन और बबलू का अपराधबोध मिलकर उस पल को अविस्मरणीय बना रहे थे।
रात गहरा चुकी थी। गाँव पर एक अजीब-सी शांति छा गई थी। दिनभर की पंचायत, उसके निर्णय और लोगों की बातचीत अब धीरे-धीरे थम चुकी थी। लेकिन इस थमे हुए वातावरण के भीतर कई दिलों में हलचल थी।
धर्म चौपाल से लौटकर अकेला अपने आँगन में बैठा था। आँगन के बीच नीम का पुराना पेड़ था, जिसकी डालियों से छनकर चाँदनी उसकी गोद में गिर रही थी। उसके हाथों में एक सूखी लकड़ी थी, जिसे वह बार-बार तोड़ने की कोशिश करता, मगर टूटती नहीं। जैसे उसका मन भी उसी लकड़ी की तरह—मुड़ता तो है, पर टूटता नहीं।
उसकी आँखें शून्य में टिकी थीं। पंचायत का फैसला उसके कानों में अब भी गूंज रहा था।“झंडा बबलू ही ले जाएगा…”
वह जानता था कि बबलू योग्य है, पर आर्यन को अनदेखा करना उसके दिल को चुभ रहा था।
धीरे से उसने अपने आप से कहा—
“गाँव ने आज जो किया, शायद वही सही है। बबलू गाँव का बेटा है, उसका खून है। पर क्या खून ही सब कुछ है? जिस बच्चे को मैंने अपने हाथों से पाल-पोसकर बड़ा किया, जिसकी आँखों में मैंने वही जिज्ञासा और जज़्बा देखा जो कभी मुझमें था… क्या उसे सिर्फ़ इसलिए अनदेखा कर देना चाहिए कि वह गाँव का नहीं?”
उसके शब्दों को सिर्फ़ हवा सुन रही थी। नीम की शाखें हिल रही थीं, जैसे वे भी उसकी पीड़ा में शामिल हों।
वह धीरे-धीरे उठा और आँगन की दीवार पर टिका। उसकी निगाहें आसमान पर चली गईं। वहाँ हजारों तारे टिमटिमा रहे थे। उसने बुदबुदाकर कहा—
“आर्यन का हक़ उसे एक दिन मिलेगा। चाहे लोग लाख इंकार करें, लेकिन समय सबका सच सामने लाता है। और मैं… मैं उस दिन तक उसका सहारा बनकर खड़ा रहूँगा।”
इसी बीच गाँव की गलियों में औरतों की आवाज़ें गूँज रही थीं। एक कोने में दो औरतें बातें कर रही थीं—
“इस बार का मेला बड़ा होगा। सुना है बाहर के गाँव से भी लोग आएँगे।”
दूसरी ने उत्साह से कहा—
“हाँ, और इस बार झंडा बबलू उठाएगा। सच में, हमारी भी किस्मत खुल गई। उसका नाम तो दूर-दूर तक जाएगा।”
उनके स्वर में गर्व था, पर कहीं न कहीं वही शब्द आर्यन की ग़ैरहाजिरी को और गहरा कर रहे थे। क्योंकि किसी ने उसका नाम तक नहीं लिया।
धर्म दूर से इन आवाज़ों को सुन रहा था। उसे ऐसा लगा जैसे गाँव की औरतें सिर्फ़ उत्सव की बातें नहीं कर रहीं, बल्कि उसके मन के घाव पर नमक छिड़क रही हों।
रात और गहरी हो गई थी। अचानक दूर कहीं से नगाड़े की धीमी आवाज़ सुनाई दी। यह नगाड़ा गाँव के उत्सव की घोषणा थी। जैसे-जैसे नगाड़ा बजता गया, हवा में एक कंपन-सा भर गया।
गाँव के बच्चे नींद से उठकर उछलने लगे—“नगाड़ा बजा! नगाड़ा बजा! मेला आने वाला है!”
औरतें मुस्कुराकर उन्हें दुलारने लगीं।
धर्म ने नगाड़े की गूँज सुनी और उसकी आँखें बंद हो गईं। उसे ऐसा लगा जैसे यह नगाड़ा सिर्फ़ उत्सव का संकेत नहीं है, बल्कि आने वाले तूफ़ान की आहट है।
आकाश के तारे अब और भी चमकदार हो उठे थे। हवा में उत्सव की ख़ुशबू थी, लेकिन साथ ही एक अनकहा बोझ भी।
धर्म के दिल ने फुसफुसाकर कहा—
“आज गाँव ने आर्यन को नकारा है। पर कल… कल शायद यही गाँव उसी की ओर ताकेगा। और तब, झंडा सिर्फ़ बबलू के हाथों नहीं, बल्कि आर्यन की आत्मा से भी उठेगा।”
वह देर तक नीम की छाँव में बैठा रहा। उसकी आँखें गीली थीं, लेकिन उनमें एक संकल्प चमक रहा था।
दूर नगाड़ा अब और तेज़ हो चुका था। गाँव की गलियाँ उत्सव के स्वागत के लिए सजने लगी थीं। और इस सबके बीच आर्यन, बबलू और धर्म—तीनों की किस्मतें जैसे एक अदृश्य डोर से बंधी थीं, जिसका सिरा अभी किसी को नज़र नहीं आ रहा था।
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