Raktrekha - 8 in Hindi Adventure Stories by Pappu Maurya books and stories PDF | रक्तरेखा - 8

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रक्तरेखा - 8

मेले से एक दिन पहले, पूरा दिन गांव व्यस्त रहा। औरतें पकवान बनाती रहीं।
बच्चे उत्साह से उछलते-कूदते रहे। बुजुर्ग प्रार्थना करते रहे। गाँव की औरतें गीत गा रही थीं, पुरुष ढोलक की थाप पर ताली दे रहे थे और बीच में धर्म खड़ा था — एक साधारण युवक, पर जैसे सबके दिलों की डोर उसी से बँधी हो।

वह अपने मन में सोच रहा था —
“मेला सिर्फ़ मस्ती नहीं है। ये हमारे दुखों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने का वक़्त है। ये सब हँसी-खुशी ही हमें ज़िंदा रखती है। यही सोचा कर वह पंचायत की घटना की बात भूलकर पहले की तरह सबके काम में व्यस्त हो गया।”
गाँव में मेले की गहमागहमी बढ़ती जा रही थी। हर ओर रंगीन कपड़े लटकाए जा रहे थे, मिट्टी के दीये पोंछे जा रहे थे और बच्चों के शोर से हवा तक गूंज रही थी। चौपाल पर धर्म खड़ा था। कोई उससे रस्सी माँग रहा था, कोई लकड़ी का डंडा, कोई बस हँसते-हँसते कह रहा था –
“धर्म, तेरे बिना तो यह मेला हो ही नहीं सकता।”

धर्म मुस्कुरा कर सबके काम में हाथ बँटा रहा था। वह योद्धा नहीं था, न कोई बड़ा पदवीधारी आदमी, पर उसकी सहजता और दिलासा सबको बाँध लेती थी। लोग उससे सिर्फ़ मदद ही नहीं, अपनापन भी पाते थे।

इसी भीड़ में, जब औरतें ढोलक पर ताल दे रही थीं और बच्चे झूले की रस्सी खींच रहे थे, तभी पहली बार सुधा को गाँव वालों ने देखा।
वह अपने चाचा गांव के मुखिया के साथ आई थी। लंबे चोटी में बंधे बाल, सादा-सा नीला सलवार-कुर्ता और हाथ में फूलों की थाली। उसकी आँखों में अजीब-सी चमक थी, जैसे वह इस नए माहौल को गहराई से महसूस कर रही हो। गगन ने उसे देखते ही शोर मचाया,
“अरे, ये तो फिर आ गई!”
रेखा ने गगन को धक्का दिया,
“हर बार शोर मत मचाया कर।”
धर्म आगे बढ़ा और बोला,
“बेटी, पिछली बार तो तू बिना बताए चली गई थी। अब बता, तेरा घर कहाँ है?
लड़की ने उसकी आँखों में देखा। कुछ क्षण तक चुप रही। फिर धीमे से बोली,
“घर तो है… पर यहां से बहुत दूर। मुझे बस यही कहा गया था कि यहां कुछ दिन रहना है।”
“किसने कहा?” — बिनाल ने तुरंत पूछा।
लड़की ने फिर चुप्पी साध ली। उसकी आंखों में अजीब-सा डर और रहस्य था।
रेखा धीरे से बबलू के पास फुसफुसाई,
“ये कुछ छुपा रही है। देखना, जरूर कोई बड़ी बात है।”
बबलू ने कुछ नहीं कहा।
मुखिया ने बात काटते हुए कहा," ये मेरे चचेरे भाई की बेटी है,सुधा नाम है इसका। कुछ दिन यहां घूमने आयी है।"

धर्म ने आदतन आगे बढ़कर थाली उठाने में मदद करनी चाही, पर सुधा ने झुककर विनम्रता से कहा —
“नहीं, मैं संभाल लूँगी।”
धर्म उसकी शिष्टता देख मुस्कुरा दिया।

आर्यन उस समय अपने भाइयों तथा बहनों संग खड़ा था, झूले की रस्सी कस रहा था। उसके कानों में वही लड़की की आवाज गूंजी —
“कभी लगता है कि तेरी आंखें गांव से बड़ी हैं…”
उसकी आँखें सुधा पर कुछ क्षण टिकीं जरूर, पर बस उतना ही जितना किसी अजनबी को देखने में लगता है। न कोई उत्सुकता, न कोई गहरी नज़र।
वह तुरंत ही रस्सी की गाँठ पर लौट आया और हँसते हुए बोला —
“देखना, इस बार झूला पहले दिन ही टूटेगा नहीं।”

सुधा ने दूर से यह देखा। उसकी नज़र जैसे आर्यन पर टिक गई।
उसकी आँखों में हल्की-सी जिज्ञासा थी, कि इसे झंडा के लिए क्यूं नहीं चुना गया पर आर्यन अपनी ही दुनिया में खोया था, जैसे उसे सुधा के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

गाँव के लोग जब सुधा से परिचय ले रहे थे, तभी धर्म ने बड़ी सहजता से कहा —
“मेले के काम अब बढ़ते जा रहे हैं। अब तुम भी इसे अपना ही समझो।”
उसके शब्दों ने सुधा के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान ला दी।

उस दिन से सुधा का नाम चंद्रवा गाँव की गलियों में धीरे-धीरे गूँजने लगा,
पर आर्यन के दिल में उसके लिए कोई हलचल नहीं उठी। कम से कम अभी नहीं।

शाम का समय था,मेले की तैयारी अब आख़िरी दौर में थी।
गाँव की औरतें रंग-बिरंगे परदे सी रही थीं, बच्चे बाँस की लाठियों पर झंडियाँ चढ़ा रहे थे।
चौपाल के किनारे, धर्म युवाओं को बाँट-बाँट कर काम सौंप रहा था —
किसे बाज़ार की ओर भेजना है, किसे नदी से पानी लाना है, किसे ढोलक वाले को बुलाना है।

आर्यन, हमेशा की तरह, सबसे पहले रस्सियों और बाँस के काम में जुटा हुआ था।
उसकी उंगलियाँ तेज़ और मजबूत थीं, जैसे उसने इन छोटे-छोटे कामों से ही अपने लिए एक दुनिया बना ली हो।

तभी, नदी के किनारे से होते हुऐ पगडंडी से सुधा आई।
उसके हाथ में ताज़े फूलों की टोकरी थी — माला बनाने के लिए।
धर्म ने उसे देखकर कहा —
“अरे, बिल्कुल सही समय पर आई हो। यह फूल अगर रात तक सज जाएँ, तो मेले की शान और बढ़ेगी।”

सुधा ने चुपचाप सिर हिला दिया, फिर उसकी नज़र आर्यन पर पड़ी।
वह बाँस पर चढ़कर ऊपर की गाँठ कस रहा था, बिना नीचे देखे।

“आर्यन!” धर्म ने आवाज़ दी।
“नीचे उतर, सुधा फूल लेकर आई है। देख तो, कहाँ सजाना अच्छा रहेगा।”

आर्यन ने सिर झुकाया, एक नज़र सुधा की टोकरी पर डाली और बस इतना कहा —
“चौपाल के दरवाज़े पर लगा देना। वहीं सबसे अच्छा लगेगा।”
फिर वह बिना सुधा की ओर देखे वापस अपने काम में लग गया।

सुधा को जैसे एक पल के लिए खटक-सा हुआ।इतना छोटा-सा जवाब…
उसने चाहा कि आर्यन की आँखों में झाँककर कुछ समझे, लेकिन उसके चेहरे पर सिर्फ़ काम में डूबे होने की गंभीरता थी।

धर्म ने मुस्कुराकर माहौल हल्का कर दिया।
“देखा, सुधा, यही है हमारा आर्यन। बात कम करता है, काम ज़्यादा।”
सब लोग हँस पड़े, पर सुधा की मुस्कान कुछ धीमी थी।

उस शाम जब सूरज ढल रहा था, चौपाल के दरवाज़े पर वही फूलों की माला सजी थी। गाँव वाले तारीफ़ कर रहे थे, बच्चे खुश होकर माला के पास खेल रहे थे।

आर्यन ने आसमान की ओर देखा। तारों की भीड़ थी। उसने मन ही मन सोचा —
शायद सचमुच यह मेला सिर्फ गांव का त्योहार नहीं, बल्कि उसकी आत्मा की परीक्षा भी है।

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