Raktrekha - 5 in Hindi Adventure Stories by Pappu Maurya books and stories PDF | रक्तरेखा - 5

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रक्तरेखा - 5

रात उतर आई थी।
चंद्रवा गाँव की सुबह उस दिन कुछ अलग थी। आम दिनों की तरह न कोई खेतों में हल चला रहा था, न ही महिलाएँ चक्की पर बैठकर अनाज पीस रही थीं।
गाँव के चौक से लेकर गलियों तक, हर जगह एक अजीब-सा उत्साह तैर रहा था।
बच्चों की आँखों में चमक थी, जैसे आज से ही मेले का सपना सच हो गया हो। पूरे चंद्रवा गाँव में जैसे जीवन लौट आया हो।
गांव के हर आँगन से जलती हुई चिराइयों की लौ हवा में कांप रही थी। कहीं ढोलक बज रही थी, कहीं गीत गूंज रहे थे पर गांव का चौक असामान्य रूप से भरा हुआ था। बच्चे मिट्टी में खेलते-खेलते बार-बार चिल्लाकर कहते —
“मेला आएगा! मेला आएगा!”
और उनके स्वर सुनकर बूढ़े भी हँसते जाते।

वहां पंचायत के बूढ़े बैठे थे,और उनके बीच में धर्म और बिनाल भी।
एक बुजुर्ग ने कहा,
“बीस बरस बाद मेला आने वाला है। याद रखो, यह मेला सिर्फ उत्सव नहीं होता, यह गांव के लिए दिशा तय करता है। जो पुजारी किरनवेल से आएँगे, वही आने वाले समय की नब्ज बताएंगे।”
बिनाल ने गंभीर स्वर में पूछा,
“क्या इसका मतलब यह है कि गांव का हर फैसला भी उसी मेले पर निर्भर करेगा?”
बुजुर्ग ने सिर हिलाया,
“हाँ। खेती से लेकर व्यापार तक, रिश्तों से लेकर भविष्य तक — सबकुछ।”
धर्म ने धीमे से कहा,
“तो हमें तैयार रहना होगा। मेला सिर्फ एक दिन का नहीं होता। यह हमारी आत्मा की परख है।”
आर्यन चुपचाप एक कोने में बैठा सुन रहा था। उसकी आँखों में अजीब-सी चमक थी। वह अभी बच्चा था, लेकिन उसे लग रहा था कि यह मेला सिर्फ गांव के लिए नहीं, बल्कि उसकी अपनी जिंदगी के लिए भी कोई राज छुपाए बैठा है।

दिन ढलते ही गांव में उत्साह बढ़ने लगा। लोग अपने घरों को लीपने-पोतने लगे।
औरतें गा-गाकर आँगन सजाने लगीं। बच्चे दौड़-दौड़ कर नई कपड़े सिलवाने की बात करने लगे।
बबलू ने आर्यन से कहा,
“सुन भाई, इस बार तो मैं झंडा उठाऊँगा। मेला बिना झंडे के अधूरा होता है।”
गगन तुरंत बोला,
“नहीं, झंडा मैं उठाऊँगा!”
सब हँस पड़े।
धर्म ने सबको शांत कराते हुए कहा,
“झंडा कौन उठाएगा, यह पंचायत अगली बैठक में तय करेगी। पर याद रखो, झंडा उठाना जिम्मेदारी है, शान दिखाना नहीं।यह हमारी आस्था, हमारी परंपरा और हमारी एकता का प्रतीक है और हर बार यह तय करना पड़ता है कि गांव का झंडा कौन उठाएगा। यह कोई खेल नहीं, यह पूरे गांव की प्रतिष्ठा का भार है।”

कुछ पल की खामोशी के बाद सबने एक-दूसरे की ओर देखा।”
बिनाल ने गंभीर स्वर में जोड़ा,
“मेला हमें सिर्फ हंसने-खेलने के लिए नहीं जोड़ता। वहां दूर-दूर से लोग आते हैं। वे हमारी ताकत और कमजोरी दोनों देखते हैं। इसलिए हमें एकजुट रहना होगा।”
बच्चे चुप हो गए।
धर्म की बातें हमेशा गांव के दिल तक पहुंचती थीं।

उस रात आर्यन सो नहीं सका।
वह आँगन से बाहर निकला। चांदनी पूरे गांव पर बिखरी हुई थी।
उसने देखा — वही लड़की कुएं के पास बैठी है। अकेली।

आर्यन धीरे से उसके पास गया और बोला,
“तू यहां क्या कर रही है?”

लड़की ने आसमान की ओर देखते हुए कहा,
“तारे गिन रही हूँ।”
आर्यन चौंक गया,
“तारे? कोई सब तारे थोड़े गिन सकता है।”
लड़की मुस्कुराई,
“गिनना जरूरी नहीं… कभी-कभी बस गिनने का नाटक करना भी काफी होता है। इससे मन को लगता है कि सब कुछ अपने काबू में है।”
आर्यन चुप रह गया।
लड़की ने अचानक पूछा,
“तुझे कभी लगता है कि तू इस गांव का हिस्सा नहीं है?”
आर्यन हड़बड़ा गया।
“तू ऐसा क्यों पूछ रही है?”
लड़की ने धीरे से कहा,
“क्योंकि तेरी आंखें गांव से बड़ी लगती हैं।”
अचानक कोई महिला बोलती है,
"सुधा, ओ सुधा यहां क्यों बैठे है तेरे चाचा तुझे पूरे गांव में ढूंढ रहे है।"
सुधा लंबी सांसे लेती हुई उठाती है फिर धीरे से चली जाती है।
आर्यन कुछ नहीं बोल पाया।
वह पहली बार अपने दिल की धड़कनें सुन रहा था।

दिन बीतते गए। गांव में मेला करीब आता गया।
चौपाल पर बड़े लोग इकट्ठा होकर चर्चा कर रहे थे —
कहाँ झूले लगेंगे, कहाँ मिठाई वालों की दुकानें बैठेंगी, और कहाँ पर  पुजारी जी कहा पूजा करेंगे।

इन्हीं सबके बीच धर्म हर जगह मौजूद था।
कोई कहता — “अरे धर्म, रस्सी मज़बूत बाँधना, झूला ढीला हुआ तो बच्चे गिर पड़ेंगे।”
तो कोई और आवाज़ देता — “धर्म, जरा देखना, मिठाई वाले को जगह ठीक मिले।”
वह बिना थके, बिना झुँझलाए सबकी मदद करता जाता।
उसके चेहरे पर वही सहज मुस्कान रहती, जैसे उसके लिए यह बोझ नहीं बल्कि एक आनंद हो।
बच्चे उसे घेरे रहते।
एक ने खींचकर कहा —
“धर्म भैया, मेरे लिए मेले से बाँसुरी लाना।”
दूसरे ने कहा —
“नहीं! मेरे लिए लाल रिबन।”
धर्म हँसकर सबको वादा कर लेता, मानो उसकी झोली सबकी ख्वाहिशों से भर जाएगी।

उसका यह व्यवहार गाँव के हर दिल को छू जाता।
लोग कहते —
“न जाने यह लड़का कहाँ से इतना अपनापन लाता है।”
और धर्म सुनकर बस सिर झुका देता।

लोगों ने तालाब के किनारे मंडप बनाया। ढोल, नगाड़े और बांसुरी की आवाजें गूंजने लगीं। बच्चे रंगीन कागज़ से झंडे काटते रहे। रेखा अपनी सहेलियों के साथ गीत गा रही थी। बबलू और गगन ने गांव के बीचों-बीच झूला लगाने में मदद की।
धर्म ने पंचायत के साथ मिलकर व्यवस्था संभाली।

एक शाम जब सब व्यस्त थे, बिनाल धर्म से बोला,
“तुझे पता है, हर मेला सिर्फ उत्सव नहीं होता। इसके पीछे राजनीति भी होती है। किरनवेल से जो पुजारी आते हैं, वे सिर्फ पूजा नहीं करते, वे हमारे फैसलों को भी मोड़ते हैं।”
धर्म ने गहरी सांस ली,
“मैं जानता हूँ। पर यही तो जीवन है — पूजा और राजनीति, दोनों साथ-साथ चलते हैं। सवाल यह है कि हम इससे क्या सीखते हैं।”
आर्यन पास खड़ा सब सुन रहा था।
उसे लग रहा था कि यह मेला उसकी जिंदगी में कोई नया दरवाज़ा खोलेगा।

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