Raktrekha - 10 in Hindi Adventure Stories by Pappu Maurya books and stories PDF | रक्तरेखा - 10

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रक्तरेखा - 10


शाम ढल चुकी थी। मेले की रौनक अब धीरे-धीरे बुझ रही थी। ढोल-नगाड़ों की आवाज़ें थम गई थीं, पर हवा में अब भी पकौड़ियों के तले हुए बेसन और गुड़ की मिठास की गंध तैर रही थी। बच्चे थककर अपनी माताओं की गोद में सो रहे थे, और बड़े-बुज़ुर्ग अपनी थैलियों में मिठाइयाँ सँभालते घरों की तरफ बढ़ चुके थे।


गाँव का चौक अब खाली होने लगा था। बस कहीं-कहीं हँसी की बची-खुची गूँज और किसी थके हुए ढोल की हल्की थाप सुनाई देती थी।

चौक से थोड़ी दूर तालाब किनारे आर्यन अपने छोटे भाई-बहनों और कुछ बच्चों संग मेले का बिखरा कचरा समेट रहा था। उसके हाथ में बाँस की बनी टोकरी थी। कपड़े धूल और पानी से सने हुए थे, पर उसकी आँखों में वही सन्नाटा था जो हमेशा रहता था—काम में डूबा हुआ, बिना किसी शिकायत, बिना किसी शोर के।

सुधा अपने चाचा के घर लौट रही थी। जब उसका रास्ता तालाब किनारे से गुज़रा, उसने आर्यन को देखा।

धुँधलाती रोशनी में वह झुका हुआ टोकरी भर रहा था। बच्चों को हँसी-ठिठोली से रोकता, कभी खुद झुककर गीले फूल उठाता।

उसकी चाल में अजीब-सी ठहराव और आँखों में कहीं दूर तक फैला सन्नाटा था।

सुधा के दिल में अचानक एक खिंचाव-सा हुआ—जैसे कोई अदृश्य धागा उसे उसकी तरफ खींच रहा हो।

वह एक पल को वहीं ठिठकी रही, फिर कदम बढ़ाने ही वाली थी कि उसका पैर तालाब किनारे की काई पर फिसल गया।

सुधा का शरीर ढलान से लुढ़कता हुआ सीधे पानी में जा गिरा।

“बचाओ…” उसकी आवाज़ गले में ही घुट गई।

तालाब गहरा था। पानी का बोझ और डर उसे और नीचे खींचने लगा। उसकी बाँहें हवा को पकड़ने की कोशिश करतीं, पर केवल अंधेरे पानी की ठंडक हाथ आई।

बच्चों की चीखें गूँज उठीं।

“सुधा दीदी डूब रही है…!”

गगन ने सबसे पहले शोर मचाया और दौड़कर लोगों को बुलाने लगा।

रेखा रोते-रोते सुधा का नाम पुकारती रही—उसका छोटा शरीर डर से काँप रहा था।

धर्म भी वहीं था। उसने तालाब की ओर झुककर हाथ बढ़ाया, पर उसे तैरना नहीं आता था। उसका चेहरा चिंता से सख़्त हो गया।

भीड़ जमा होने लगी। लोग चीखने-चिल्लाने लगे।

इन्हीं क्षणों में आर्यन ने टोकरी फेंक दी। कपड़े उतारने तक का समय नहीं लिया। बस तेज़ साँस खींचकर ठंडे पानी में छलाँग लगा दी।

तालाब का पानी ठंडे लोहे की तरह उसके शरीर से टकराया। लहरें ऊपर से नीचे धकेल रही थीं।

धुँधली गहराई में उसने सुधा को देखा—उसकी आँखें आतंक से फैली हुईं थीं, उसके होंठ काँप रहे थे।

आर्यन ने किसी हिचकिचाहट के बिना उसका हाथ पकड़ लिया।

सुधा ने एक क्षण को उसे देख लिया—भीगे चेहरे पर कठोर संकल्प, आँखों में अजीब-सी चमक।

कई बार ऐसा लगा मानो कोई अदृश ताकत दोनों को बार-बार पानी में खीच रहीं थीं। कई बार लगा कि वे दोनों डूब जाएँगे।

पर हर बार आर्यन ने सुधा को ऊपर धकेला, अपनी साँसों की परवाह किए बिना।

बबलू दौड़ता हुआ पहुँचा। भीड़ को हटाते हुए उसने तुरंत आदेश दिए—

“रस्सी लाओ! जल्दी! सब पीछे हटो!”

वह किनारे पर खड़ा होकर रस्सी फेंकने की कोशिश करता रहा, पर जब तक रस्सी आई, तब तक आर्यन सुधा को खींचते हुए किनारे तक ला चुका था।

सुधा थककर उसकी बाँहों में ढह गई। उसका चेहरा पानी से भीगा था, साँसें टूटी-टूटी चल रही थीं।

आर्यन ने झटपट उसके चेहरे से पानी हटाया, उसे सहारा देकर बैठाया।

धीरे-धीरे सुधा ने आँखें खोलीं। उसकी धुँधली नज़र सबसे पहले उसी पर ठहरी—आर्यन।

वह चाहती थी कुछ कहे, पर शब्द उसके गले में अटक गए।

आर्यन की साँसें तेज़ थीं, पर उसकी आवाज़ कठोर रही—

“तुम्हें और सावधान रहना चाहिए।”

सुधा ने कुछ नहीं कहा। उसकी आँखें काँप रही थीं, होंठ हिलना चाहते थे पर शब्द गुम थे। वह सिर्फ उसे देखती रही—जैसे उस पल पूरी दुनिया खो गई हो और बस वही एक चेहरा रह गया हो जिसने अँधेरे से उसे खींच निकाला।

भीड़ में यह बात आग की तरह फैल गई।

कई बोले—“आर्यन ने बिना सोचे-समझे अपनी जान जोखिम में डाल दी।”

तो कई ने कहा—“यही तो उसका स्वभाव है, जो सामने खड़ा हो, उसके लिए सबकुछ दाँव पर लगा देता है।”

भीड़ के बीच बबलू आगे आया। उसने आर्यन के कंधे पर हाथ रखा और धीमे स्वर में बोला—

“तू हमेशा सबसे पहले कूद पड़ता है छोटे।

झंडा मैंने उठाया था, पर आज सुधा की जिंदगी बचाकर तुमने गाँव का मान तूने रखा है।”

गाँववालों ने दोनों भाइयों के लिए तालियाँ बजाईं।

बच्चे कहने लगे—“हमारे गाँव में दो-दो नायक हैं।”

सुधा की चाची दौड़कर सुधा के पास आई। उसने उसका हाथ पकड़ लिया और रोते हुए कहा—

“बेटी,तू हमें छोड़कर जाने वाली थी क्या? तेरे पितजी को हम क्या जवाब देते।”

सुधा ने उसकी भीगी आँखों को देखा और खुद को सँभालने की कोशिश की।

गगन बार-बार लोगों से कह रहा था—“मैंने सबसे पहले शोर मचाया था, नहीं तो पता ही नहीं चलता।”

लोग हँस पड़े, पर उसकी बात में सच भी था।

तालियाँ बजा रहे थे, पर आर्यन चुप रहा।

उसकी आँखों में बस यही सवाल गूंज रहा था—

“अगर मैं इस गाँव का असली बेटा नहीं हूँ, तो मेरी बहादुरी किस काम की?”

वह भीतर से टूटा हुआ था। पर बाहर से वही—चुप, कठोर, स्थिर।

सुधा अब भी उसे देख रही थी।

उसने मन-ही-मन सोचा—

“जिसने मुझे मौत से खींच लिया, शायद वही मुझे जीना भी सिखाएगा।”

उसकी आँखें बार-बार आर्यन को खोज रही थीं, जबकि आर्यन भीड़ से निकलकर फिर अपने काम में लग गया।

थोड़ी दूरी से यह सब देख रहा था। उसकी आँखों में संतोष भी था और हल्की-सी चिंता भी।

क्योंकि उसे लग रहा था कि यह बच्चा एक दिन अपने स्वभाव के कारण सबसे अलग खड़ा होगा। धर्म मन-ही-मन सोचता है:

“यह लड़का बाहर से कठोर है, पर भीतर कितना कोमल दिल छुपा है।

धर्म ने सुधा को देखा। सुधा की आँखों में चमक देखी, और आर्यन की आँखों में ठंडी खामोशी। सुधा की आँखें लगातार आर्यन का पीछा कर रही हैं, और आर्यन… हमेशा की तरह अपनी दुनिया में खोया हुआ।

धर्म ने मन में सोचा शायद यह लड़की… इसे पहचान चुकी है। शायद यही रिश्ता आर्यन को इंसान बनाएगा। अगर यह दोनों साथ आएँ तो शायद आर्यन की तन्हाई कम हो। शायद सुधा का उजाला उसके अँधेरों को छूकर उसे बदल दे।”

धर्म मुस्कराया-

“यह रिश्ता अभी नाम नहीं लेगा, पर बीज बो दिए गए हैं। मुझे बस समय-समय पर पानी देना है… बाकी पेड़ खुद उगेगा।”

अगले दिन गाँव की चौपाल पर धर्म बैठा हुआ था। मेले की वजह से चौक और तालाब के आस-पास बहुत गंदगी फैल गई थी। गाँववाले अपनी-अपनी रोज़मर्रा की व्यस्तता में थे और सफ़ाई जैसे काम अक्सर टल जाते थे।

धर्म चौपाल पर सबको इकट्ठा कर रहा था। वही दूर से विचार में डूबे हुए मुखिया चले आ रहे थे। उनके साथ उनका परिवार भी था। उन्होंने धरम को देखा तो पूछा लिया-

"क्या चल रहा है धरम"

धरम ने कहा–"काका,मेले के बाद कचरा बहुत फैल चुका है इसी को साफ करने की जरूरत है।"

मुखिया ने कहा–"बहुच अच्छा,हम सब भी हाथ बताएंगे। है ना सुधा।" सुधा को देखते हुए कहा।

फिर आगे बोले–"मुझे तुम्हारे परिवार का धन्यवाद करना है विशेषकर आर्यन का जिसने इस बच्ची की जान बचाई है।"

धरम कुछ नही बोला।फिर मुखिया ने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा–

“मेला खत्म हुआ है,अब गाँव को फिर से साफ़ करना होगा। पर यह काम अकेले किसी एक का नहीं है। सबको मिलकर करना होगा।”

लोग सहमति में सिर हिलाते रहे, पर काम के नाम पर धीरे-धीरे पीछे हटने लगे।

मुखिया ने मुस्कुराकर कहा—

“ठीक है। फिर सबसे पहले तालाब की सफाई करेंगे। और यह काम मैं तय करूँगा।”

सबकी नज़रें उसकी ओर उठीं।

“आर्यन और सुधा—तुम दोनों शुरुआत करोगे।”

आर्यन ने भौंहें सिकोड़ीं, पर कुछ नहीं कहा।

सुधा का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। उसे पहली बार लगा कि किस्मत उसके लिए रास्ता बना रही है।

फिर मुखिया ने बबलू की ओर देखा—

“और बबलू… तूने गाँव का झंडा उठाया है, अब इसे साफ रखने का भी फर्ज़ तेरा है।”

गगन और रेखा को उसने छोटे काम सौंपे—

“गगन, तू सूखी लकड़ी और रस्सियाँ ले आ।

रेखा, तू बच्चों को सँभालना, ताकि वे तालाब के पास शोर न मचाएँ।”

इस तरह हर किसी का हाथ इस सफाई में लगा और मुखिया तथा धरम भी हाथ बताने लगे।

दोपहर की धूप ढल रही थी।

आर्यन पानी में उतरकर काई और गंदगी निकाल रहा था।

सुधा किनारे से टोकरी भरकर मिट्टी और फूलों के अवशेष बाहर ले जा रही थी।

बबलू दोनों की मदद करते हुए पत्थर और लकड़ियाँ हटाता रहा।

शुरुआत में खामोशी छाई रही। बस पानी के छींटों की आवाज़ और सुधा के साँसों का तेज़ उठना-गिरना।

फिर सुधा ने धीरे से कहा—

“कल… अगर तुम न होते तो मैं शायद बचती नहीं।”

आर्यन ने उसकी तरफ देखा भी नहीं। बस कहा—

“मैं वही किया जो किसी को भी करना चाहिए था।”

सुधा चुप हो गई, पर उसके दिल में यह जवाब गूंजता रहा।

उसने सोचा—गाँव में सब उसे नायक कह रहे हैं, पर खुद वह मानने को तैयार नहीं। यही तो उसकी सच्चाई है। यही वजह है कि मैं इसे समझना चाहती हूँ।

धर्म दूर से यह दृश्य देख रहा था। उसकी आँखों में हल्की संतोष की चमक थी।

बीज बो दिया गया है। अब वक्त इसे अंकुरित करेगा। सुधा का धैर्य और आर्यन की खामोशी… एक दिन टकराएँगे, और शायद वहीं से नई कहानी शुरू होगी।

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