ललित को जैसे ही ख्याल आया कि गाड़ी में जो बैग भरे जा रहे हैं, उनकी गिनती कौन कर रहा होगा, उसका दिल बेचैन हो उठा। सोनू भाऊ की कड़ी डांट उसे अब भी याद थी। अगर बैग्स की गिनती में ज़रा भी गड़बड़ हुई, तो फिर एक और शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी। बिना देर किए वह तेज़ी से गाड़ी की तरफ दौड़ा और पास खड़ा होकर बैग्स की गिनती करने लगा।
"एक... दो... तीन... चार..." वह खुद को सुनाने के लिए ज़ोर से बोलने लगा, ताकि कोई चूक न हो। लेकिन गिनती गड़बड़ा रही थी। कोई हमाल उसके गिनने से पहले ही बैग्स को दूसरी थापी में डाल देता।
"अरे, यार! ये लोग भी न, एक थापी क्लियर नहीं हुई कि दूसरी शुरू कर देते हैं!" ललित खीझते हुए सिर खुजलाने लगा। "अब पीछे वाली थापी में कितने बैग हैं, इसका अंदाज़ा कैसे लगाऊं?"
हर बार जब वह गिनती करता, कुछ न कुछ गलत हो जाता। गुस्से में उसने चिल्लाकर कहा, "सब कामचोर हैं यहाँ! अगर मैं न रहूं, तो ये लोग सब गड़बड़ कर देंगे।"
तभी एक हंसी गूंज उठी। वीरेन भाई मुस्कुराते हुए बोले, "अरे ललित भइया, टेंशन मत लो। पूरी थापी को बावन की ऐसी जमाई है कि अब सबकुछ बावन-बावन हो गया है। एकदम सेटिंग फिट बैठा दी है, अब कोई लफड़ा नहीं होगा!"
"बावन बावन?" ललित की आंखों में गुस्से की लहर दौड़ गई। उसे लगा कि वीरेन उसका मज़ाक उड़ा रहा है। पैर पटकते हुए वह अपनी केबिन में चला गया। कुर्सी पर बैठते ही उसने लंबी सांस ली, और बीते दिनों की यादों में खो गया।
ठिकरी का कोल्ड स्टोरेज—वह जगह जहां वह मैनेजर था, जहां हर कोई उसका सम्मान करता था।
"काश, मैं अभी भी ठिकरी में होता," उसने सोचा। वहां की व्यवस्था उसे याद आई। हर बैग पर स्टिकर लगे होते थे, जिन्हें स्कैन करते ही पूरी गिनती स्क्रीन पर आ जाती थी। कोई गिनती की परेशानी नहीं थी।
फिर उसे वो रात याद आई— ठंड भरी दिसंबर की रात थी। चारों ओर गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था। हल्की-हल्की ठंडी हवा खिड़कियों से टकरा रही थी, जिससे पर्दे कभी अंदर तो कभी बाहर हिल रहे थे। पूरा इलाका नींद की गहराइयों में डूबा हुआ था, लेकिन एक शख्स था, जो इस सर्द रात में चैन की नींद सोने के बजाय कुछ और करने में व्यस्त था।
ललित अपने कमरे में आराम से लेटा हुआ था। दिनभर की थकान के बाद उसने भरपेट खाना खाया था और अब एक नई किताब पढ़ने की तैयारी कर रहा था।
"आज तो खूब अच्छा खाना मिला। वाह, मज़ा आ गया! अब देखता हूँ वो किताब कैसी है जो मैंने बाज़ार से खरीदी थी," उसने खुद से कहा और पास पड़ी किताब उठा ली।
यह कोई साधारण किताब नहीं थी। यह एक डरावनी और रहस्यमयी कहानी थी—एक ऐसी कहानी, जिसमें चोरी, रहस्यमय हत्याएँ और भयानक रहस्य छिपे थे। जैसे-जैसे वह पढ़ता गया, कहानी गहरी होती चली गई। शब्द उसकी कल्पना में जीवंत हो उठे।
अचानक—
ठक! ठक! ठक!
दरवाज़े पर ज़ोरदार खटखटाहट हुई। इतनी तेज़ कि ललित का दिल धक से रह गया।
वो झटके से उठा और कुछ क्षणों तक साँस रोककर दरवाज़े की ओर देखा। इतनी रात गए कौन आ सकता था? क्या कोई खतरा था?
"ललित साहब! जल्दी बाहर आइए! कुछ गड़बड़ हो रही है!"
बाहर से किसी की घबराई हुई आवाज़ आई।
ललित तुरंत बिस्तर से उठा, चादर किनारे फेंकी और जल्दी से दरवाज़ा खोला। बाहर खड़ा व्यक्ति तेज़-तेज़ हाँफ रहा था। उसकी आँखों में डर था, और वो जैसे किसी बड़े खतरे का संकेत दे रहा था।
"क्या हुआ? इतनी रात गए क्यों परेशान कर रहे हो?" ललित ने कड़े स्वर में पूछा।
"साहब, गोदाम के पीछे से अजीब आवाज़ें आ रही हैं। लगता है कोई चोरी करने की कोशिश कर रहा है!"
ये सुनते ही ललित का दिमाग़ तेज़ी से चलने लगा। उसने तुरंत पास रखी टॉर्च उठाई और बिना समय गँवाए कुछ और कर्मचारियों के साथ गोदाम की ओर दौड़ पड़ा।
रात का घना अंधेरा चारों ओर फैला था। हवा ठंडी थी, लेकिन ललित को इसकी परवाह नहीं थी। रास्ते में पड़ने वाली सूखी पत्तियाँ उसके कदमों तले चरमरा रही थीं।
गोदाम तक पहुँचने में उन्हें ज़्यादा समय नहीं लगा। वहाँ अजीब-सी ख़ामोशी थी, मगर हवा में एक अजीब तरह की घबराहट महसूस हो रही थी। ललित ने चारों ओर नज़रें दौड़ाईं। हर चीज़ सामान्य दिख रही थी, मगर उसकी छठी इंद्रिय कुछ और कह रही थी।
"वो देखिए साहब!" कर्मचारी ने काँपती आवाज़ में इशारा किया।
ललित ने टॉर्च का रौशनी उस ओर डाली, तो देखा कि गोदाम के पीछे कुछ भारी बैग्स हटाए गए थे। ज़मीन पर खरोंच के निशान थे, मानो किसी ने उन्हें घसीटा हो। लेकिन सबसे अजीब बात थी—एक गुप्त दरवाज़ा, जो आधा खुला हुआ था!
ललित ने एक गहरी साँस ली और कर्मचारी को हाथ के इशारे से पीछे हटने को कहा। उसने धीरे-धीरे आगे बढ़ना शुरू किया। उसकी टॉर्च की रोशनी दरवाज़े के भीतर झाँकने लगी। वहाँ घना अंधकार था, मगर…
सांसों की हल्की आवाज़!
किसी के वहाँ होने का अहसास हुआ।
ललित के शरीर में एक झुरझुरी दौड़ गई। लेकिन उसने खुद को सँभाला और कड़क आवाज़ में कहा—
"कौन है वहाँ? बाहर आओ!"
चारों ओर सन्नाटा छा गया।
कोई जवाब नहीं आया।
मगर...
किसी चीज़ की हल्की सरसराहट सुनाई दी। मानो कोई धीरे-धीरे सरक रहा हो।
ललित ने टॉर्च को और आगे किया और एक और कदम बढ़ाया। उसकी पकड़ टॉर्च पर और मज़बूत हो गई।
अचानक, दरवाजा और खुला, और एक काली परछाईं तेजी से बाहर भागी। ललित ने फुर्ती से उसे पकड़ने की कोशिश की, लेकिन वह व्यक्ति चतुराई से बचकर निकल गया।
ललित ने कर्मचारियों को इकट्ठा किया और गोदाम के भीतर प्रवेश किया। अंदर का नज़ारा हैरान कर देने वाला था—फर्श पर कुछ आधे कटे बैग्स पड़े थे, जिनमें से कुछ खाली हो चुके थे। कागज के टुकड़े इधर-उधर बिखरे थे, और एक किनारे पर एक अजीब सा लकड़ी का संदूक रखा था।
ललित ने संदूक खोला, तो उसके भीतर चांदी और नकदी के बंडल रखे थे। चोरी सिर्फ अनाज की नहीं हो रही थी, कुछ और भी बड़ा खेल चल रहा था।
तभी पीछे से किसी ने ललित पर हमला करने की कोशिश की, लेकिन उसने झुककर खुद को बचा लिया। एक और व्यक्ति भागने लगा। ललित ने तुरंत बाकी कर्मचारियों को इशारा किया, और कुछ ही देर में दोनों चोर पकड़े गए।
अगले दिन, मालिक ने ललित की जमकर तारीफ की। वह रात उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक बन गई।
अपनी यादों में खोए ललित को दरवाजे पर पड़ने वाली दस्तक ने चौंका दिया। उसने चौंककर देखा।
"कौन है?" उसने तेज़ आवाज़ में पूछा, लेकिन कोई जवाब नहीं आया।
वह कुर्सी से उठकर दरवाजे के पास गया और हल्के से खोला।
सामने वही कर्मचारी खड़ा था, जिसने चोरी वाली रात उसे बुलाया था।
ललित का चेहरा सफेद पड़ गया। "तुम... यहाँ कैसे?"
कर्मचारी की आँखों में अजीब चमक थी। उसने धीमे से कहा, "ललित साहब, चोरी तो हो रही है... लेकिन अब ठिकरी में नहीं... यहाँ, आपके आसपास।"
ललित का दिल तेजी से धड़कने लगा। वह कुछ पूछता, उससे पहले कर्मचारी गायब हो चुका था। दरवाजा अपने आप बंद हो गया।
ललित के मन में एक ही सवाल गूंजने लगा—"क्या सच में यहाँ भी कुछ बड़ा हो रहा है?"
जारी है........