Neelavanti ek Sharpit Granth in Hindi Horror Stories by Vedant Kana books and stories PDF | नीलावंती एक श्रापित ग्रंथ

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नीलावंती एक श्रापित ग्रंथ

सदियों पहले की बात है, जब गाँवों के बीच फैले अंधेरे जंगलों में रात के सन्नाटे का अर्थ ही भय था। लोग अंधेरा ढलते ही घरों में दुबक जाते, क्योंकि जंगलों में अजीब-अजीब चीखें गूंजती थीं। कहते हैं कि इन जंगलों के बीच किसी समय तंत्र-मंत्र का ऐसा ग्रंथ लिखा गया था, जो पढ़ने वाले की आत्मा को निगल लेता था। उस ग्रंथ का नाम था "नीलावंती"।

इसकी लिखावट नीली रोशनी में चमकती और उसकी हर पंक्ति जैसे जीवित होकर पढ़ने वाले की आँखों में उतर जाती थी। यह ग्रंथ किसी पुस्तकालय में नहीं रखा जाता था, बल्कि तंत्र साधकों की हवेलियों, वीरानों और श्मशानों में छुपाकर रखा जाता था। जिसने भी इसे पढ़ने की कोशिश की, उसका जीवन तो नष्ट हुआ ही, उसकी आत्मा भी शांति नहीं पा सकी।

राजस्थान के एक पुराने गाँव में हवेली थी, जहाँ ठाकुर रणवीर सिंह का परिवार रहता था। हवेली ऊँची दीवारों और टूटते हुए स्तंभों से भरी हुई थी। ठाकुर को विरासत में मिली उस हवेली के तहखाने में लोहे का एक संदूक रखा था, जिसे कोई खोलने की हिम्मत नहीं करता था।

कहा जाता था कि उसी संदूक में नीलावंती छुपाई गई है। ठाकुर ने बचपन से सुना था कि उनके पूर्वजों में से किसी ने इस ग्रंथ को साधने की कोशिश की थी, लेकिन उसके बाद पूरा कुनबा अकाल मौत का शिकार हो गया।

एक अमावस्या की रात को, हवेली में अजीब घटनाएँ होने लगीं। दीवारों पर परछाइयाँ दौड़ने लगीं, दरवाज़ों के पीछे से किसी के खर्राटों जैसी भयानक आवाज़ें आने लगीं, और हवेली के बीचोबीच रखी घण्टी अपने आप बज उठती।

ठाकुर की जिज्ञासा इतनी बढ़ गई कि उसने तहखाना खोलने का फैसला किया। लोहे का संदूक खोलते ही अंदर से ठंडी हवा का झोंका निकला, मानो किसी कैद आत्मा ने साँस ली हो। संदूक में काले कपड़े में लिपटी एक पुरानी पुस्तक पड़ी थी। जैसे ही कपड़ा हटाया, नीली रोशनी ने तहखाने को निगल लिया। वही था शापित ग्रंथ नीलावंती।

ठाकुर ने पहला पन्ना खोला, और नीली स्याही से लिखे शब्द ऐसे कांपते हुए प्रतीत हुए जैसे अभी-अभी लिखे गए हों। शब्द आँखों में चुभने लगे, दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं। तभी अचानक से हवेली की दीवारों से कराहने की आवाज़ आने लगी। दीवारों में से खून रिसने लगा, और हवेली के आँगन में खड़े पुराने बरगद से लटकती हुई परछाइयाँ इंसानों की तरह तड़पने लगीं।

ग्रंथ की एक पंक्ति पढ़ते ही ठाकुर को लगा जैसे कोई उसके कान के पास फुसफुसा रहा है। पर वो आवाज़ उसकी नहीं थी। वो स्त्री की आवाज़ थी—"मुझे मुक्त कर, वरना तेरी पीढ़ी का अंत यहीं होगा।" ठाकुर ने काँपते हाथों से ग्रंथ बंद करना चाहा, पर ग्रंथ उसके हाथों से चिपक गया। उसकी नसों में नीली रोशनी दौड़ने लगी। उसी क्षण उसकी आँखें सफेद हो गईं और उसका शरीर बेतहाशा कांपने लगा।

अगली सुबह जब हवेली के नौकर तहखाने में पहुँचे, तो संदूक खुला पड़ा था और ठाकुर कहीं नहीं था। केवल नीले धुएँ का धब्बा दीवार पर चिपका हुआ था, मानो उसकी आत्मा वहीं समा गई हो।

गाँव वालों ने हवेली छोड़ दी, लेकिन हवेली आज भी खड़ी है। कहते हैं, रात के तीसरे पहर में हवेली से नीली रोशनी आसमान तक उठती है, और एक स्त्री की चीख गूँजती है। कुछ लोगों का मानना है कि नीलावंती अब केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि एक जीवित आत्मा है जो हर पीढ़ी में किसी नए शिकार की तलाश करती है।

पर असली रहस्य ये है कि ठाकुर वास्तव में मरा नहीं था। उसकी आत्मा नीलावंती के अंदर कैद हो गई। और जब कोई नया व्यक्ति उस ग्रंथ को छुएगा, तो ठाकुर की आत्मा उस पर अधिकार कर लेगी। इसीलिए हवेली के पास जाने की हिम्मत कोई नहीं करता।

लेकिन कभी-कभी राहगीरों ने हवेली की खिड़कियों से झाँकते एक आदमी को देखा है, जिसकी आँखें पूरी तरह सफेद होती हैं और उसके हाथ में नीली चमकती हुई पुस्तक रहती है।

डर यहाँ खत्म नहीं होता, क्योंकि वो ग्रंथ अब भी हवेली के तहखाने में पड़ा है, और इंतज़ार कर रहा है… अगले पाठक का।

रात का सन्नाटा भारी हो चुका था। हवेली के खंडहरों में जंगली उल्लुओं की आवाज़ गूँज रही थी। गाँव के कुछ जिज्ञासु नौजवानों ने तय किया कि इस श्राप का अंत करना ही होगा, वरना नीलावंती का खौफ़ उनकी आने वाली पीढ़ियों को भी नष्ट कर देगा

चार लोग मशाल लेकर हवेली पहुँचे। जैसे ही उन्होंने हवेली के मुख्य द्वार को धक्का दिया, दरवाज़ा अपने आप खुल गया। हवा का झोंका अंदर से आया और उनकी मशालें टिमटिमाने लगीं।

तहखाने तक पहुँचने में ही उनके कदम भारी होने लगे। दीवारों पर नीली आकृतियाँ उभर आई थीं, जैसे किसी ने ताज़ा खून से तांत्रिक चिन्ह बनाए हों। अंदर पहुँचते ही उन्हें वही संदूक दिखा, लेकिन इस बार वो खुला था और उसके पास एक आदमी खड़ा था। उसके हाथ में वही शापित ग्रंथ नीलावंती था।

उसकी आँखें पूरी तरह सफेद थीं, और आवाज़ ऐसी गूँज रही थी जैसे कई आत्माएँ एक साथ बोल रही हों "मैं ठाकुर रणवीर… और मैं अब नीलावंती हूँ।"

नौजवानों के पैरों के नीचे की ज़मीन हिलने लगी। तहखाने की दीवारों से हड्डियाँ बाहर निकलकर गिरने लगीं। उन्होंने डरते हुए मशालें ठाकुर की ओर फेंकीं, पर अग्नि बुझ गई और पूरा तहखाना नीली धुंध से भर गया। एक नौजवान ने ग्रंथ छीनने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही उसने छुआ, उसका शरीर वहीं पत्थर बन गया और आँखें सफेद होकर फट गईं।

बाकी तीन जान बचाकर भागे, पर जैसे ही हवेली से बाहर निकले, उन्होंने देखा कि गाँव की हर झोपड़ी की दीवार पर नीले अक्षर खुदने लगे थे “नीलावंती का श्राप मुक्त नहीं हुआ।”

उस रात पूरा गाँव गायब हो गया। सुबह जब पड़ोसी गाँव के लोग आए, तो उन्होंने केवल सुनसान खंडहर पाए। कोई इंसान, कोई जानवर, कोई निशान नहीं… बस हवेली के ऊपरी खिड़की पर खड़ा वो सफेद आँखों वाला आदमी, जिसके हाथ में नीली चमकती किताब थी।

और तब से कहा जाने लगा कि नीलावंती केवल हवेली तक सीमित नहीं रही। अब वो जहाँ भी जिज्ञासा से कोई उसका नाम लेता है, वहाँ तक उसका श्राप पहुँच जाता है।

डर खत्म नहीं हुआ… क्योंकि अगली अमावस्या की रात शायद नीलावंती तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे।