सदियों पहले का समय था, जब गाँवों में लालटेन और दीयों की रोशनी ही रातों का सहारा हुआ करती थी। उस दौर में लोग मानते थे कि अमावस्या की रातें सबसे अधिक खतरनाक होती हैं।
बुजुर्गों की कहानियाँ कहती थीं कि उस रात हवा में एक अजीब सा ज़हर घुल जाता है, इंसान का दिल भारी हो जाता है और आत्माएँ ज़मीन पर उतर आती हैं। गाँव के लोग सूरज ढलते ही अपने दरवाज़े बंद कर लेते, पर उसी गाँव में एक लड़का था, अरुण, जो इन बातों को अंधविश्वास मानकर हमेशा मज़ाक उड़ाया करता। उसे क्या पता था कि एक रात उसका मज़ाक उसकी ज़िन्दगी और आत्मा दोनों को निगल लेगा।
गाँव के बाहर एक टूटा हुआ हवेली का खंडहर था। कहते थे कि वहाँ एक चुडैल रहती है, जिसे सौ साल पहले एक तांत्रिक ने काबू में करने की कोशिश की थी, लेकिन नाकाम रहा। उस वक़्त से वो हवेली वीरान पड़ी थी। अरुण के दोस्तों ने चुनौती दी कि अगर उसे सच में डर नहीं लगता तो अमावस्या की रात हवेली के भीतर जाकर वहाँ की दीवार पर अपना नाम लिखकर दिखाए। अहंकार में डूबे अरुण ने चुनौती स्वीकार कर ली।
रात गहराने लगी। हवाओं में एक अजीब सी सीलन और सड़न की गंध भर गई। अरुण हाथ में मिट्टी का दीया लेकर हवेली की ओर बढ़ा। हवेली के दरवाज़े चरमराते हुए अपने आप खुल गए, मानो उसे भीतर बुला रहे हों।
अंदर घुसते ही टूटी छत से चाँद की फीकी किरणें उतर रही थीं। दीवारों पर पुराने खून जैसे लाल धब्बे थे और हवा में धूप-लोहबान की जली हुई गंध फैली थी। अचानक अरुण के कानों में फुसफुसाहट गूँजने लगी “वापस चले जाओ… वरना पछताओगे…”
लेकिन अरुण रुका नहीं। उसने दीवार पर अपना नाम लिखना शुरू ही किया था कि तभी हवा का तेज़ झोंका आया और दीया बुझ गया। अंधेरे में उसने महसूस किया कि कोई उसके पीछे खड़ा है। काँपते हुए उसने मुड़कर देखा—एक औरत, बिखरे बाल, उलटी आँखें और आधा जला हुआ चेहरा लेकर खड़ी थी। उसकी लंबी जीभ बाहर निकली हुई थी और नाखून खून से सने हुए थे।
वो धीरे-धीरे अरुण की ओर बढ़ी और उसकी कर्कश आवाज़ गूँजी “अब तू मेरा है…”
अरुण भागना चाहता था, लेकिन उसके पैर जैसे ज़मीन में धँस गए। चुडैल ने उसकी आँखों में झाँका और अरुण की आत्मा पर अपना वश कर लिया। उसका शरीर वही खड़ा रहा, पर अब उसकी आँखें सफेद हो चुकी थीं। सुबह जब गाँववाले हवेली के पास पहुँचे तो अरुण बाहर बैठा मिला, मगर चुपचाप। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था।
उसने सबको देखकर सिर्फ़ इतना कहा “मैं वापस आ गया हूँ।”
लेकिन धीरे-धीरे गाँव में अजीब घटनाएँ होने लगीं। बच्चों का अचानक गुम हो जाना, रात में खिड़कियों पर किसी का चेहरा दिखना, और लोगों का बिना वजह मर जाना। हर घटना के पीछे अरुण को देखा गया। पर सबसे भयानक सच तब सामने आया जब गाँव के पुराने पुजारी ने बताया कि वो अरुण नहीं, बल्कि हवेली की चुडैल ही है जो उसके शरीर में वास कर चुकी है।
गाँव वाले इकट्ठे होकर उसे मारने गए, पर जैसे ही उन्होंने उसे घेरने की कोशिश की, अरुण की कर्कश हँसी गूँज उठी। उसने कहा “तुम सोचते हो मुझे वश में कर लोगे? जिस तांत्रिक ने कोशिश की थी, उसकी हड्डियाँ अब भी इस हवेली में दबी हैं। और अब अरुण का शरीर मेरा नया आश्रय है।”
गाँव वाले चीखते हुए भागे। कुछ ने हवेली को जलाने की कोशिश की, मगर आग अपने आप बुझ गई। कहते हैं उस रात से लेकर आज तक हर अमावस्या की रात अरुण की आवाज़ हवेली के बाहर से आती है, जो राहगीरों को पुकारती है “अंदर आओ… तुम्हारा नाम भी मैं अमर कर दूँगा…”
औरतें अब भी बच्चों को डराने के लिए कहती हैं कि हवेली से दूर रहना, वरना चुडैल के वश में आकर तुम कभी वापस अपने नहीं रहोगे।
लेकिन रहस्य अब भी बाकी था क्योंकि किसी ने देखा है कि गाँव में कई लोग अचानक अरुण जैसे बर्ताव करने लगते हैं। तो क्या वो चुडैल सिर्फ़ हवेली में ही है? या उसने पूरा गाँव अपने वश में कर लिया है…?
गाँव में उस रात के बाद से डर का ऐसा साया छा गया कि लोग अपने घरों से बाहर निकलना ही बंद कर चुके थे। हर तरफ अजीब-सी गंध, बासी खून जैसी बदबू और रात में सुनाई देने वाली औरतों की हँसी सबको पागल कर रही थी। कुछ ही दिनों में गाँव आधा खाली हो गया। जो लोग बचे थे, वो भी लगातार बीमार पड़ने लगे।
पुजारी हरिदास जी ने आखिरकार निश्चय किया कि वो आखिरी बार हवेली जाकर चुडैल के वशीकरण को खत्म करने का प्रयास करेंगे। रात के गहरे अंधेरे में, हाथ में मंत्रों की किताब और पीतल की घंटी लिए वो हवेली पहुँचे। लेकिन हवेली अब पहले जैसी नहीं थी वो जीवित लग रही थी। उसकी टूटी दीवारों से खून रिस रहा था, खिड़कियों से सफेद चेहरों की परछाइयाँ झाँक रही थीं और अंदर से बच्चों के रोने की आवाज़ें आ रही थीं।
हरिदास जी ने साहस करके अंदर कदम रखा। जैसे ही उन्होंने मंत्रोच्चार शुरू किया, अरुण अचानक उनके सामने आ खड़ा हुआ। उसकी आँखें पूरी तरह सफेद थीं और चेहरा अब किसी इंसान का नहीं, बल्कि औरत और मर्द का मिला-जुला रूप लग रहा था। उसके पीछे बच्चों की पंक्ति थी, जिनके चेहरे पर भावनाएँ खत्म हो चुकी थीं।
अरुण हँसते हुए बोला “तेरा मंत्र अब मुझ पर असर नहीं करेगा। मैं अब सिर्फ़ चुडैल नहीं… पूरा गाँव हूँ।”
हरिदास जी ने काँपते हुए मंत्र पढ़ना जारी रखा। तभी अचानक जमीन फटी और अंदर से हड्डियों के ढेर बाहर गिर पड़े। उनमें से एक खोपड़ी में अब भी तांत्रिक की माला पड़ी थी—वही तांत्रिक जिसने सौ साल पहले चुडैल को बाँधने की नाकाम कोशिश की थी।
चुडैल की आवाज़ गूँजी “देख लिया उसका अंजाम? अब तेरा भी यही होगा।”
अचानक हवेली की दीवारें बंद होने लगीं, मानो जिंदा होकर हरिदास जी को निगलने पर आमादा हों। उन्होंने पूरी ताकत से अंतिम मंत्र पढ़ा, और एक पल के लिए हवेली हिल गई, सबकुछ काँप उठा। अरुण चीखने लगा, बच्चे ज़मीन पर गिर पड़े, और हवा में राख की गंध भर गई।
लेकिन अगले ही क्षण सन्नाटा छा गया।
सुबह गाँव वाले जब हवेली पहुँचे तो वहाँ न हरिदास जी थे, न अरुण, न बच्चे। सिर्फ़ दीवार पर ताज़ा खून से लिखा था—
“अब मैं हवेली में नहीं… तुम्हारे भीतर हूँ।”
उस दिन के बाद गाँव पूरी तरह वीरान हो गया। कहते हैं जो भी वहाँ से गुजरता है, उसे अपनी ही आवाज़ सुनाई देती है—मानो कोई उसी के शरीर में घुसने की कोशिश कर रहा हो।