हवेली के बाहर तूफ़ान ज़ोरों पर था। बिजली की गड़गड़ाहट से खिड़कियाँ हिल रही थीं और भीतर का माहौल किसी श्मशान से कम नहीं लग रहा था। तहखाने की उस गुप्त सुरंग से निकलते ही चिराग और राधिका ने खुद को एक बड़े कक्ष में पाया।
कक्ष की दीवारों पर लाल रंग से बने हुए प्राचीन चिन्ह चमक रहे थे। बीच में चौकी पर रखा था—
खून से सना हुआ टीका।
जैसे ही राधिका की नज़र उस टीके पर पड़ी, उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।
“चिराग… मुझे लग रहा है ये मुझे ही पुकार रहा है।”
चिराग ने उसका हाथ पकड़ लिया—
“नहीं राधिका! ये बस एक खेल है। हमें इसके पीछे की सच्चाई तक पहुँचना होगा।”
अचानक कमरे की दीवारें कांपने लगीं। दीयों की लौ तेज़ होकर गोल-गोल घूमने लगी और उसी रौशनी में औरतों की परछाइयाँ उभर आईं। सबके माथे पर वही लाल टीका था।
उनकी आँखों में आँसू थे, लेकिन चेहरों पर गुस्से की लकीरें।
उनमें से एक आत्मा बोली—
“हम सब इस हवेली की बलि हैं। हमारी जानें ली गईं ताकि इस परिवार की हवेली और शक्ति जिंदा रहे। हर पीढ़ी में एक औरत चुनी जाती है… और उस पर लगाया जाता है खून का टीका।”
राधिका ने सिसकते हुए पूछा—
“और इस बार…?”
सभी परछाइयों ने एक साथ उसकी ओर इशारा किया।
“इस बार तुम हो, राधिका।”
चिराग गुस्से से चिल्लाया—
“नहीं! मैं इसे नहीं होने दूँगा। किसी की बलि नहीं होगी।”
उसी पल एक ठंडी हवा चली और नंदिनी की परछाई सामने आ खड़ी हुई। उसके चेहरे पर दर्द और रहस्य दोनों थे।
“चिराग… तुम जो देख रहे हो, वही सच है। मैंने भी कभी इसका विरोध किया था… और उसी रात मेरे माथे पर ये टीका लगा दिया गया। तब से मैं मौत और ज़िंदगी के बीच भटक रही हूँ।”
राधिका ने काँपते स्वर में कहा—
“नंदिनी… क्या इस श्राप को तोड़ा जा सकता है?”
नंदिनी की आँखों से आँसू निकल पड़े।
“हाँ… लेकिन इसके लिए किसी को अपना खून देना होगा। जब तक एक बलि नहीं दी जाएगी, हवेली का यह खेल खत्म नहीं होगा।”
कमरे में सन्नाटा छा गया। राधिका के चेहरे पर डर साफ़ दिख रहा था।
तभी दीवार पर खून से खुद-ब-खुद लिख गया—
“बलि टाली नहीं जा सकती… अगली सुबह टीका लग चुका होगा।”
राधिका का शरीर कांपने लगा। उसने धीरे से कहा—
“मतलब… अगली सुबह मेरी मौत तय है?”
चिराग ने उसे अपने सीने से लगा लिया और दृढ़ आवाज़ में कहा—
“नहीं राधिका! अगर खून देना ही होगा, तो मैं दूँगा। मैं तुम्हें खो नहीं सकता।”
लेकिन नंदिनी की परछाई ने ठंडी हँसी छोड़ी और बोली—
“खून सिर्फ़ औरत का ही चाहिए… क्योंकि श्राप औरत की बलि पर ही पलता है।”
दीयों की लौ एक-एक कर बुझ गई।
अब अंधेरे में सिर्फ़ राधिका का चेहरा चमक रहा था—और चौकी पर रखा वह खून का टीका धीरे-धीरे उसकी ओर खिसकने लगा…
राधिका ने काँपते स्वर में पूछा—
“क्या इस श्राप को तोड़ा नहीं जा सकता, नंदिनी?”
नंदिनी ने आँखें झुका लीं।
“हाँ… तोड़ा जा सकता है। लेकिन इसके लिए हवेली की जड़ में छुपा वो राज़ खोजना होगा… जो अब तक किसी को नहीं मिला।”
चिराग ने तुरंत कहा—
“तो मैं वही राज़ ढूँढूँगा। चाहे मुझे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े।”
इतना कहते ही दीवार पर खून से शब्द उभर आए—
“आज रात का चाँद किसी एक का आखिरी चाँद होगा।”
कमरे में अचानक सब परछाइयाँ गायब हो गईं। चौकी पर रखा टीका खुद-ब-खुद हवा में उठकर चमकने लगा।
चिराग और राधिका डर से जमे खड़े रहे।
धीरे-धीरे टीका राधिका के माथे की ओर बढ़ रहा था…
और तभी कक्ष की दीवार में छुपा हुआ एक गुप्त दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुल गया।
दरवाज़े के पीछे कौन था?
दोनों नहीं जान पाए।
लेकिन इतना साफ़ था—
उस दरवाज़े में ही छुपा था हवेली का सबसे बड़ा रहस्य।