Eclipsed Love - 13 in Hindi Fiction Stories by Day Dreamer books and stories PDF | Eclipsed Love - 13

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Eclipsed Love - 13

मुंबई शहर

 

मुंबई की पहली रात शाम का धुंधलापन मुंबई के आसमान पर छा चुका था। ट्रेन की खिड़की से बाहर झाँकते हुए पावनी ने देखा कि शहर की रोशनी धीरे-धीरे जगमगाने लगी थी। ट्रेन देर हो गई थी—रास्ते में कहीं रुकावट की वजह से।

 

उसकी घड़ी में शाम के 6 बज चुके थे। अनाथालय की शांत शामों के बाद ये हलचल भरी दुनिया उसे किसी सपने जैसी लग रही थी, लेकिन इस सपने में डर का एक हल्का-सा रंग भी घुला हुआ था।

 

बेशक वो अपने फ्यूचर को लेकर एक्सआइटेड थी लेकिन फिर भी काफी कुछ चीजें वो लाइफ में पहली बार एक्सपीरियंस कर रही थी। ये नई सफर भी उसके इसी एक्सपीरियंस का हिस्सा बनने जा रहा था।

 

इसवक्त उसके हाथ में एक छोटा-सा टैबलेट था, जिसे उसने अपने सामान में पाया था। ट्रेन की हल्की-हल्की हलचल के बीच वो उस पर शांति जी की ड्रॉइंग बना रही थी। उसकी उंगलियाँ स्क्रीन पर धीरे-धीरे चल रही थीं, और शांति जी की मुस्कान धीरे-धीरे उभर रही थी। उसे याद आया कि कैसे अनाथालय से निकलने से पहले अपने कमरे में सामान पैक करते वक्त उसे एक गिफ्ट बॉक्स मिला था। 

 

उसमें ये टैबलेट रखा था, एक छोटे से नोट के साथ—"जन्मदिन मुबारक हो।" वो समझ गई थी कि ये जरूर शांति जी ने ही उसके लिए  पहले ही रख दिया होगा। क्योंकि स्क्रेच बुक, पेंसिल से लेकर एक्सपेंसिव कलर बॉक्स चाहे फिर उसे जो चीज चाहिए होती थी उसे उसके हर जन्मदिन पर सेम इसी तरह के नोट के साथ अपने कमरे में रखा हुआ मिलता था। 

 

उसे इसबार फ्री टाइम ड्रॉइंग के लिए एक टैब चाहिए थी और उसकी ये मुराद भी उसकी माँ ने जाते जाते पूरी कर दी थी।

 

"माँ, आपने सही कहा था आप हमेशा मेरे साथ ही हो, फिजिकली नही लेकिन एहसास है,  क्योंकि मेमोरिज हमेशा साथ रहती है। " उसने धीरे से बुदबुदाया। उसकी आँखों में नमी उतर गई थी।

 

टैबलेट पर शांति जी की आँखें अब पूरी हो चुकी थीं—वही गहरी, प्यार भरी आँखें जो उसे हमेशा हिम्मत देती थीं।

 

 उसने टैबलेट को बंद किया और उसे अपने बैग में रख लिया। ट्रेन की सीटी बजी। मुंबई सेंट्रल स्टेशन आ गया था। पावनी ने अपने दो लगेज़ और एक बैग को संभाला। एक लगेज़ में उसके कपड़े और किताबें थीं, दूसरा छोटा लेजेज शांति जी की यादों से भरा था—उनकी एक पुरानी शॉल, कुछ खत, और वो सिल्वर बॉक्स। पिगी बैग में उसका रोज़मर्रा का सामान था—फोन, टैबलेट, और थोड़े से पैसे। उसने लॉकेट को अपने गले में छुआ और प्लेटफॉर्म पर उतर गई। उतरते ही मानो भीड़ ने उसे घेर लिया। 

 

कुलियों की आवाज़ें, यात्रियों की धक्का-मुक्की, और हॉर्न का शोर—सब कुछ उसे अभिभूत कर रहा था।

 

 उसने ट्रेन से बाहर उतरते ही भीड़ से छँटकर  एक तरफ खड़ी हो गई फिर फोन निकाला और सबसे पहले रमा जी को कॉल किया। इतने में सामने से रमा जी ने फौरन उसका फोन उठा लिया था जैसे वो तो कब से इसी एक पल का इंतजार कर रही थी।

 

उसने पीठ पर बैग अच्छे से एडजेस्ट की फिर दोनों लगेज़ एक हाथ से सम्भालकर  बोली-  "काकी, मैं बहुत अच्छे से मुंबई पहुँच गई हूँ। अब आप प्लीज टेंशन फ्री हो जाइए ओके।”  ये कहते हुए वो चुपचाप बात करते हुए लेजेज सम्भालकर आगे बढ़ गई क्योंकि कुली उसके पास आकर उसे बहुत परेशान कर रहे थे।

 

वहीं रमा जी की आवाज़ में राहत थी। वो बोली- “ थैंक गॉड तुमने मुझे कॉल कर लिया पानु, पहले ही ट्रेन इतना लेट हो गया था मुझे तुम्हारी बहुत  फिक्र हो रही थी बेटा। अब जाकर जान में जान आई है मेरी।”

 

पावनी मन ही मन बोली-” जानती हूं काकी मैंने हमेशा सभी को  सिर्फ परेशानी ही तो दी है।” ये कहते हुए उसका पूरा चेहरा उदासी से भर गया था।

इतने में दूसरी तरफ से रमा जी बोली-” अच्छा सुनो सुनीता काकी के बारे में बताया था न मैंने तुम्हें तो वो तुम्हें लेने आई हैं। वो इसवक्त प्लेटफॉर्म 2 के पास होंगी। नीली साड़ी में। ध्यान रखना, बेटा , वो कल सुबह तुम्हें यूनिवर्सिटी तक ड्राप कर देगी ठीक है।"

 

पावनी इधर उधर नजर मारते हुए बोली-” ओके काकी , अच्छा निशान ,रिहा , दददू और बाकी सारे बच्चे कैसे है ? क्या रिहा ठीक है?”

 

रमा जी बोली-” हां यहां सब ठीक हैं, तुम बिल्कुल भी चिंता मत करो यहां की, हां कल रिहा थोड़ी उदास थी क्योंकि तुम कल सुबह उसे बिना मिले ही चली गई, वो जब नींद से जगी और तुम्हें पूरे घर में कहीं नहीं देखा तो रोने लगी। लेकिन अभी वो नॉर्मल हैं, निशान सभी बच्चों के पास ही बैठा है और उन्हें कहानियां सुना रहा है।”

 पावनी  ने एक गहरी सांस ली और बोली-” अच्छा ठीक है काकी , उस जोकर के रहते मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं है। अच्छा मुझे ना शायद सुनीता काकी दिख गई हैं, मैं आपसे बाद में बात करती हूं हां, प्लीज आप अपना खूब ख्याल रखियेगा।” 

 

रमा जी से बात करने के बाद पावनी ने फोन रखा और अपना लगेज़ घसीटते हुए प्लेटफॉर्म 2 की ओर बढ़ी। उसकी नज़र एक नीली साड़ी वाली महिला पर पड़ी। वो अपने फोन पर कुछ देख रही थीं।"सुनीता काकी?" पावनी ने पास आकर हिचकिचाते हुए पूछा।

 

"हाँ, बेटा। तुम पावनी हो न?" सुनीता काकी ने उसे देखते ही मुस्कुराते हुए कहा। उनकी आवाज़ में गर्मजोशी थी, जो पावनी को थोड़ा सुकून दे गई। उसने हामी भरते हुए हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया फिर सुनीता जी बोली- "सदा खुश रहो बेटा, आओ, घर चलते हैं।  सुबह मैं तुम्हें यूनिवर्सिटी छोड़ दूँगी रमा ने बताया था मुझे।"

 

फिर सुनीता काकी ने एक कुली को बुलाया, जिसने पावनी का सामान उठाया। स्टेशन के बाहर वो दोनों एक ऑटो में बैठ गए। रास्ते में सुनीता काकी ने उसे अपने घर के बारे में बताया—एक छोटा-सा फ्लैट, जहाँ वो अपने बेटे के साथ रहती थीं। "मेरा बेटा रवि बाहर काम करता है। शायद आज रात को भी वो नहीं आएगा।" उन्होंने कहा। 

 

पावनी ने हल्का-सा सिर हिलाया, लेकिन उसका ध्यान बाहर की सड़कों पर था। ऊँची इमारतें, चमचमाती लाइटें, और लोगों की भीड़—ये सब उसे किसी और दुनिया का हिस्सा लग रहा था।

 

आधे घंटे बाद ऑटो एक पुरानी-सी बिल्डिंग के सामने रुका। सुनीता काकी ने किराया दिया और पावनी को अंदर ले गईं। फ्लैट छोटा था—एक हॉल, एक किचन, और दो छोटे कमरे। दीवारों पर पेंट उखड़ा हुआ था, और हवा में हल्की-सी नमी की गंध थी। 

 

"ये तुम्हारा कमरा है, तुम हाथ मुह धोकर चेंज कर लो तब तक मैं तुम्हारे लिए कुछ खाने के लिए लगा देती हूं। फिर खाकर तुम आराम करना।" सुनीता काकी ने एक छोटे से कमरे की ओर इशारा किया। वहाँ एक पतली-सी चारपाई, एक पुरानी अलमारी, और एक टूटी हुई कुर्सी थी।

 

"थैंक्यू, काकी," पावनी ने कहा और अपना सामान कमरे में रख दिया। जब  फ्रेश हुई तो सुनीता काकी ने उसे खाना दिया—सादी रोटी और सब्ज़ी। भूख के बावजूद पावनी का मन भारी था। उसने खाना खाया और अपने कमरे में चली गई। 

 

रात के नौ बज चुके थे। उसने टैबलेट निकाला और शांति जी की ड्रॉइंग को फिर से देखा। "माँ, सुनीता काकी काफी नर्मदिल हैं उंन्होने इस नए शहर में मुझे सहारा दिया। लेकिन फिर भी ये शहर मुझे अपना शहर जैसा नहीं लग रहा है, ऐसा लग रहा है जैसे मैं अचानक किसी एलियन प्लेनेट में टलिपोर्ट हो गई हूं, आपको क्या लगता है माँ क्या मैं यहाँ रह पाऊँगी?" 

 

उसने टेबलेट बैग के अंदर रख दिया फिर अपने नेक में पहने लॉकेट को छुआ और बिस्तर पर लेट गई। वो थकान ने उसे जल्दी ही नींद में डुबो दिया।

 

रात का सन्नाटा अचानक एक तेज़ आवाज़ से टूटा। पावनी की नींद खुली। कमरे का दरवाज़ा ज़ोर से खुला था। उसने घड़ी देखी—रात के 11:30 बज रहे थे। अंधेरे में एक साया खड़ा था। उसकी साँसों से शराब की तेज़ गंध आ रही थी। पावनी का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसने उठने की कोशिश की, लेकिन उसका शरीर जैसे जड़ हो गया था।"कौन... कौन है वहाँ?" उसकी आवाज़ काँप रही थी।

 साये ने बिना एक शब्द कहें आगे कदम बढ़ाया। रोशनी में उसका चेहरा साफ हुआ—एक युवक, जिसके बाल बिखरे हुए थे और आँखें शराब के नशे के कारण बिल्कुल लाल। 

 

शायद वो सुनीता काकी का बेटा रवि था। वो अजीब तरह से पावनी को देखने लगा और वो लड़खड़ाते हुए आगे बढ़कर बोला-"तू... तू बहुत अच्छी लग रही है, मैं तुझे अब कहीं नहीं जाने दूंगा।" उसने हँसते हुए कहा और पावनी की ओर बढ़ा।

 

पावनी ने अपने आपको संभाला और जोर से चिल्लाई, "दूर रहो मुझसे! मैं चिल्लाऊँगी! काकी।" उसने बिस्तर से उठकर अपने बैग को ढाल की तरह आगे कर दिया। रवि ने उसकी बात को नज़रअंदाज़ किया और उसका हाथ पकड़ने की कोशिश की। "अरे, डर मत मैं सबकुछ बहुत प्यार से करूँगा, धीरे धीरे…” उसने कहा, उसकी साँसों की गंध पावनी के चेहरे पर पड़ी।

 

"छोड़ो मुझे! " पावनी ने पूरी ताकत से उसका हाथ झटका और उसे धक्का दे दिया। रवि लड़खड़ा कर दीवार से टकराया। उसका गुस्सा भड़क उठा। "तू... तू मुझे मारेगी? मैं सबकुछ आराम से करूँगा बोला था न तुझे?" वो फिर से उसकी ओर बढ़ा।

 लेकिन तभी सुनीता काकी की आवाज़ आई। "रवि! ये क्या कर रहा है तू?" वो दौड़ती हुई कमरे में आईं।

 

"माँ, ये लड़की... ये मुझे धक्का दे रही है, आप बताओ इसे मैं इससे कितना ज्यादा प्यार करता हूँ।" रवि ने नशे में बड़बड़ाया।

 

इसवक्त पावनी पीछे दीवार से लगकर अपने आपको हग करके खड़ी हुई थी।

 

सुनीता काकी ने पावनी की ओर देखा। "बेटा, क्या हुआ? क्या तुम ठीक हो?" उनकी आवाज़ में घबराहट थी।

 

"काकी,  ये आदमी मेरे साथ बदतमीज़ी करने की कोशिश कर रहा था। मैं अभी पुलिस को बुलाती हूँ, " पावनी ने गुस्से से कहा और अचानक बिस्तर से अपना फोन निकाल लिया।

 

लेकिन उसे ऐसा करता देखकर सुनीता काकी घबरा गईं। वो पावनी के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गईं। और लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोली- "पावनी, मुझ पर रहम करो बेटा। ये मेरा इकलौता बेटा है। नशे में ये ऐसा कर बैठा। इसे माफ कर दे, बेटा। मैं इसे समझाऊंगी कल ये तुमसे जब होश में आएगा तब नाक रगड़कर माफी मागेगा। लेकिन अभी पुलिस को मत बुला। मैं तुमसे भीख मांगती हूँ इसे माफ कर दे।" 

उनकी आँखों में आँसू थे। उनका बेटा वहीं नीचे फर्स पर नशें में चूर होकर लुढ़क चुका था। लेकिन पावनी का गुस्सा ठंडा नहीं हुआ था। 

 

उसने सुनीता काकी को देखा—एक माँ, जो अपने बेटे की गलती के लिए गिड़गिड़ा रही थी। लेकिन उसका मन चीख रहा था। वो बोली-"काकी, आपकी मजबूरी मैं समझती हूँ। लेकिन मैं यहाँ सुरक्षित नहीं हूँ। मुझे माफ करें, मैं यहाँ नहीं रह सकती।" उसने तेज़ी से अपने लेजेज और बैग उठाए। 

 

रवि अब भी बड़बड़ा रहा था।" तुम मुझे इस तरह से छोड़कर नहीं जा सकती आखिर क्या कमी रह गई थी मेरे प्यार में जो  तुम चली गई। “

 

पावनी का जी चाह रहा था वो अभी इस आदमी को जान से मार दे। इसकी हिम्मत भी कैसे हुई उसके बारे में ऐसी बकवास करने की। लेकिन फिर वो एक माँ के बेबस चेहरे को देखकर रुक गई और वो वहां से चुपचाप आगे बढ़ गई।

 

इतने में सुनीता ने आकर उसकी बाह थामी और उसे रोकते हुए बोली-”  रुक जा बेटा इतनी रात को कहाँ जाओगी? रुक जाओ, तुम्हें तो इस शहर के बारे में कुछ भी नहीं पता,  मैं इसे कल सुबह तक कमरे में बंद कर दूँगी, प्लीज मेरी बात मान लो।" सुनीता काकी ने रोते हुए कहा।

 

"नहीं, काकी। मुझे अब किसी पर भरोसा नहीं रहा, प्लीज ये बात मेरी काकी को मत बताना वरना वो कल सुबह की फ्लाइट से यहां मुंबई आ जाएगी, आओ चिंता मत कीजिये मैं कल सुबह खुद यूनिवर्सिटी पहुचकर उन्हें इन्फॉर्म कर दूंगी की आपने मुझे सही सलामत वहां छोड़ दिया।" 

 

पावनी ने उनका हाथ अपने बाजू  से साइड हटाया फिर अपने आँसू पोंछे और दरवाज़े की ओर बढ़ी। उसका दिल भारी था, लेकिन उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

 

 सुनीता की आवाज़ धीमी होती गई—"पावनी, रुक जाओ बेटा भगवान के लिए मुझपर ये पाप मत चढ़ाओ..." लेकिन वो तबतक जा चुकी थी।

 

रात के  12 बज रहे थे। पावनी सड़क पर बस चले ही जा रही थी, अपने  लेजेज को घसीटते हुए। सड़क सुनसान थी। दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आ रही थी। उसका फोन बैटरी कम होने की वजह से पहले ही बंद हो चुका था। उसके पास  अब कोई ठिकाना नहीं  था, कैश भी बहुत कम ही थे बाकी उसके अकाउंट में था और वो अक्सर ऑनलाइन ट्रांजैक्शन ही किया करती थी। जो फिलहाल वो नहीं कर सकती थी।

 

उसने हल्के से  लॉकेट को छूते हुए उसने कहा, "माँ, अब क्या करूँ? आपने कहा था कि मुझमें ताकत है। लेकिन अभी तो मैं टूट रही हूँ।"तभी दूर से एक ऑटो की रोशनी दिखाई दी। पावनी ने हिम्मत जुटाई और हाथ उठाया। ऑटो रुका। "कहाँ जाना है, मैडम?" ड्राइवर ने पूछा।

 

लेकिन पावनी अचानक कुछ सोचकर पीछे हट गई और उसने कहा-” कहीं नहीं भाई आप जो मुझे कहीं भी नहीं जाना है।” ये कहकर वो तेजी से आगे की तरफ बढ़ गई।

 

वो ऑटो वाला बुदबुदाया-” क्या अजीब लड़की है।, अगर जाना ही नही था तो फिर रोका क्यों।” फिर वो वहां से आगे बढ़ गया।

वहीं इसवक्त एक आलीशान स्टडी रूम में सिर्वेश बैठा हुआ था। उसके सामने एक बड़े से लकड़ी के मेज पर वेद ,पुराण और भी न जाने कितने सारे ऐतिहासिक ग्रथों का ढेर लगा हुआ था। जिनमें वो लगभग डूबा हुआ था।।

 

इसवक्त वो कुछ आयुर्विज्ञान से सम्बंधित ग्रन्थ पढ़ रहा था। लेकिन इतने में अचानक तेज तेज हवा चलने लगे जिससे उसके सामने के सभी किताबों के पनन्ने तेज तेज पलटने लगे और उसकी आंखें एक झटके में ही बन्द हो गई ।

 

उसके गले में पहने उस नेकलेस से तेज नीली रोशनी चमकने लगी। उसने तेजी से अपनी आंखें खोली और उसकी सिल्वर कलर की आंखों में जैसे चिंगारी फूटने लगी थी। वो बेहद शांत था लेकिन ये शांति किसी बड़े तूफ़ान के आने से पहले वाली शांति थी।

उसने अपना सिर झटका और अपने हाथों की मुठियां जोर से  बंद कर ली फिर अगले ही पल उठकर साइड से एक ब्लैक मास्क लेते हुए उस कमरे से तेजी से बाहर निकल गया।  

हवा से पन्ने अभी भी उस कमरे में फड़फड़ा रहे थे।