Amavasya ki Kali Raat in Hindi Horror Stories by Vedant Kana books and stories PDF | अमावस्या की काली रात

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अमावस्या की काली रात

उस पुराने गाँव के किनारे, जहाँ घने पीपल के पेड़ अपनी काली शाखाएँ आसमान की ओर फैलाते थे, एक हवेली खड़ी थी, जिसकी टूटी खिड़कियों से रात को सिर्फ ठंडी हवा नहीं, बल्कि किसी अनजाने भय की फुसफुसाहट भी आती थी। कहते हैं, उस हवेली में अमावस्या की रात को कोई दीपक नहीं जलाता, क्योंकि वहाँ जो रोशनी जलती है, वो इंसानों की नहीं, किसी और की होती है। गाँव के बुजुर्ग अक्सर बच्चों को चेतावनी देते, “उस रात घर से बाहर मत निकलना, वरना तुम वापस लौटकर शायद इंसान ही न रहो।”

वो अमावस्या की रात थी। आसमान में चाँद का नामोनिशान नहीं, बस काले बादलों का एक सागर, जिसमें कहीं-कहीं लाल चमक सी उठ रही थी। चारों ओर इतनी खामोशी थी कि अपने दिल की धड़कन भी कानों में गूंज रही थी। हवेली के भीतर, लंबे-लंबे गलियारों में चिरकुट की गंध फैली हुई थी। दीवारों पर पुरानी पेंटिंग्स के चेहरे धुंधले पड़ गए थे, लेकिन उनकी आँखें अब भी किसी को घूरती हुई लगती थीं।

अचानक एक कमरा खुला। उसके अंदर एक पुरानी चारपाई पड़ी थी, जिस पर सूखे फूल और राख बिखरी हुई थी। कोने में मिट्टी से भरा एक मटका रखा था, लेकिन उससे हल्की-हल्की कराहने की आवाज़ आ रही थी, जैसे कोई अंदर कैद हो। नजदीक जाते ही मटके की सतह पर दरारें पड़ने लगीं, और उसके बीच से काले धुएँ की पतली लकीर ऊपर उठी, जो धीरे-धीरे इंसानी शक्ल लेने लगी। उसके चेहरे पर आँखें नहीं थीं, बस गहरी काली खोह, जिसमें झाँकते ही ठंडी लपटों का अहसास होता था।

वो आकृति दीवारों के साथ बहने लगी, और हवा अचानक ठंडी बर्फ जैसी हो गई। गलियारे में रखे एक पुराने झूले ने अपने आप हिलना शुरू कर दिया। बाहर पीपल के पेड़ से एक कौआ चीखा, और उसी पल हवेली की सारी दरवाजे एक साथ बंद हो गए। चारों ओर सन्नाटा, लेकिन उस सन्नाटे में एक धीमी आवाज़ उभरने लगी—किसी के कदमों की, जो मिट्टी पर नहीं, बल्कि तुम्हारी आत्मा के भीतर गूंज रहे हों।

फिर वो आकृति बोली, “तुमने मुझे ढूंढा, अब लौट नहीं पाओगे।” अचानक मटके के पास पड़ी राख हवा में उड़कर चारों ओर फैल गई, और उसमें से कई पतली, हड्डियों जैसी उंगलियाँ बाहर निकल आईं। वो हाथ दीवारों पर, छत पर, और यहाँ तक कि ज़मीन से भी रेंगते हुए पास आने लगे।

अचानक एक ज़ोर की चीख हवेली में गूंजी, और सबकुछ अंधेरा हो गया। जब आँखें खुलीं, तो बस एक टूटा मटका और राख का ढेर बचा था। लेकिन जो सबसे भयावह था, वो ये कि हवेली की खिड़की में अब तुम्हारा चेहरा दिखाई दे रहा था, और वो मुस्कुरा रहा था... बिना आँखों के।

गाँव वाले कहते हैं, जो भी अमावस्या की रात उस हवेली में गया, उसकी आत्मा वहीं कैद हो जाती है, और अगली अमावस्या को वो किसी और को बुलाने बाहर आता है। और इस बार... हवेली के बाहर कदमों की आहट सुनाई दे रही है।

उस रात के बाद गाँव में अजीब बातें होने लगीं। हर शाम जैसे ही सूरज ढलता, हवेली की टूटी खिड़कियों से हल्की-हल्की लाल रोशनी बाहर आने लगती। कभी-कभी उस रोशनी में किसी के साए दिखते—लंबे, टेढ़े, और इंसानों जैसे, लेकिन चाल ऐसी मानो हड्डियाँ चरमराती हुई खिंच रही हों। बच्चे अब खुले आँगन में खेलने से डरने लगे थे, और बूढ़े भी दरवाजे पर दीया जलाकर मंत्र बुदबुदाते रहते।

एक रात, बूढ़ा पंडित रामकिशन, जिसने अपने जीवन में अनगिनत तांत्रिक विधियाँ देखी थीं, ने ठान लिया कि वो हवेली का सच जानेगा। हाथ में एक पुरानी लोहे की त्रिशूल, गले में तुलसी की माला, और एक पीतल का घंटा लेकर वह हवेली की ओर बढ़ा। जैसे ही उसने दहलीज़ पार की, हवा का बहाव रुक गया। चारों ओर इतना गहरा सन्नाटा था कि अपने पैरों की आहट भी डराने लगी।

हवेली के भीतर घुसते ही, उसकी नज़र गलियारे में पड़े एक आईने पर पड़ी। आईना टूटा हुआ था, लेकिन हर टुकड़े में अलग-अलग दृश्य दिखाई दे रहे थे—कहीं एक औरत अपने बाल खींच रही थी, कहीं एक आदमी बिना सिर के दरवाज़े पर खड़ा था, और कहीं एक बच्चा फर्श पर रेंग रहा था, जिसकी पीठ पर गहरे पंजों के निशान थे। पंडित ने मुँह फेर लिया, लेकिन तभी घंटा अपने आप बजने लगा, जबकि उसके हाथ स्थिर थे।

आवाज़ के साथ-साथ दीवारों से हल्की-हल्की फुसफुसाहट आने लगी। “तू भी रह जाएगा… तेरी आत्मा हमें चाहिए…” पंडित ने मंत्रोच्चार शुरू किया, लेकिन जितना तेज़ वो मंत्र बोलता, उतना ही ज़ोर से हवेली के अंदर का शोर बढ़ने लगा। अचानक, अंधेरे से वही काली आकृति उभरी, जो पिछली अमावस्या में देखी गई थी। इस बार उसके साथ और भी परछाइयाँ थीं—हर एक के चेहरे पर वही डरावनी मुस्कान, बिना आँखों के।

पंडित ने त्रिशूल उठाया, लेकिन जमीन से उभरते काले हाथों ने उसके पैरों को पकड़ लिया। उसकी चीख हवेली में गूंज उठी, और जैसे ही आवाज़ बंद हुई, हवेली फिर से सन्नाटे में डूब गई।

अगली सुबह, गाँव वालों ने हवेली के दरवाजे के पास पंडित का घंटा और त्रिशूल देखा… और खिड़की में अब एक नया चेहरा जुड़ चुका था। पंडित रामकिशन का। उसकी मुस्कान पहले जैसी थी… और आँखें अब भी नहीं थीं।

गाँव वाले सोचते थे कि हवेली का श्राप बस उसी जगह तक सीमित है, लेकिन वे नहीं जानते थे कि असली डर तो अभी शुरू हुआ है। पंडित रामकिशन के गायब होने के बाद, हर अमावस्या की रात सिर्फ हवेली नहीं, बल्कि पूरे गाँव में अजीब घटनाएँ होने लगीं। कुओं का पानी लाल हो जाता, घरों की छत पर रात को किसी के दौड़ने की आवाज़ आती, और कभी-कभी दरवाज़ों पर तीन गहरे पंजों के निशान पाए जाते।

उस अमावस्या, गाँव के बाहर जंगल की पगडंडी पर एक बैलगाड़ी लौट रही थी। अँधेरे में बैलगाड़ी के पीछे एक परछाईं चुपचाप चल रही थी न इंसान, न जानवर, बस एक लंबा काला साया जो ज़मीन को छू भी नहीं रहा था। बैलगाड़ी वाला जैसे ही गाँव के पास पहुँचा, उसने देखा कि पूरे गाँव में कोई दीया नहीं जल रहा। हर घर का दरवाज़ा खुला था, और अंदर गहरी खामोशी पसरी हुई थी।

जब उसने हवेली की ओर देखा, तो वहाँ अब लाल नहीं, बल्कि काली धुंध पूरे आसमान तक फैली हुई थी। हवेली की खिड़कियों में अब न जाने कितने चेहरे थे। पुरुष, औरतें, बच्चे सबके चेहरों पर वही अजीब मुस्कान, और खाली गहरे गड्ढों जैसी आँखें। सबसे आगे पंडित रामकिशन खड़ा था, उसके हाथ में घंटा था, लेकिन वो अब मंत्र नहीं, बल्कि किसी अज्ञात भाषा में कुछ बुदबुदा रहा था।

अचानक हवेली का मुख्य दरवाज़ा अपने आप खुला, और अंदर से सैकड़ों परछाइयाँ बाहर निकल आईं। वो परछाइयाँ गाँव के हर घर में फैल गईं, और कुछ ही पलों में पूरे गाँव में इंसानी आवाज़ें बंद हो गईं। हवा में सिर्फ एक आवाज़ गूंज रही थी। हवेली की खिड़की से आती धीमी हँसी।

सुबह जब पास के कस्बे के लोग गाँव में आए, तो उन्हें सिर्फ खाली घर और खुले दरवाज़े मिले। लेकिन हर घर की दीवार पर कोयले से एक ही वाक्य लिखा था—“अगली अमावस्या… तुम्हारी बारी है।”

कहते हैं, अब वो हवेली अकेली नहीं है। हर अमावस्या को उसकी परछाईं किसी नए गाँव की ओर बढ़ती है, और अगला गाँव कौन होगा… ये कोई नहीं जानता।