आज अमृता प्रीतम जी का 106 वां जन्मदिवस है और उनके जन्मदिवस पर मैं आप सबके लिए उनसे जुड़ी थोड़ी बहुत जानकारी यहां शेयर करने वाली हूं, जो की मैंने गूगल के माध्यम से इक्कठी की है। मेरी प्रिय लेखिका और उनके जीवन से रिलेटेड कुछ बातें ..........
अमृता प्रीतम 20 सदीं की एक महान कवियत्री और उपन्यासकार ही नहीं बल्कि एक प्रख्यात निबंधकार भी थी, जिन्होंने पंजाबी कविता एवं साहित्य को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान दिलवाई है। वे पंजाबी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कवियित्री थी, जिनकी रचनाओं का विश्व की कई अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
31 अगस्त, 1919 को गुजरांवाला, पंजाब (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मीं अमृता प्रीतम जी ने अपनी रचनाओं में तलाकशुदा महिलाओं की पीड़ा एवं वैवाहिक जीवन के कटु सत्य को बेहद भावनात्मक तरीके से बताया है।
अपने जीवन में करीब 100 किताबें लिखने वाली महान कवियित्री अमृता प्रीतम जी को उनकी महत्वपूर्ण रचनाओं के लिए कई बड़े पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है, तो चलिए जानते हैं अमृता प्रीतम जी द्धारा लिखित उनकी महत्वपूर्ण कृतियां एवं उनके जीवन से जुड़ी कुछ अहम बातों के बारे में –
पूरा नाम (Name)अमृता प्रीतम (Amrita Pritam)
जन्म (Birthday)31 अगस्त, 1919, गुजराँवाला,
पंजाब (वर्तमान पाकिस्तान)
मृत्यु (Death)31 अक्टूबर, 2005, दिल्ली, भारत
अद्भुत प्रतिभा की धनी अमृता प्रीतम जी उन महान साहित्यकारों में से एक थीं, जिनका महज 16 साल की उम्र में ही पहला संकलन प्रकाशित हो गया था। 1947 में अमृता प्रीतम जी ने भारत-पाकिस्तान के बंटवारे को बेहद करीब से देखा था और इसकी पीड़ा महसूस की थी।
उन्होंने 18 वीं सदी में लिखी अपनी कविता ”आज आखां वारिस शाह नु” में भारत-पाक विभाजन के समय में अपने गुस्से को इस कविता के माध्यम से दिखाया था, साथ ही इसके दर्द को बेहद भावनात्मक तरीके से अपनी इस रचना में पिरोया था।
उनकी यह कविता काफी मशहूर भी हुई थी और इसने उन्हें साहित्य में एक अलग पहचान दिलवाई थी। आजादी मिलने के बाद भारत-पाक बंटबारे के समय इस महान कवियित्री अमृता प्रीतम जी का परिवार भारत की राजधानी दिल्ली में आकर बस गया, हालांकि भारत आने के बाद भी उनकी लोकप्रियता पर कोई फर्क नहीं पड़ा, भारत-पाक दोनों ही देश के लोग उनकी कविताओं को उतना ही पसंद करते थे, जितना कि वे विभाजन से पहले करते थे।
भारत आने के बाद अमृता प्रीतम जी ने पंजाबी भाषा के साथ-साथ हिन्दी भाषा में लिखना शुरु कर दिया।
पंजाबी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कवियित्री अमृता प्रीतम जी 31 अगस्त 1919 में गुजरांवाला पंजाब, (जो कि अब पाकिस्तान में है) में जन्मीं थी। इनकी शिक्षा लाहौर से हुई। बचपन से ही उन्हें पंजाबी भाषा में कविता, कहानी और निबंध लिखने में बेहद दिलचस्पी थी, उनमें एक कवियित्री की झलक बचपन से ही ही दिखने लगी थी।
वहीं जब यह महज 11 साल की थी, तब इन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा, उनके सिर से मां का साया हमेशा के लिए उठा गया, जिसके बाद उनके नन्हें कंधों पर घर की सारी जिम्मेदारी आ गई। इस तरह इनका बचपन जिम्मेदारियों के बोझ तले दब गया।
पंजाबी साहित्य को अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाने वाली इस मशहूर लेखिका का विवाह महज 16 साल की उम्र में प्रीतम सिंह से हुआ था, हालांकि उनकी यह शादी काफी दिनों तक नहीं चल पाई थी। सन् 1960 में अमृता जी का अपने पति के साथ तलाक हो गया था।
वहीं अमृता प्रीतम जी की आत्म कथा रशीदी टिकट के मुताबिक प्रीतम सिंह से तलाक के बाद कवि साहिर लुधिंवी के साथ उनकी नजदीकियां बढ़ गईं, लेकिन फिर जब साहिर की जिंदगी में गायिका सुधा मल्होत्रा आ गई, उस दौरान अमृता प्रीतम जी की मुलाकात आर्टिस्ट और लेखक इमरोज से हुई है, जिनके साथ उन्होंने अपना बाकी जीवन व्यतीत किया।
अमृता इमरोज़: ए लव स्टोरी नाम की एक किताब भी लिखी गयी है। अमृता प्रीतम के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने ही लिव-इन-रिलेशनशिप की शुरुआत की थी।
पंजाबी भाषा की सर्वश्रेष्ठ एवं लोकप्रिय कवियित्री अमृता प्रीतम जी की गिनती उन साहित्यकारों में होती है, जिनकी रचनाओं का विश्व की कई अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद किया गया है। अमृता जी ने अपनी रचनाओं में सामाजिक जीवन दर्शन का बेबाक एवं बेहद रोमांचपूर्ण वर्णन किया है।
उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं पर अपनी खूबसूरत लेखनी चलाई हैं। अमृता जी की रचनाओं में उनके लेखन की गंभीरता और गहराई साफ नजर आती है। विलक्षण प्रतिभा की धनी इस महान कवियित्री ने अपनी रचनाओं में तलाकशुदा महिलाओं की पीड़ा एवं शादीशुदा जीवन के कड़वे अनुभवों का व्याख्या बेहद खूबसूरती से की है।
अमृता प्रीतम जी द्धारा रचित उपन्यास ‘पिंजर’ पर साल 1950 में एक अवार्ड विनिंग फिल्म पिंजर भी बनी थी, जिसने काफी लोकप्रियता हासिल की थी। आपको बता दें कि अमृता प्रीतम जी ने अपने जीवन में करीब 100 किताबें लिखीं थी, जिनमें से इनकी कई रचनाओं का अनुवाद विश्व की कई अलग-अलग भाषाओं में किया गया था। अमृता प्रीतम जी द्धारा लिखित उनकी कुछ प्रमुख रचनाएं इस प्रकार है –
उपन्यास – पिंजर, कोरे कागज़, आशू, पांच बरस लंबी सड़क उन्चास दिन, अदालत, हदत्त दा जिंदगीनामा, सागर, नागमणि, और सीपियाँ, दिल्ली की गलियां, तेरहवां सूरज, रंग का पत्ता, धरती सागर ते सीपीयां, जेबकतरे, पक्की हवेली, कच्ची सड़क।
आत्मकथा – रसीदी टिकट।
कहानी संग्रह : कहानियों के आंगन में, कहानियां जो कहानियां नहीं हैं।
संस्मरण : एक थी सारा, कच्चा आँगन।
कविता संग्रह : चुनी हुई कविताएं।
अद्धितीय एवं विलक्षण प्रतिभा वाली महान कवियित्री अमृता प्रीतम जी को उनकी अद्भुत रचनाओं के लिए कई अंतराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। आपको बता दें कि 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित यह पहली पंजाबी महिला थी।
इसके साथ ही भारत के महत्वपूर्ण पुरस्कार पद्म श्री हासिल करने वाली भी यह पहली पंजाबी महिला थी। इसके अलावा इन्हें पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्धारा पुरस्कार समेत ज्ञानपीठ आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। अमृता प्रीतम जी के दिए गए पुरस्कारों की सूची निम्नलिखित है –
साहित्य अकादमी पुरस्कार (1956)
पद्मश्री (1969)
पद्म विभूषण (2004)
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार (1982)
बल्गारिया वैरोव पुरस्कार (बुल्गारिया – 1988)
डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (दिल्ली युनिवर्सिटी- 1973)
डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (जबलपुर युनिवर्सिटी- 1973)
फ्रांस सरकार द्वारा सम्मान (1987)
डॉक्टर ऑफ लिटरेचर (विश्व भारती शांतिनिकेतन- 1987)
काफी लंबी बीमारी के चलते 31 अक्टूबर 2005 को 86 साल की उम्र में उनका देहांत हो गय़ा। इस तरह महान कवियित्री अमृता प्रीतम जी की कलम हमेशा के लिए रुक गई।
वहीं आज अमृता प्रीतम भले ही इस दुनिया में नहीं है, लेकिन आज भी उनके द्धारा लिखित उनके उपन्यास, कविताएं, संस्मरण, निबंध, उनकी मौजूदगी का एहसास करवाते हैं।
आइए पेश करते हैं इनकी कविताओं के कुछ अंश....
”आज आखां वारिस शाह नु”
अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ
कित्थों क़बरां विच्चों बोल
ते अज्ज किताब-ए-इश्क़ दा कोई अगला वरका फोल
इक रोई सी धी पंजाब दी तू लिख-लिख मारे वैन
अज्ज लक्खां धीयाँ रोंदियाँ तैनू वारिस शाह नु कैन
उठ दर्दमंदां देआ दर्देया उठ तक्क अपना पंजाब
अज्ज बेले लाशां बिछियाँ ते लहू दी भरी चनाब
हिंदी ट्रांसलेशन
(आज मैं वारिस शाह से कहती हूँ, अपनी क़ब्र से बोल,
और इश्क़ की किताब का कोई नया पन्ना खोल,
पंजाब की एक ही बेटी (हीर) के रोने पर तूने पूरी गाथा लिख डाली थी,
देख, आज पंजाब की लाखों रोती बेटियाँ तुझे बुला रहीं हैं,
उठ! दर्दमंदों को आवाज़ देने वाले! और अपना पंजाब देख,
खेतों में लाशें बिछी हुईं हैं और चेनाब लहू से भरी बहती है )
कविता कोश से कुछ कवताएं.....
1. दावत
रात-कुड़ी ने दावत दी
सितारों के चावल फटक कर
यह देग किसने चढ़ा दी
चाँद की सुराही कौन लाया
चाँदनी की शराब पीकर
आकाश की आँखें गहरा गयीं
धरती का दिल धड़क रहा है
सुना है आज टहनियों के घर
फूल मेहमान हुए हैं
आगे क्या लिखा है
आज इन तक़दीरों से
कौन पूछने जायेगा...
उम्र के काग़ज़ पर —
तेरे इश्क़ ने अँगूठा लगाया,
हिसाब कौन चुकायेगा !
क़िस्मत ने एक नग़मा लिखा है
कहते हैं कोई आज रात
वही नग़मा गायेगा
कल्प-वृक्ष की छाँव में बैठकर
कामधेनु के छलके दूध से
किसने आज तक दोहनी भरी !
हवा की आहें कौन सुने,
चलूँ, आज मुझे
तक़दीर बुलाने आई है...
2. कुफ़्र
आज हमने एक दुनिया बेची
और एक दीन ख़रीद लिया
हमने कुफ़्र की बात की
सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली
आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली
यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे
3. रोजी
रोजी / अमृता प्रीतम
अमृता प्रीतम »
नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता है
सपने — जैसे कई भट्टियाँ हैं
हर भट्टी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है
तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे कोई हथेली पर
एक वक़्त की रोजी रख दे।
जो ख़ाली हँडिया भरता है
राँध-पकाकर अन्न परसकर
वही हाँडी उलटा रखता है
बची आँच पर हाथ सेकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और खुदा का शुक्र मनाता है।
रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुआँ इस उम्मीद पर निकलता है
जो कमाना है वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है...
4. मुकाम
क़लम ने आज गीतों का क़ाफ़िया तोड़ दिया
मेरा इश्क़ यह किस मुकाम पर आ गया है
देख नज़र वाले, तेरे सामने बैठी हूँ
मेरे हाथ से हिज्र का काँटा निकाल दे
जिसने अँधेरे के अलावा कभी कुछ नहीं बुना
वह मुहब्बत आज किरणें बुनकर दे गयी
उठो, अपने घड़े से पानी का एक कटोरा दो
राह के हादसे मैं इस पानी से धो लूंगी...
5. राजनीति
सुना है राजनीति एक क्लासिक फिल्म है
हीरो: बहुमुखी प्रतिभा का मालिक
रोज अपना नाम बदलता है
हीरोइन: हकूमत की कुर्सी वही रहती है
ऐक्स्ट्रा: लोकसभा और राजसभा के मैम्बर
फाइनेंसर: दिहाड़ी के मज़दूर,
कामगर और खेतिहर
(फाइनांस करते नहीं,
करवाये जाते हैं)
संसद: इनडोर शूटिंग का स्थान
अख़बार: आउटडोर शूटिंग के साधन
यह फिल्म मैंने देखी नहीं
सिर्फ़ सुनी है
क्योंकि सैन्सर का कहना है —
'नॉट फॉर अडल्स।'
6.चुप की साज़िश
रात ऊँघ रही है...
किसी ने इन्सान की
छाती में सेंध लगाई है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है।
चोरों के निशान —
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आँख देखती नहीं,
न चौंकती है।
सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह
एक ज़ंजीर से बँधी
किसी वक़्त किसी की
कोई नज़्म भौंकती है।
7.मेरा पता
आज मैंने
अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा
गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की
दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की,
हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, यह एक वर है
और जहाँ भी
आज़ाद रूह की झलक पड़े
— समझना वह मेरा घर है।
8.आदि स्मृति
काया की हक़ीक़त से लेकर —
काया की आबरू तक मैं थी,
काया के हुस्न से लेकर —
काया के इश्क़ तक तू था।
यह मैं अक्षर का इल्म था
जिसने मैं को इख़लाक दिया।
यह तू अक्षर का जश्न था
जिसने 'वह' को पहचान लिया,
भय-मुक्त मैं की हस्ती
और भय-मुक्त तू की, 'वह' की
मनु की स्मृति
तो बहुत बाद की बात है...
9. अश्वमेध यज्ञ
एक चैत की पूनम थी
कि दूधिया श्वेत मेरे इश्क़ का घोड़ा
देश और विदेश में विचरने चला...
सारा शरीर सच-सा श्वेत
और श्यामकर्ण विरही रंग के...
एक स्वर्णपत्र उसके मस्तक पर
'यह दिग्विजय घोड़ा –
कोई सबल है तो इसे पकड़े और जीते'
और जैसे इस यज्ञ का एक नियम है
वह जहाँ भी ठहरा
मैंने गीत दान किये
और कई जगह हवन रचा
सो जो भी जीतने को आया वह हारा।
आज उमर की अवधि चुक गई है
यह सही-सलामत मेरे पास लौटा है,
पर कैसी अनहोनी –
कि पुण्य की इच्छा नहीं,
न फल की लालसा बाक़ी
यह दूधिया श्वेत मेरे इश्क़ का घोड़ा
मारा नहीं जाता - मारा नहीं जाता
बस सही-सलामत रहे,
पूरा रहे!
मेरा अश्वमेध यज्ञ अधूरा है,
अधूरा रहे!
10. दाग़
मौहब्बत की कच्ची दीवार
लिपी हुई, पुती हुई
फिर भी इसके पहलू से
रात एक टुकड़ा टूट गिरा
बिल्कुल जैसे एक सूराख़ हो गया
दीवार पर दाग़ पड़ गया...
यह दाग़ आज रूँ रूँ करता,
या दाग़ आज होंट बिसूरे
यह दाग़ आज ज़िद करता है...
यह दाग़ कोई बात न माने
टुकुर टुकुर मुझको देखे,
अपनी माँ का मुँह पहचाने
टुकुर टुकुर तुझको देखे,
अपने बाप की पीठ पहचाने
टुकुर टुकुर दुनिया को देखे,
सोने के लिए पालना मांगे,
दुनिया के कानूनों से
खेलने को झुनझुना मांगे
माँ! कुछ तो मुँह से बोल
इस दाग़ को लोरी सुनाऊँ
बाप! कुछ तो कह,
इस दाग़ को गोद में ले लूँ
दिल के आँगन में रात हो गयी,
इस दाग़ को कैसे सुलाऊँ!
दिल की छत पर सूरज उग आया
इस दाग़ को कहाँ छुपाऊँ!
11.निवाला
जीवन-बाला ने कल रात
सपने का एक निवाला तोड़ा
जाने यह खबर किस तरह
आसमान के कानों तक जा पहुँची
बड़े पंखों ने यह ख़बर सुनी
लंबी चोंचों ने यह ख़बर सुनी
तेज़ ज़बानों ने यह ख़बर सुनी
तीखे नाखूनों ने यह खबर सुनी
इस निवाले का बदन नंगा,
खुशबू की ओढ़नी फटी हुई
मन की ओट नहीं मिली
तन की ओट नहीं मिली
एक झपट्टे में निवाला छिन गया,
दोनों हाथ ज़ख्मी हो गये
गालों पर ख़राशें आयीं
होंटों पर नाखूनों के निशान
मुँह में निवालों की जगह
निवाले की बाते रह गयीं
और आसमान में काली रातें
चीलों की तरह उड़ने लगीं...
12. साल मुबारक!
जैसे सोच की कंघी में से
एक दंदा टूट गया
जैसे समझ के कुर्ते का
एक चीथड़ा उड़ गया
जैसे आस्था की आँखों में
एक तिनका चुभ गया
नींद ने जैसे अपने हाथों में
सपने का जलता कोयला पकड़ लिया
नया साल कुझ ऐसे आया...
जैसे दिल के फ़िक़रे से
एक अक्षर बुझ गया
जैसे विश्वास के काग़ज़ पर
सियाही गिर गयी
जैसे समय के होंटो से
एक गहरी साँस निकल गयी
और आदमज़ात की आँखों में
जैसे एक आँसू भर आया
नया साल कुछ ऐसे आया...
जैसे इश्क़ की ज़बान पर
एक छाला उठ आया
सभ्यता की बाँहों में से
एक चूड़ी टूट गयी
इतिहास की अंगूठी में से
एक नीलम गिर गया
और जैसे धरती ने आसमान का
एक बड़ा उदास-सा ख़त पढ़ा
नया साल कुछ ऐसे आया...
13.ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी!
ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी!
एक बार अचानक – तू आया
वक़्त बिल्कुल हैरान
मेरे कमरे में खड़ा रह गया।
साँझ का सूरज अस्त होने को था,
पर न हो सका
और डूबने की क़िस्मत वो भूल-सा गया...
फिर आदि के नियम ने एक दुहाई दी,
और वक़्त ने उन खड़े क्षणों को देखा
और खिड़की के रास्ते बाहर को भागा...
वह बीते और ठहरे क्षणों की घटना –
अब तुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और शायद वक़्त को भी
फिर वह ग़लती गवारा नहीं
अब सूरज रोज वक़्त पर डूब जाता है
और अँधेरा रोज़ मेरी छाती में उतर आता है...
पर बीते और ठहरे क्षणों का एक सच है –
अब तू और मैं मानना चाहें या नहीं
यह और बात है।
पर उस दिन वक़्त
जब खिड़की के रास्ते बाहर को भागा
और उस दिन जो खून
उसके घुटनों से रिसा
वह खून मेरी खिड़की के नीचे
अभी तक जमा हुआ है...
14. नागपंचमी
मेरा बदन एक पुराना पेड़ है...
और तेरा इश्क़ नागवंशी –
युगों से मेरे पेड़ की
एक खोह में रहता है।
नागों का बसेरा ही पेड़ों का सच है
नहीं तो ये टहनियाँ और बौर-पत्ते –
देह का बिखराव होता है...
यूँ तो बिखराव भी प्यारा
अगर पीले दिन झड़ते हैं
तो हरे दिन उगते हैं
और छाती का अँधेरा
जो बहुत गाढ़ा है
– वहाँ भी कई बार फूल जगते हैं।
और पेड़ की एक टहनी पर –
जो बच्चों ने पेंग डाली है
वह भी तो देह की रौनक़...
देख इस मिट्टी की बरकत –
मैं पेड़ की योनि में आगे से दूनी हूँ
पर देह के बिखराव में से
मैंने घड़ी भर वक़्त निकाला है
और दूध की कटोरी चुराकर
तुम्हारी देह पूजने आई हूँ...
यह तेरे और मेरे बदन का पुण्य है
और पेड़ों को नगी बिल की क़सम है
और – बरस बाद
मेरी ज़िन्दगी में आया –
यह नागपंचमी का दिन है...
15.ख़ाली जगह
सिर्फ़ दो रजवाड़े थे –
एक ने मुझे और उसे
बेदखल किया था
और दूसरे को
हम दोनों ने त्याग दिया था।
नग्न आकाश के नीचे –
मैं कितनी ही देर –
तन के मेंह में भीगती रही,
वह कितनी ही देर
तन के मेंह में गलता रहा।
फिर बरसों के मोह को
एक ज़हर की तरह पीकर
उसने काँपते हाथों से
मेरा हाथ पकड़ा!
चल! क्षणों के सिर पर
एक छत डालें
वह देख! परे – सामने उधर
सच और झूठ के बीच –
कुछ ख़ाली जगह है...
16.माया
अप्सरा ओ अप्सरा!
शहज़ादी ओ शहज़ादी!
विंसेण्ट की गोरी!
तुम सच क्यों नहीं बनती?
यह कैसा हुस्न और कैसा इश्क़!
और तू कैसी अभिसारिका!
अपने किसी महबूब की
तू आवाज़ क्यों नहीं सुनती?
दिल में एक चिनगारी डालकर
जब कोई साँस लेता है
कितने अंगारे सुलग उठते हैं,
तू उन्हें क्यों नहीं गिनती?
यह कैसा हुनर और कैसी कला?
जीने का एक बहाना है
यह तख़य्यल का सागर है
तू कभी क्यों नहीं नापती?
अप्सरा ओ अप्सरा!
शहज़ाही ओ शहज़ादी!
तेरा खयाल न आर देता है
न पार देता है
सूरज रोज़ ढूंढता है
मुँह कहीं नहीं दिखता है
तेरा मुँह, जो रात को
इक़रार देता है
तड़प किसे कहते हैं,
तू यह नहीं जानती
किसी पर कोई अपनी
ज़िन्दगी क्यों निसार करता है
अपने दोनों जहाँ
कोई दाँव पर लगाता है
नामुराद हँसता है
और हार जाता है
अप्सरा ओ अप्सरा!
शहज़ाही ओ शहज़ादी!
इस तरह लाखों ख्याल
आयेंगे, चले जायेंगे
तेरा यह सुर्ख ज़हर
कोई रोज़ पी लेगा
और तेरे नक़्श हर रोज़
जादू कर जायेंगे
तेरी कल्पना हँसेगी,
कोई रात-भर तड़पेगा
और बरस के बरस
इस तरह बीत जायेंगे
हुनर भूखा है, ऐ रोटी!
प्यार भूखा है, ऐ गोरी!
तेरे कितने वानगॉग
इस तरह मर जायेंगे?
अप्सरा ओ अप्सरा!
शहज़ाही ओ शहज़ादी!
हुस्न कैसा खेल है
कि इश्क़ जीत नहीं पाता
रात जाने कितनी काली है –
उम्र को भी जला के देख लिया
चाँद-सूरज कैसे चिराग़ हैं
कोई जल नहीं पाता
ऐ अप्सरा! तुम्हारा बुत
और गेहूँ की एक बाली
वह कैसी धरतियाँ हैं
कुछ भी नहीं उग पाता
हुनर भूखा है, ऐ रोटी!
प्यार भूखा है, ऐ गोरी!
निज़ाम का पेड़ कैसा है.
जिसमें कोई फल नहीं आता...
17.मजबूर
मेरी माँ की कोख मज़बूर थी...
मैं भी तो एक इन्सान हूँ
आज़ादियों की टक्कर में
उस चोट का निशान हूँ
उस हादसे की लकीर हूँ
जो मेरी माँ के माथे पर
लगनी ज़रूर थी
मेरी माँ की कोख मज़बूर थी
मैं वह लानत हूँ
जो इन्सान पर पड़ रही है
मैं उस वक़्त की पैदाइश हूँ
जब तारे टूट रहे थे
जब सूरज बुझ गया था
जब चाँद की आँख बेनूर थी
मेरी माँ की कोख मज़बूर थी
मैं एक ज़ख्म का निशान हूँ,
मैं माँ के जिस्म का दाग हूँ
मैं ज़ुल्म का वह बोझ हूँ
जो मेरी माँ उठाती रही
मेरी माँ को अपने पेट से
एक दुर्गन्ध-सी आती रही
कौन जाने कितना मुश्किल है
एक ज़ुल्म को अपने पेट में पालना
अंग-अंग को झुलसाना
और हड्डियों को जलाना
मैं उस वक़्त का फल हूँ –
जब आज़ादी के पेड़ पर
बौर पड़ रहा था
आज़ादी बहुत पास थी
बहुत दूर थी
मेरी माँ की कोख मज़बूर थी...
18.एक सोच
भारत की गलियों में भटकती हवा
चूल्हे की बुझती आग को कुरेदती
उधार लिए अन्न का
एक ग्रास तोड़ती
और घुटनों पे हाथ रखके
फिर उठती है...
चीन के पीले
और ज़र्द होंटों के छाले
आज बिलखकर
एक आवाज़ देते हैं
वह जाती और
हर गले में एक सूखती
और चीख मारकर
वह वीयतनाम में गिरती है...
श्मशान-घरों में से
एक गन्ध-सी आती
और सागर पार बैठे –
श्मशान-घरों के वारिस
बारूद की इस गन्ध को
शराब की गन्ध में भिगोते हैं।
बिलकुल उस तरह, जिस तरह –
कि श्मशान-घरों के दूसरे वारिस
भूख की एक गन्ध को
तक़दीर की गन्ध में भिगोते हैं
और लोगों के दुःखों की गन्ध को –
तक़रीर की गन्ध में भिगोते हैं।
और इज़राइल की नयी-सी माटी
या पुरानी रेत अरब की
जो खून में है भीगती
और जिसकी गन्ध –
ख़ामख़ाह शहादत के जाम में है डूबती...
छाती की गलियों में भटकती हवा
यह सभी गन्धें सूंघती और सोचती –
कि धरती के आंगन से
सूतक की महक कब आएगी?
कोई इड़ा – किसी माथे की नाड़ी
– कब गर्भवती होगी?
गुलाबी माँस का सपना –
आज सदियों के ज्ञान से
वीर्य की बूंद मांगता...
19.ऐश ट्रे
इलहाम के धुएँ से लेकर
सिगरेट की राख तक
उम्र की सूरज ढले
माथे की सोच बले
एक फेफड़ा गले
एक वीयतनाम जले...
और रोशनी
अँधेरे का बदन ज्यों ज्वर में तपे
और ज्वर की अचेतना में –
हर मज़हब बड़राये
हर फ़लसफ़ा लंगड़ाये
हर नज़्म तुतलाये
और कहना-सा चाहे
कि हर सल्तनत
सिक्के की होती है, बारूद की होती है
और हर जन्मपत्री –
आदम के जन्म की
एक झूठी गवाही देती है।
पैर में लोहा डले
कान में पत्थर ढले
सोचों का हिसाब रुके
सिक्के का हिसाब चले
और मैं आदि-अन्त में बनता
माँस की एक ऐश ट्रे
इलहाम के धुएँ से लेकर
सिगरेट की राख तक
मैंने जो फ़िक्र पिये
उनकी राख झाड़ी थी
तुम भी झाड़ सकते हो
और चाहो तो माँस की
यह ऐश ट्रे मेज़ पर सजाओ
या गांधी, लूथर और कैनेडी कहकर
चाहो तो तोड़ सकते हो –
20.आत्ममिलन
मेरी सेज हाज़िर है
पर जूते और कमीज़ की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज़ है……
21.हादसा
बरसों की आरी हँस रही थी
घटनाओं के दाँत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया
आँखों में कंकड़ छितरा गए
और नज़र जख़्मी हो गई
कुछ दिखाई नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है।
22. मैं तुझे फिर मिलूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
23.जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं
दिल के घाट पर मेला जुड़ा ,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई......
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के ऊपर उभर आईं
केसर की लकीरें
सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गई,
हमारी दोनों की तकदीरें
24.सिगरेट
यह आग की बात है
तूने यह बात सुनाई है
यह ज़िंदगी की वो ही सिगरेट है
जो तूने कभी सुलगाई थी
चिंगारी तूने दे थी
यह दिल सदा जलता रहा
वक़्त कलम पकड़ कर
कोई हिसाब लिखता रहा
चौदह मिनिट हुए हैं
इसका ख़ाता देखो
चौदह साल ही हैं
इस कलम से पूछो
मेरे इस जिस्म में
तेरा साँस चलता रहा
धरती गवाही देगी
धुआं निकलता रहा
उमर की सिगरेट जल गयी
मेरे इश्के की महक
कुछ तेरी सान्सों में
कुछ हवा में मिल गयी,
देखो यह आखरी टुकड़ा है
ऊँगलीयों में से छोड़ दो
कही मेरे इश्कुए की आँच
तुम्हारी ऊँगली ना छू ले
ज़िंदगी का अब गम नही
इस आग को संभाल ले
तेरे हाथ की खेर मांगती हूँ
अब और सिगरेट जला ले !!
25.धूप का टुकड़ा
मुझे वह समय याद है---
जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया।
सोचती हूँ: सहम और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस छोटे बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया।
तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है न हाथ को छोड़ता है।
अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा।
26.मैंने पल भर के लिए
मैंने पल भर के लिए --आसमान को मिलना था
पर घबराई हुई खड़ी थी ....
कि बादलों की भीड़ से कैसे गुजरूंगी ..
कई बादल स्याह काले थे
खुदा जाने -कब के और किन संस्कारों के
कई बादल गरजते दिखते
जैसे वे नसीब होते हैं राहगीरों के
कई बादल शुकते ,चक्कर खाते
खंडहरों के खोल से उठते ,खतरे जैसे
कई बादल उठते और गिरते थे
कुछ पूर्वजों कि फटी पत्रियों जैसे
कई बादल घिरते और घूरते दिखते
कि सारा आसमान उनकी मुट्ठी में हो
और जो कोई भी इस राह पर आये
वह जर खरीद गुलाम की तरह आये ..
मैं नहीं जानती कि क्या और किसे कहूँ
कि काया के अन्दर --एक आसमान होता है
और उसकी मोहब्बत का तकाजा ..
वह कायनाती आसमान का दीदार मांगता है
पर बादलों की भीड़ का यह जो भी फ़िक्र था
यह फ़िक्र उसका नहीं --मेरा था
उसने तो इश्क की कानी खा ली थी
और एक दरवेश की मानिंद उसने
मेरे श्वाशों कि धुनी राम ली थी
मैंने उसके पास बैठ कर धुनी की आग छेड़ी
कहा-ये तेरी और मेरी बातें...
पर यह बातें--बादलों का हुजूम सुनेगा
तब बता योगी ! मेरा क्या बनेगा ?
वह हंसा---
नीली और आसमानी हंसी
कहने लगा--
ये धुंए के अम्बार होते हैं---
घिरना जानते
गर्जना भी जानते
निगाहों की वर्जना भी जानते
पर इनके तेवर
तारों में नहीं उगते
और नीले आसमान की देही पर
इल्जाम नहीं लगते...
मैंने फिर कहा--
कि तुम्हे सीने में लपेट कर
मैं बादलों की भीड़ से
कैसे गुजरूंगी ?
और चक्कर खाते बादलों से
कैसे रास्ता मागूंगी?
खुदा जाने --
उसने कैसी तलब पी थी
बिजली की लकीर की तरह
उसने मुझे देखा,
कहा ---
तुम किसी से रास्ता न मांगना
और किसी भी दिवार को
हाथ न लगाना
न ही घबराना
न किसी के बहलावे में आना
बादलों की भीड़ में से
तुम पवन की तरह गुजर जाना...
ये कुछ बेहतरीन कविताएं अमृता जी की लिखी हुई। सब एक से बढ़कर बेहतरीन कविताएं हैं।
मुझे हमेशा से कविताएं लिखने के साथ साथ पढ़ने का शौक रहा है। बस इसी शौक के चलते मैं बेहतरीन कविताएं ढूंढते ढूंढते अमृता जी की कविताओं तक पहुंच गई और पढ़ कर ऐसा लगा इससे बेहतरीन कविताएं मैंने कभी नहीं पढ़ी थी। मैंने सबसे पहले इनकी कविता कुफ्र पढ़ी थी, जो कि मुझे बेहद पसंद आई थी। जब कुछ आपको बहुत अच्छा लगे आप उससे रिलेटेड कुछ ना ही ढूंढ़ो यह इंसानी प्रकृति के ख़िलाफ़ ही है। बस फिर क्या ढूंढ डाली जानकारी जो भी मिली अमृता जी के बारे में।
अमृता प्रीतम और इमरोज़ की पहली मुलाकात के बारे में जब पढ़ा तो लगा इससे खूबसूरत मुलाकात किसी की किसी से हो ही नहीं सकती। आप भी जाने उनकी इस पहली मुलाकात के बारे में इसलिए इसके कुछ अंश मैं यहां शेयर कर रही हूं....👇👇👇👇
कुछ लोग बहुत अदब से मिलते हैं, लेकिन दो दिन बाद ही वे अपना इश्क हथेली पर रखकर पेश कर देते हैं, जैसे कोई इलायची पेश करे। मुझे उस इश्क से नफ़रत है, जो इलायची की तरह पेश किया जाये।
- अमृता प्रीतम ( किताब - मेरे साक्षात्कार)
अमृता : इमरोज़ ! हलों-कुदाल वाले घराने में जन्म ले कर आपने खेती के औजार थामने की बजाय हाथों में रंग और ब्रश कैसे ले लिए ?
इमरोज़ : यह भी हल ही चला रहा हूँ विचारों की जमीन पर। छुटपन में घर में हर वक़्त ड्रोइंग किया करता था। हालांकि स्कूल में ड्राइंग नहीं थी। यह ठीक है शुरू में जिन चीजों की ड्राइंग की वे सब खेतों और हल-कुदाल से ही जुड़ी हुई थी।
अमृता : आप औरत की ड्रोइंग में माहिर है ? क्या औरत का बुनयादी तसव्वुर खेतों में रोटी ले कर जाने वाली औरत का था ?
इमरोज़ : नहीं जब हलों कुदाल की ड्राइंग करता था तब औरत की ड्रोइंग नहीं करता था। हल-कुदाल भी मेरा सपना कभी नहीं थे - वे सिर्फ़ ऑब्जेक्ट थे।
अमृता : सारे कलाकार यथार्थ की व्याख्या अलग अलग करते हैं। इमरोज़ आपकी नजर में यथार्थ क्या है ?
इमरोज़ : मेरे अनुसार हर यथार्थ एक नए यथार्थ को जन्म देता है। वह शायद आम लोगों की पकड़ में नहीं आता पर हर कलाकार उसको जरुर पहचान लेता है। जब बाहरी चीजों को अन्दर की नजर मिलती है तब वह कई नए आकार लेती है नए यथार्थ को जन्म देती है
अमृता : कैनवस के रंगों और हाथों के सामने रखने से पहले आप पेन्सिल स्केच बनाते हैं या सिर्फ़ जहनी स्केच ?
इमरोज़ : दोनों
अमृता : अमरीकन चित्रकार इवान अलब्राईट को अपनी एक पेंटिंग पर बीस साल लग गए वह उस पर बीस साल काम करते रहे और उनके लफ्जों में यह सारी दुनिया की यात्रा थी। क्या आपको भी किसी पेंटिंग ने इस तरह से बरसों बांधे रखा ?
इमरोज़ : औरत की ड्राइंग करते हुए मुझे तीस बरस हो गए हैं। महारत के साथ मैं बहुत जल्दी औरत के नैन-नक्श तो बना लेता पर उसका चिंतन उसके माथे में भरने में बहुत बरस लग गए। सेंकडों तस्वीरें बना कर भी मैं औरत के चित्र को एक चित्र कह सकता हूँ जिस पर मैंने तीस बरस लगा दिए हैं। वह चित्र अब मेरे से इस बरस बना है।
अमृता : कौन सा ?
इमरोज़ : वह मेरे कमरे में सिर्फ़ एक पेंटिंग है वही।
अमृता : जिस में एक साज की शक्ल में है एक औरत और उसका बदन ऐसे हैं जैसे साज के तार सुर किए हों।
इमरोज़ : हाँ सिर्फ़ वही पेंटिंग एक लाइन की पेंटिंग है,औरत चिंतन की शकल में भी और औरत साज़ की शकल में भी।
अमृता : पिछले तीस सालों से आपकी कला की थीम औरत है,आपने कभी इन तीस सालों में इस थीम की पकड़ से मुक़्त होना चाहा ?
इमरोज़ : इस थीम की पकड़ में नहीं हूँ मैं। इसके साथ साथ चल रहा हूँ,हम दोनों चल रहे हैं...हमसफ़र की तरह
अमृता : कई चित्रकारों के लिए कोई खास रंग बहुत लाडला होता है। कोई एक ऐसा रंग जो आपको अपनी और खींचता हो ? जैसे काल्डर को लाल रंग...उसका जी करता है की वह हर चीज को लाल रंग में रंग दे।
इमरोज़ : धूप का रंग मुझ पर इतना छाया रहता है कि मेरा जी करता है हर चीज धूपी रंग की कर दू।
अमृता : आपने आज तक अपने चित्रों की एक बार भी नुमाइश नहीं की क्यों ?
इमरोज़ : दो चीजों के लिए नुमाइश की जाती है। एक दूसरो की राय लेने के लिए और दूसरी तस्वीरों को बेचने के लिए। किसी की राय की मुझे जरुरत नहीं। मुझे अपनी राय पर यकीन है और तस्वीरें मैं बेचने के लिए बनाता नहीं हूँ। मैं...मैं नुमाइश क्यूँ करूँ ? वैसे भी मुझे नुमाइश लफ्ज़ से भी एतराज़ है
अमृता : क्यों ?
इमरोज़ : क्यों की इस लफ्ज़ की रूह में हमारी अपनी सभ्यता की रूह नहीं है। कोई इंसान खूबसूरती का मुजस्सिमा हो खुदा की नेमत है। पर उसको शो केस में खड़ा कर दिया जाए ये मेरी आंखों को कबूल नहीं होता है।
अमृता : तो फ़िर कला दर्शकों तक कैसे पहुंचे ?
इमरोज़ : यह खूबसूरती का कर्म नहीं है कि वह दर्शकों को तलाश करती फिरे यह दर्शकों का कर्म है कि वह खूबसूरती को तलाश करें।
- एक मुलाकात इक इन्टरव्यू
(चित्रकार इमरोज़ से जब अमृता की मुलाकात हुई तो उनके कला और व्यक़्तित्व का एक नया पहलू सामने आया। वह जो बहुत बार देखा पढ़ा हो कर भी अनकहा सा था। यहाँ इस में यह उनके उसी साक्षात्कार के रूप में है)
सारी बातें इतनी खूबसूरत है कि कुछ भी कहने के लिए शब्द नहीं हैं।
अब आप हमारे बीच नही हैं लेकिन आज भी आपकी आवाज़, आत्मा आपकी कहानियों, उपन्यासों और कविताओं के माध्यम से हम सबके बीच जीवित है।
एक कवि/कवियत्री, लेखक/लेखिका चाहे जिस्म से जीवित ना रहें, लेकिन उनकी कविताएं और रचनाएं हमेशा उन्हे जिंदा रखती है। इन्सान कुछ लेकर नहीं जाता लेकिन कुछ देकर जरूर जाता है...जैसे अपनी यादें।
चाहें हम इन्हे यादें कहें या फिर उनकी आत्मा सब एक ही क्योंकि इन्होंने ही इन्हे हमारे बीच आजतक जिंदा रखा है।
बहुत कुछ तो नहीं लिख सकती लेकिन कुछ लफ्ज़ मेरी तरफ से आपके लिए अमृता जी....
अमृत सी जन्मी थी तुम
घोल कर अमृत रस
लिख गई कुछ अंश
कविता और कहानियों के रूप में
कलम पकड़ी हाथों में
इतने खूबसूरत अक्षर चुने
लिखें कुछ गहरे भाव
शब्दों का अमृत बंधन देकर
तुम बन गई अमृता
प्रीत का राग देकर
कहलाई प्रीतम
आप हैं अमृता प्रीतम।।
हैं अब हमारे पास आपकी
लेखनी का अमृत बंधन ।।
- कंचन सिंगला 💛
जन्मदिवस विशेष !! अमृता प्रीतम!!