अशोका रुको! अशोका! ऊंची नीची पगडंडियों को पार करते हुए वह चले जा रहा था। उसके पीछे आती उस आवाज ने उसे रुकने पर मजबूर कर दिया। उसने पलट कर देखा और कहा..."राजकुमारी प्रेमलता" आप हमारे पीछे क्यों आ रही हैं ?
वह अशोका के नजदीक आते हुए बोली....अब मैं आपके लिए आपकी "प्रेमा" राजकुमारी प्रेमलता हो गई। यह कहते हुए उसकी आंखे नम हो गई थी।
अशोका ने कहा...हमें जाना होगा प्रेमा! हम यहां नहीं रुक सकते! और आपको साथ भी नहीं ले जा सकते। हमारा राज्य युद्ध की आग में जल रहा है। अपनी जननी की खातिर हमें जाना होगा। आप हमारा इंतजार करिएगा, हम लौट आने की कोशिश करेंगे अगर जिंदा बच गए तो। इतना कहकर वह फिर से जाने के लिए पलटा।
प्रेमा ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा....कुछ दिनों में वह हमारा विवाह कर देंगे। आपके लौटने की प्रतीक्षा नहीं कर पाएंगे।
अशोका ने हल्की भरी आंखों से कहा....मातृभूमि की खातिर हम प्रेम भी न्यौछावर करने को तैयार हैं प्रेमा। आप विवाह कर लीजिएगा। अगर भाग्य ने चाहा तो हम साथ होंगे। अभी हमारा यहां से जाना जरूरी है। हम अपनी जननी को जलने नहीं दे सकते। प्रेम, मिट्टी के उत्तरदायित्व से बडकर नहीं हो सकता। हम आपसे क्षमा चाहते हैं। इतना कहकर वह मुड़ते हुए वहां से चला गया।
प्रेमा उसे जाते हुए देख रही थी। वह वहीं बैठकर फूट फूट कर रोने लगी थी। वह उस हर क्षण को याद कर रही थी जब उसकी पहली बार अशोका से मुलाकात हुई थी। वह घायल अवस्था में नदी के तेज बहाव के साथ बहते हुए आता था। वह बहुत अधिक घायल था।प्रेमा ने जैसे ही उसे देखा तुरंत नदी से निकालने दौड़ पड़ी। वह उसे नदी से निकाल कर जंगल वाले आश्रम ले गई थी। उसके जख्मों पर दवा लगाना और रोजाना उसे भोजन कराना यही उसकी दिनचर्या बन गई थी। एक दिन उसकी मेहनत सफल हुई अशोका को होश आ गया था। वह अब भी उसकी सेवा में ही लगी रहती। अशोका ने उसके आगे अपनी पहचान जाहिर की क्योंकि वह जाना चाहता था। उसका ख्याल रखते रखते जाने कब वह उसके प्रेम में पड़ गई थी उसे नहीं पता चला लेकिन जब अशोका ने जाने की बात की तो उसकी आंखें छलछला आई। वह रोते हुए वहां से चली गई।
अगले दिन जब वह अशोका से मिली तो वह जाने की तैयारी कर रहे थे। वह प्रेमा को वहां देख रुक गए और बोले...हमें पता चला कि आपने हमारी जान बचाई थी राजकुमारी प्रेमलता और आपकी सेवा की वजह से मैं आज यहां खड़ा हो पाया हूं। अब आपसे विदा चाहता हूं अपने राज्य वापस लौटने के लिए।
प्रेमा की आंखे एक बार फिर से भर आई। वह बाहर जाने लगी। तभी उसकी कलाई पकड़ते हुए राजकुमार अशोक ने जाने से रोककर बोला... मैं जानता हूं कि आप मुझसे प्रेम करने लगी हैं। मैं भी आपके लिए वही महसूस करता हूं लेकिन फिर भी मुझे जाना होगा अपने राज्य की खातिर।
प्रेमा रोते हुए अशोका ने सीने से जा लगी और बोली...जानती हूं कि आपका जाना जरूरी है लेकिन आपके बिना अब हमारा कोई वजूद नहीं है, आप हमें साथ ले चलिए।
अशोका बोले...यह संभव नहीं है राजकुमारी, आपके पिताजी हमारे मित्रों में नहीं आते, उन्हें हमारे यहां होने की भनक भी हुई तो अनर्थ हो जाएगा और आपको चोरी छिपे ले जाना यह हमसे नहीं होगा। फिर आप वहां जाकर सुरक्षित भी नहीं रहेंगी क्योंकि हमारा राज्य युद्ध की अग्नि में दहक रहा है। हमारे अपनों ने ही हमें धोखा दिया जिसकी वजह से हम यहां पहुंचे। हमें शीघ्र ही वापस जाकर राज्य को बचाना होगा। इतना कहकर वह वहां से जाने के लिए निकल गया। राजकुमारी प्रेमा रोते हुए खड़ी रह गई।
अब भी वह उसके पीछे पीछे भागी आई थी लेकिन वह नहीं रुके और चले गए।
राज्य वापस पहुंचने पर अशोका ने एक बार फिर से राज्य की कमान को अपने हाथों में ले लिया। युद्ध की नीतियां दोबारा बनाई और इस बार उसने सब गुप्त रखा।
शत्रु को पता चल गया था कि राजकुमार अशोका वापस लौट आए हैं। इतने गहरे घाव दिए जाने के बाद भी वह बच गया था, उन्हें इस बात की हैरानी थी।
एक बार फिर से युद्ध हुआ और इस बार शत्रु अशोका की युद्ध नीतियों के आगे टिक नहीं पाया। भयानक मार काट के बाद अंत में उसने विजय पा ली थी।
राज्य जो युद्ध की इस अग्नि में झुलस गया था अब वह अपने घिरोंदों को ठीक करने में लगा हुआ था। सब ठीक हो जाने पर अशोका एक बार फिर से निकल गया इस आस में कि शायद उसे प्रेमा मिल जाएंगी।
एक लंबी यात्रा के बाद वह उसी आश्रम में वापस आया जहां प्रेमा से उसकी मुलाकात हुई थी। उसे वहां आकर पता चला कि राजकुमारी प्रेमा ने आत्महत्या कर ली। अपनी शादी वाले दिन उन्होंने स्वयं को अग्नि के हवाले कर दिया। राजकुमार अशोका घुटनों के बल बैठ कर चित्कार पड़े लेकिन अब कुछ नहीं बचा था। युद्ध जीतकर भी वह हार गए थे।
वह वापस लौट रहे थे इस प्रण के साथ कि वह इस जन्म में अब प्रेमा के सिवा किसी के नहीं होंगे। उन्होंने अंतिम सांसों तक युद्ध लड़े, स्वयं को कभी सुकून से जीने नहीं दिया और निरंतर एक अग्नि में जला कर रखा जब वह उन्होंने अपनी आखिरी सांस नहीं ली और इस बीच उन्होंने कभी किसी से ना ही प्रेम किया और ना ही विवाह।
यह अधूरा प्रेम जलता ही रहा निरंतर जब तक सांसे चलती रही। एक तरफ अशोका जले और दूसरी तरफ प्रेमा। शायद यही अधूरा प्रेम ही अमर प्रेम था।
"विरह की पीड़ा में झुलसा मनुष्य अग्नि की तपिश में झुलसने जितनी ही पीड़ा सहता है।"
©®कंचन सिंगला