भाग5: "मंच पर बिछी परछाइयाँ…"
रचना:बाबुल हक़ अंसारी
पिछले खंड से…
आर्या अब जानती थी —
सिर्फ़ नीरव से उसका रिश्ता दांव पर नहीं है,
बल्कि अब एक पूरी पीढ़ी के भरोसे की परीक्षा थी।
आश्रम का बड़ा आँगन इस बार कुछ अलग लग रहा था।
चारों तरफ़ कुर्सियाँ सजी थीं, बीच में एक छोटा-सा मंच और उस पर माइक के पास रखा एक खाली स्टैंड — जिस पर शाम को कविता पाठ होना था।
यह वही आयोजन था, जिसे आश्रम हर साल करता था, लेकिन इस बार माहौल में एक अजीब-सी बेचैनी थी।
क्योंकि इस बार मंच पर नीरव को बुलाया गया था… और भीड़ में विवेक और अनया भी मौजूद होने वाले थे।
दोपहर में, नीरव चुपचाप अपने कमरे में बैठा था।
आर्या ने अंदर आकर देखा — उसकी गोद में वही डायरी थी, जिसके पन्ने वक्त के साथ पीले हो चुके थे।
"क्या तुम वाकई आज मंच पर जाओगे?" आर्या ने धीरे से पूछा।
"हाँ," नीरव ने बिना नज़र उठाए जवाब दिया,
"लेकिन इस बार… मैं सिर्फ़ कविता नहीं पढ़ूँगा। मैं सच पढ़ूँगा।"
आर्या की आँखें चिंता से भर गईं —
"अगर इस सच से तुम्हारी सारी इज़्ज़त चली गई तो?"
नीरव हल्का-सा मुस्कुराया,
"कम से कम… मेरे भीतर का बोझ तो उतर जाएगा।"
शाम ढली, आँगन रोशनी से भर गया।
लोग अपनी-अपनी जगह पर बैठ चुके थे।
मंच पर पहले कुछ स्थानीय कवियों ने अपनी रचनाएँ सुनाईं, तालियाँ बजीं… फिर संचालक ने नीरव का नाम लिया।
भीड़ में सन्नाटा छा गया — सबकी नज़रें एक ही तरफ़ मुड़ीं।
नीरव धीरे-धीरे मंच पर चढ़ा, हाथ में अपनी डायरी थी।
उसने माइक पकड़ा और कहा —
"आज मैं एक कविता नहीं, एक कहानी सुनाऊँगा… वो कहानी, जिसमें मेरी जीत के पीछे किसी और की हार छुपी थी।"
भीड़ में कानाफूसी शुरू हो गई।
विवेक की आँखें सीधे नीरव पर टिकी थीं, अनया के चेहरे पर उलझन थी, और आर्या मंच के ठीक बगल में खड़ी थी — जैसे अगर नीरव लड़खड़ाए तो उसे थाम ले।
नीरव ने गहरी साँस ली और बोला —
"'बिना नाम की वफ़ा'… ये कविता मैंने नहीं लिखी थी।
ये पंक्तियाँ आर्या के शब्दों से जन्मीं और… गलती से मेरे नाम से छप गईं।
इस गलती ने रघुवीर त्रिपाठी जैसे सच्चे कवि की ज़िंदगी बर्बाद कर दी।"
मंच के नीचे बैठे कुछ लोग चौंक गए, फुसफुसाहट और तेज़ हो गई।
नीरव ने आगे कहा —
"आज मैं ये सच सबके सामने रख रहा हूँ… ताकि आने वाली पीढ़ी को पता रहे कि शब्दों की चोरी सिर्फ़ स्याही नहीं चुराती, ये किसी की आत्मा तक को घायल कर सकती है।"
इतना कहकर उसने डायरी खोली और वही कविता पढ़ी — लेकिन इस बार अंत में उसने कहा —
"ये रचना… आर्या की है। और अगर मैं आज तक किसी नाम के सहारे जिया हूँ, तो वो सिर्फ़ उसका है।"
मंच पर सन्नाटा था… फिर धीरे-धीरे तालियों की गूँज फैलने लगी।
विवेक खड़ा हुआ, उसकी आँखें भर आई थीं।
वो मंच की ओर बढ़ा और नीरव के सामने आकर बोला —
"आज… आपने मेरे पिता का सम्मान लौटा दिया।
उस पल, भीड़ की नज़रों में नीरव सिर्फ़ एक कवि नहीं, बल्कि सच बोलने वाला इंसान बन चुका था।
लेकिन… इसी बीच, अनया की निगाह भीड़ के पीछे खड़े एक अनजान शख्स पर पड़ी —
जिसके हाथ में लाल रंग की छतरी थी… और जो बिना कुछ कहे वहाँ से चला गया।
(जारी रहेगा — खंड 6में…)
अब लाल छतरी का रहस्य किस ओर ले जाएगा?
क्या ये फिर से अतीत के किसी अनखुले पन्ने को सामने लाने वाला है?