भाग:10
रचना: बाबुल हक़ अंसारी
"शब्दों की आग और दिल का टकराव…"
पिछले खंड से…
"लो, सच ने अपना रास्ता बना लिया।
अब ये मंच किसी का नहीं… सबका है।"
मंच की गरमी… भीड़ की बेचैनी
तालियों की गूंज थमी नहीं थी।
हर चेहरा किसी अनसुनी सच्चाई को सुनने को तैयार था।
अनया ने पन्ना हाथ में लिया और कुछ पल आँखे बंद करके खड़ी रही।
भीड़ बेक़रार हो उठी —
"पढ़ो… पढ़ो!"
"क्या लिखा था त्रिपाठी जी ने?"
"और तुम क्या लिखोगी, बेटी?"
गुरु शंकरनंद की गंभीर आँखें अनया पर टिकी थीं।
आर्या ने होंठ दबाए, जैसे कोई तूफ़ान रोकने की कोशिश कर रही हो।
नीरव का दिल धड़क रहा था — डर और उम्मीद दोनों साथ।
अनया का स्वर…
अनया ने माइक थामा और गहरी साँस ली।
"ये शब्द मेरे पापा के हैं… लेकिन आज इन्हें मैं अपनी आवाज़ दूँगी।"
वो पढ़ने लगी —
"‘जब शब्द मौन हो जाएँ, तब आँखें बोलती हैं।
जब हार जीत से भारी लगे, तब आत्मा जीतती है।’"
भीड़ जैसे मंत्रमुग्ध हो गई।
हर व्यक्ति उस अधूरे पन्ने के बोझ को महसूस कर रहा था।
अनया ने पन्ना नीचे रखा और अपने शब्द जोड़ दिए —
"‘मेरे पिता का सच यही था… कि उन्होंने कभी हार मानी ही नहीं।
उनका लिखा, उनका जज़्बा… आज भी ज़िंदा है।
और मैं… उनकी बेटी… उस लौ को बुझने नहीं दूँगी।’"
भीड़ की प्रतिक्रिया
तालियों से ज़मीन काँप उठी।
औरतें रो रही थीं, बुज़ुर्ग अपनी लाठियाँ आकाश की ओर उठाकर बोले —
"रघुवीर जिंदाबाद!"
"अनया बेटा, तूने अपने पिता का नाम रोशन कर दिया!"
लेकिन इसी बीच एक आवाज़ गूँजी —
"सिर्फ़ तालियों से सच साबित नहीं होता!"
सबकी नज़रें उस ओर गईं।
आर्या आगे आई थी।
उसका चेहरा गुस्से और दर्द से लाल था।
आर्या का टकराव
"नीरव! तुमने सबके सामने मान लिया कि जीत झूठ थी।
तो क्या इसका मतलब ये नहीं कि मेरी भी मेहनत, मेरी भी रचनाएँ… सिर्फ़ तमाशा थीं?
तुम्हारी सच्चाई सुनकर सब तुम्हें माफ़ कर देंगे?
और मैं?
मैं कहाँ जाऊँ उस सच के साथ जिसने मेरी पूरी ज़िंदगी को सवाल बना दिया है?"
भीड़ सन्न रह गई।
आर्या के शब्द आग की तरह फैल गए।
नीरव आगे बढ़ा —
"आर्या… मैं जानता हूँ, मेरे सच ने तुम्हें भी तोड़ा है।
लेकिन झूठ पर टिके रिश्ते, टिके सपने… आखिर कब तक टिकते?"
आर्या चीख पड़ी —
"नहीं! सच भी कभी-कभी झूठ से ज़्यादा क्रूर होता है।
तुमने मुझे सबके सामने नंगा कर दिया है, नीरव!"
उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन लहजा आग सा जल रहा था।
गुरु शंकरनंद का हस्तक्षेप
गुरुजी उठे और गूंजती आवाज़ में बोले —
"बस!
ये मंच एक-दूसरे पर आरोप लगाने का नहीं है।
ये मंच आत्माओं की मुक्ति का है।
आर्या, तुम्हारा दर्द भी उतना ही सच्चा है जितना नीरव का।
लेकिन सच से भागना कभी शांति नहीं देता।"
फिर उन्होंने आह भरी —
"शायद अब वक्त आ गया है कि मैं वो राज़ बताऊँ…
जो सब कुछ बदल देगा।
एक ऐसा सच, जो न केवल त्रिपाठी की हार बल्कि नीरव की जीत और आर्या की जंग — सबको नई परिभाषा देगा।"
भीड़ में खलबली
लोग फुसफुसाने लगे —
"क्या सच है अब?"
"गुरुजी क्या छुपा रहे हैं?"
"ये तो और भी गहरी बात लग रही है…"
अनया काँपती आवाज़ में बोली —
"गुरुजी… क्या आप कहना चाहते हैं कि मेरे पापा की हार के पीछे कोई और भी था?"
गुरु शंकरनंद की आँखें झुकीं।
उनकी खामोशी ही सबसे बड़ा जवाब थी।
(जारी रहेगा… )
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अगले भाग में आएगा:
गुरु शंकरनंद का आख़िरी राज़ — जिसने सबकी तक़दीरें लिखी थीं।
नीरव और आर्या के बीच भावनाओं का सबसे बड़ा टकराव।
और अनया का वो फ़ैसला… जो इस पूरी कहानी की दिशा ही बदल देगा।