भाग:6
रचना: बाबुल हक़ अंसारी
"लाल छतरी वाला साया…"
पिछले खंड से…
> अनया की निगाह भीड़ के पीछे खड़े एक अनजान शख्स पर पड़ी —
जिसके हाथ में लाल रंग की छतरी थी… और जो बिना कुछ कहे वहाँ से चला गया।
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आश्रम के उस कविता-संध्या के बाद बहुत कुछ बदल गया था,
लेकिन अनया के मन में अब एक नया सवाल अंकुरित हो चुका था —
वो लाल छतरी वाला आदमी कौन था?
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अगली सुबह, अनया अकेले आश्रम की पीछे वाली बगिया में टहल रही थी,
जहाँ कभी आर्या और नीरव की खामोशियाँ शब्दों से बड़ी हुआ करती थीं।
तभी एक बुज़ुर्ग आश्रमवासी ने पास आकर कहा —
"तुम उसे ढूंढ रही हो ना जो कल छतरी लेकर आया था?"
अनया चौक गई —
"आपने उसे देखा?"
"हाँ।
वो हर साल इस समारोह में आता है, लेकिन कभी मंच के पास नहीं आता।
बस एक कोने में खड़ा रहता है… जैसे किसी का इंतज़ार कर रहा हो।"
"क्या आप जानते हैं वो कौन है?"
बुज़ुर्ग ने गहरी साँस ली —
"नाम तो नहीं, लेकिन… एक बार जब उसने छतरी छोड़ दी थी, उसमें एक काग़ज़ था — जिस पर लिखा था:
> ‘मैं सिर्फ़ वो हूँ… जिसकी पहचान किसी और की गलती में गुम हो गई।’"
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शाम को अनया ने ये बात आर्या से कही।
आर्या कुछ पल के लिए मौन हो गई, फिर बोली —
"लाल छतरी…?"
उसके माथे की लकीरें गहरी हो गईं।
"नीरव की डायरी में एक कहानी थी —
एक नवोदित लेखक की, जिसने कभी नीरव को अपनी कविताएँ भेजी थीं…
लेकिन जवाब न मिलने पर वो खो गया… कहीं।"
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उसी रात, नीरव को भी लाल छतरी की बात बताई गई।
वो कुछ नहीं बोला, बस कुछ देर बाद अपनी पुरानी किताबों में कुछ ढूँढने लगा।
आख़िरकार, एक मुड़ा-तुड़ा लिफ़ाफ़ा निकला —
जिस पर नाम लिखा था:
"प्रह्लाद मेहरा"
और नीचे —
"प्रेषक: लाल छतरी वाला…"
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नीरव का चेहरा पीला पड़ गया।
"ये नाम… मैं भूल गया था।
वो लड़का बेहद प्रतिभाशाली था।
उसने कुछ रचनाएँ भेजी थीं —
लेकिन जब मैंने उन्हें पढ़ा… तो पाया कि उनमें आर्या की लेखनी की परछाइयाँ थीं।
मुझे शक हुआ कि वो कॉपी कर रहा है… और मैंने उसे कभी जवाब नहीं दिया।"
आर्या चुप रही, लेकिन उसकी आँखों में कुछ पिघलने लगा था।
"शायद मैं ग़लत था," नीरव ने कहा,
"शायद वो अपनी आवाज़ तलाश रहा था… और मैंने उसे खो दिया।"
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अगले दिन, नीरव और अनया दोनों शहर के पुराने पुस्तकालय पहुँचे —
जहाँ पहले पत्रिकाओं और साहित्यिक आयोजनों की कटिंग्स रखी जाती थीं।
घंटों की खोज के बाद उन्हें एक कविता मिली —
"छाँव में जलता हुआ आदमी" — लेखक: प्रह्लाद मेहरा
छपी थी एक क्षेत्रीय पत्रिका में… और उस पर किसी ने लाल स्याही से लिखा था:
> "अगर मैं खो गया… तो क्या मेरी छाँव रह जाएगी?"
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खंड के अंत में, आर्या ने नीरव से कहा —
"शब्दों का अपराध भी ख़ामोश होता है,
लेकिन उसकी सज़ा… अक्सर किसी और की ज़िंदगी भुगतती है।"
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की आँखों में अब उलझन नहीं थी…
बल्कि एक साफ़ संकल्प था।
उसने खुद से कहा —
"सच की राह चाहे जितनी भी किरचों से भरी हो, चलना ज़रूरी है। काँच चुभेगा… पर धुंध नहीं रहेगी।"
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तीन दिन बाद —
आश्रम परिसर में 'कविता संध्या' की तैयारियाँ चल रही थीं।
शाम की धूप और शामियानों के नीचे —
अनया स्टेज की साज-सज्जा देख रही थी। वो अब भी अपने पिता विवेक की बातों में उलझी हुई थी।
आर्या धीरे-धीरे उसके पास आई —
"तुम जानना चाहती हो ना… कि वो कविता 'बिना नाम की वफ़ा' सच में किसकी थी?"
अनया ने सिर हिलाया।
आर्या मुस्कुराई,
"आओ, तुम्हें कुछ सुनाती हूँ… जो मैंने कभी नीरव के लिए लिखा था, पर अपने नाम से नहीं कह पाई।"
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छोटे से पुस्तकालय के कमरे में बैठकर आर्या ने अपनी पुरानी डायरी निकाली।