Smile Of Witch in Hindi Horror Stories by Vedant Kana books and stories PDF | Smile Of Witch

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Smile Of Witch

रात की नीरवता में सिर्फ़ जुगनुओं की हल्की रौशनी और दूर कहीं उल्लू की टूक-टूक आवाज़ सुनाई दे रही थी। पेड़ों की टहनियाँ आपस में टकराकर अजीब-सी सरसराहट कर रही थीं। हवा में अजीब सी नमी और ठंडक थी, जैसे कुछ छुपा हो उस अंधेरे के पर्दे में… कुछ ऐसा जो दिखता नहीं, पर मौजूद ज़रूर है।

दुर्गापतिया गांव पहाड़ों के बीच बसा एक वीरान गांव था। वहां के लोग बहुत सीधे-सादे थे, लेकिन एक चीज़ थी जिससे वे कांपते थे। गांव के बाहर बने एक खंडहर की हवेली से आने वाली हँसी। एक ऐसी हँसी जो दिल के आर-पार उतर जाती थी, जिसमें कोई इंसानी भावना नहीं थी… वो हँसी नहीं, मौत की दस्तक थी।

गांववालों की जुबान पर एक ही नाम था कि वो चुड़ैल, जिसकी हँसी सुनाई देने के बाद कोई भी इंसान जिंदा नहीं बचा। और जो बचा, उसकी ज़ुबान हमेशा के लिए बंद हो गई।

कहते हैं बहुत साल पहले उस हवेली में एक युवती रहती थी। अकेली, चुप और अलग-थलग। किसी से न मिलती, बस हवेली के झूले पर बैठकर हँसती रहती। उसकी हँसी बच्चों को डराती और बड़ों को पागल बना देती।

धीरे-धीरे गांव में अजीब घटनाएं होने लगीं बच्चों का गायब होना, पशुओं का मरा मिलना, और लोगों का अचानक पागल हो जाना। गांववालों ने उसे दूसरी दुनिया की मानकर एक रात हवेली में आग लगा दी।

लेकिन वो मरी नहीं… उसकी चीखों में भी वही हँसी थी…
उसके जलते हुए चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी, जैसे उसने मरते-मरते भी गांव को शाप दे दिया हो।

“मेरी हँसी को तुमने शाप समझा, अब यही हँसी तुम्हारी आत्मा तक को जला देगी…”

उस रात के बाद हवेली खंडहर बन गई। लेकिन हर साल उसी रात, हवेली के झूले से वही हँसी सुनाई देती। धीमी… फिर तेज़… फिर दिल चीर देने वाली…

“ही… ही… ही…”

गांव में फिर अजीब चीजें होने लगीं। रात को किसी के दरवाज़े खटकते, दरवाज़ा खोलो तो कोई नहीं। लेकिन आँगन में किसी और के पैरों के निशान। घरों के अंदर लोग जले हुए चेहरे की एक स्त्री को देखते, जो झूले पर बैठकर हँस रही होती… और फिर सुबह उनका शव मिलता — चेहरे पर जमी हुई मुस्कान के साथ।

सबसे डरावनी बात ये थी कि जो भी मरा, उसके होठों पर वही हँसी जमी हुई होती थी। जैसे मरते वक्त वो भी उसी चुड़ैल के साथ हँस रहा हो।

एक दिन गांव की एक लड़की, गौरी, जो बहुत बहादुर मानी जाती थी, उसने ठान लिया कि वो इस रहस्य का अंत करेगी। वो अकेले उस रात हवेली में गई। चाँदनी में झूला साफ दिख रहा था, और उस पर कोई बैठा था।

गौरी ने जैसे ही पास जाकर पूछा, “तुम कौन हो?”
उसने सिर्फ़ एक बार गर्दन घुमाई —
चेहरा अधजला, आँखें कोयले जैसी काली, और होंठों पर वही जमी हुई मुस्कान…

गौरी की चीख हवेली के बाहर तक सुनाई दी…
अगले दिन, हवेली के पास झूले पर दो लोग बैठे थे — एक जली हुई स्त्री और एक नई युवती… दोनों मुस्कुरा रहे थे… उसी हँसी के साथ…

गांववालों ने तबसे उस रास्ते को बंद कर दिया। लेकिन आज भी, जब हवा तेज़ चलती है, हवेली की तरफ़ से वही हँसी आती है…

“ही… ही… ही… तू भी हँस ना…”

और फिर कोई न कोई हमेशा के लिए उस हँसी का हिस्सा बन जाता है।

चंद्रग्रहण की रात थी। आसमान पर धुंधली परछाइयाँ थीं और गांव का सारा इलाका सन्नाटे से भरा हुआ था।
दुर्गापतिया गांव अब पहले जैसा नहीं रहा — लोग गांव छोड़कर जा चुके थे, मंदिर के द्वार बंद कर दिए गए थे, और हवेली के रास्ते पर काँटों की बाड़ लगा दी गई थी। पर हँसी… वो बंद नहीं हुई।

हर साल उसी तारीख़ पर, आधी रात के बाद हवेली से वही आवाज़ आती थी —
“ही… ही… ही… तू भी हँस ना…”
अब लोग उस हँसी को “शाप” नहीं कहते थे। वो वास्तविकता बन चुकी थी।

गौरी के गायब होने के बाद, गांव में एक ही व्यक्ति बचा था जो अब भी वहां से नहीं गया था। बुजुर्ग काका रमुआ। सब उन्हें पागल समझते थे, लेकिन कोई नहीं जानता था कि वो ही एकमात्र थे जिसने उस हँसी को करीब से देखा और जिंदा बच निकला।

उस रात रमुआ काका एक टेढ़ी छड़ी के सहारे, काँपते पैरों से हवेली की ओर बढ़े। उनके हाथ में एक पुराना लकड़ी का बक्सा था। जिसे उन्होंने सालों से नहीं खोला था। वह बक्सा उस समय का था जब दामिनी जीवित थी।

हवेली पहुंचते ही रमुआ काका ने देखा —
झूला हिल रहा था।
हवा बिलकुल नहीं थी, लेकिन झूला अपनी रफ्तार से आगे-पीछे झूल रहा था…
और झूले पर कोई था।

धीरे-धीरे, झूले पर बैठी वो औरत उठी। अब उसका चेहरा और भी सड़ा हुआ था। आधा चेहरा काला, आधा हड्डी की तरह सफेद। उसकी आँखों में रोशनी नहीं, लेकिन घूरती हुई नज़रें थीं।

रमुआ काका बोले, “दामिनी, तेरा हँसना अब खेल नहीं रहा… तू अब दूसरों को नहीं, खुद को खत्म कर रही है।”

वो मुस्काई। लेकिन इस बार हँसी में कुछ अजीब था…
वो कमज़ोर थी… वो डगमगा रही थी।

रमुआ ने बक्सा खोला। उसमें एक शीशा था, वही शीशा जिसमें दामिनी आखिरी बार खुद को देखती थी।
उसने जैसे ही खुद को देखा उसकी हँसी बंद हो गई।

वो घबरा गई…
“ये… ये कौन है?”
उसकी मुस्कान कांपने लगी…
उसके होंठ थरथराने लगे…
“मैं… मैं तो हँसती थी… अब… अब ये डर कौन है?”

झूला रुक गया। हवेली की दीवारें फटने लगीं।

एक ज़ोरदार चीख गूंजी। लेकिन अब वो हँसी नहीं थी, वो दर्द था।

धीरे-धीरे हवेली गिरने लगी।
और फिर…
सब शांत हो गया।

गांव में पहली बार 30 सालों बाद एक रात ऐसी आई जब कोई हँसी नहीं गूंजी। लोग धीरे-धीरे वापस आने लगे, मंदिर फिर से खुल गए।

पर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई…

दो साल बाद, गांव में एक छोटा बच्चा झूले पर बैठा खेल रहा था। उसकी मां रसोई में थी कि अचानक उसे अपने बेटे की हँसी सुनाई दी —
“ही… ही… ही…”

उसने झाँक कर देखा झूले पर उसका बेटा अकेला नहीं था।

बगल में बैठी थी एक लड़की… जली हुई, अधजले होंठों पर वही मुस्कान…
“तू भी हँस ना…”

क्या डर वापस आ चुका है?
या वो हँसी अब किसी और रूप में लौट आई है?
शायद अगली बार वो किसी और के घर से गूंजे… और अगला नाम… तुम्हारा हो…