भूल-76
राज्यों का अस्त-व्यस्त पुनर्गठन
भारत में अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों की अपनी बिल्कुल अलग भाषा है और उनके साथ संस्कृति, रीति-रिवाजों, पहनावों, संगीत, नृत्य, कला, साहित्य आदि का एक अलग संग्रह जुड़ा हुआ है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जिनमें शायद खुद को अंग्रेज माननेवाले जैसे कि नेहरू शामिल नहीं थे, लोगों के अपनी मातृभाषा और संबद्ध संस्कृतियों के प्रति प्रेम तथा जुड़ाव और साथ ही उन्हें आजादी के कारण से जोड़ने की उसकी ताकत को बेहद गहराई से जानते थे; क्योंकि राजनीतिक स्वतंत्रता का सीधा सा मतलब अंग्रेजी और औपनिवेशिक संस्कृति से छुटकारा तथा उसके स्थान पर उनकी मातृभाषा और उनकी संस्कृति को अपनाना भी होता।
इसलिए, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े नेताओं के लिए यह पूरी तरह से स्वाभाविक था कि उन्होंने बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही इस बात को लेकर योजना तैयार कर ली हो कि कैसे स्वतंत्रता के बाद भारत को उनकी प्रमुख भाषाओं के आधार पर पुनर्गठित किया जाना चाहिए, ताकि संबंधित क्षेत्रों के निवासी अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सकें और उनकी भाषा एवं संस्कृति फले-फूले। कांग्रेस पार्टी ने खुद को सन् 1917 में ही इस काम के लिए प्रतिबद्ध कर लिया था। महात्मा गांधी की प्रेरणा और मार्गदर्शन में कांग्रेस द्वारा बनाए गए संविधान में भारत को प्रांतों में विभाजित किया गया था, जिसके मुख्यालय और भाषाएँ निम्नानुसार थे—
प्रांत (मुख्यालय) : भाषा
1. अजमेर-मेरवाड़ा (अजमेर) : हिंदुस्तानी
2. आंध्र (मद्रास) : तेलुगु
3. असम (गुवाहाटी) : असमिया
4. बिहार (पटना) : हिंदुस्तानी
5. बंगाल (कलकत्ता) : बंगाली
6. बॉम्बेसिटी (बॉम्बे) : मराठी-गुजराती
7. दिल्ली (दिल्ली) : हिंदुस्तानी
8. गुजरात (अहमदाबाद) : गुजराती
9. कर्नाटक (धारवाड़) : कन्नड़
10. केरल (कालीकट) : मलयालम
11. महाकोशल (जबलपुर) : हिंदुस्तानी
12. महाराष्ट्र (पूना) : मराठी
13. नागपुर (नागपुर) : मराठी
14. एन.डब्ल्यू.एफ.पी. (पेशावर) : पश्तू
15. पंजाब (लाहौर) : पंजाबी
16. सिंध (कराची) : सिंधी
17. तमिलनाडु (मद्रास) : तमिल
18. संयुक्त प्रांत (लखनऊ) : हिंदुस्तानी
19. उत्कल (कटक) : उड़िया
20. विदर्भ-बरार (अकोला) : मराठी।
यहाँ तक कि प्रांतीय कांग्रेस समितियाँ (पी.सी.सी.) भी भाषाई क्षेत्रों के आधार पर थीं, जैसे उड़ीसा पी.सी.सी., कर्नाटक पी.सी.सी. इत्यादि। विभिन्न राज्यों और भाषाई क्षेत्रों से ताल्लुक रखनेवाले स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े नेता इसको लेकर पूरी तरह से सहमत थे; इसे लेकर कोई दो राय नहीं थी।
किसी ने भी यह नहीं सोचा होगा कि यह नीति प्रकृति में विभाजनकारी और राष्ट्रीय एकता के लिए बड़ा खतरा साबित होगी। देश में कई भाषाएँ व संस्कृतियाँ थीं और यह बात एक जमीनी हकीकत है। अगर इसका मतलब विभाजनकारी प्रवृत्ति थी तो यह तब भी मौजूद रहती, चाहे इसके आधार पर अलग राज्यों का निर्माण किया जाता या नहीं। इसके बिल्कुल उलट, प्रमुख भाषा-क्षेत्रों के आधार पर राज्यों का गठन न करके लोगों के बीच असंतोष, क्रोध, हताशा एवं उत्पात के चलते कटुता और विभाजनकारी प्रवृत्तियों के पनपने की अच्छी संभावना थी।
वे लोग, जो जमीन से जुड़े थे और वास्तव में भारत को समझते थे (और जिन्हें ‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ करने की आवश्यकता नहीं थी), वे इस बात को बहुत अच्छे से जानते थे कि हजारों वर्षों के दौरान और संकट के समय में वह चीज, जो भारत को एक रखने में कामयाब रही है, वह है—व्यापक हिंदू धर्म और उससे जुड़े भारतीय जमीन में ही जनमे जैन, बौद्ध, सिख जैसे अन्य आनुषंगिक धर्मों की अति महत्त्वपूर्ण संस्कृति। विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में फैले इस अद्वितीय भारतीय संयोजन ने एक बड़ी इकाई, भारतवर्ष, का निर्माण किया।
हालाँकि, विभाजन के परिणामस्वरूप भारत का हिंदू-मुसलमान के आधार पर विभाजन इस बात पर आधारित था कि भविष्य में इसका भाषाई आधार पर भी विभाजन किया जा सके और एक अनावश्यक डर की मनोविकृति विकसित हो गई। जो बात स्वतंत्रता से पूर्व बेहद शांतिपूर्ण तरीके से और तर्कसंगत रूप से तय कर ली गई थी तथा स्वीकार हो गई थी और जिसे अधिकांश लोगों ने स्वतंत्रता के बाद के सबसे तार्किक कदम के रूप में देखा था, उसे जबरदस्ती एक आतंक, तर्कहीन प्रतिक्रियाओं के जरिए धार्मिक आधार पर किए गए सांप्रदायिक विभाजन का रूप दे दिया गया।
नेहरू सरकार ने भारत के पुनर्गठन के सभी पहलुओं को जानने और सिफारिशें करने के लिए एक सक्षम संस्था बनाने के बजाय पूरे मामले को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने की माँग की।
माहौल खराब होने लगा। सबसे पहले आंध्र में। सरकार ने आंदोलन को दबाने का पूरा प्रयास किया। वे जितनी अधिक कोशिश करते, स्थितियाँ उतनी ही अधिक विकट होती जातीं। आखिरकार, सरकार को झुकना पड़ा और सन् 1953 में आंध्र प्रदेश राज्य की स्थापना हुई। डॉ. धनंजय कीर ने अपनी पुस्तक ‘डॉ. आंबेडकर : लाइफ ऐंड मिशन’ में लिखा—
“डॉ. आंबेडकर ने 2 सितंबर, 1953 को भाषाई राज्यों के गठन को लेकर उसकी ढुलमुल नीति के लिए सरकार की आलोचना की। उन्होंने पूरी दृढ़ता के साथ इस बात को दोहराया कि भाषाई आधार पर पुनर्गठन से भारत के विघटन का रास्ता खुलेगा। उन्होंने माना कि आंध्र प्रदेश राज्य के गठन के लिए पोट्टी श्रीरामालु को अपने जीवन का बलिदान देना पड़ा। उन्होंने आगे जोड़ा कि अगर किसी और देश में एक व्यक्ति को उस सिद्धांत को लागू करवाने के लिए अपने जीवन का बलिदान देना पड़ता, जिसे पहले से ही स्वीकार किया जा चुका हो, तो इस बात की पूरी संभावना है कि वहाँ की जनता ने उस देश की सरकार को सजा दे दी होती।” (डी.के./449)
तमाम हिंसा, संपत्ति के नुकसान और अलग-अलग भाषाओं को बोलनेवाले लोगों के बीच कटुता से आसानी से बचा जा सकता था। इसके लिए सरकार को सिर्फ इतना करना था कि वह एक ऐसे निकाय का गठन करती, जो इस मुद्दे को तर्कसंगत रूप से और शांतिपूर्वक सुलझाता। अंततः सन् 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग (एस.आर.सी.) का गठन किया गया।
महाराष्ट्र, गुजरात और बंबई के मामले को एक बार फिर लंबे समय तक लटकाकर रखा गया, जिसके परिणामस्वरूप आंदोलन और हिंसा हुई। नेहरू को आखिरकार झुकना ही पड़ा। 1 मई, 1960 को महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों का गठन किया गया।
इससे स्पष्ट होता है कि नेहरू सरकार के पास ठीक समय पर ठीक काम को करने की प्रज्ञता का अभाव था और उन्होंने खुद के लिए और देश के लिए ऐसी समस्याएँ खड़ी कीं, जिनसे आसानी से बचा जा सकता था। उन्होंने लोगों की माँग और उम्मीदों के बारे में तब सुना, जब उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया गया। आपने जो कुछ किया है, अगर आपके पास उसके लिए वास्तव में कुछ महान् और वैध कारण थे तो आपको अपने रुख पर अड़े रहना चाहिए, यहाँ तक कि अगर आप अलोकप्रिय भी हो जाएँ और अगले चुनावों में जनता आपको बाहर का रास्ता दिखा दे तो भी। इसका नकारात्मक पहलू क्या था, अगर कोई था भी तो? कुछ भी नहीं। भाषाई राज्यों ने कभी अलग होने की बात नहीं की। भारतीय एकता वास्तव में और अधिक मजबूत ही हुई। विभिन्न भाषाई राज्यों की भाषाएँ और संस्कृतियाँ पहले की स्थितियों की तुलना में अधिक फलीं-फूलीं।