भूल-74
पुराने ‘अच्छे’ दिनों में भाई-भतीजावाद
इंदिरा की वंशवादी प्रवृत्ति की तुलना में नेहरू के पास भाई-भतीजावाद की प्रवृत्ति थी। वर्ष 1947-64 के नेहरूवादी युग के दौरान कई पंडित, सप्रू, कौल, काटजू, धर, नेहरू और उनके परिजन विभिन्न सरकारी पदों पर काबिज थे।
नेविल मैक्सवेल ने लिखा—“एक अधिकारी (गैर-कश्मीरी, गैर-ब्राह्मण), जिसने कुछ समय तक नेहरू के साथ काम किया, ने लिखा कि प्रधानमंत्री के दुश्मन कहते थे कि प्रतिभा की उनकी तलाश और प्रतिभा को चिह्नित करने की उनकी योग्यता सिर्फ उन लोगों तक ही सीमित थी, जो उनके आसपास मौजूद हैं और विशेषकर कश्मीरियों तक और उनमें से भी उनके लिए, जो किसी-न-किसी तरह से नेहरू-परिवार से जुड़े हुए थे।” (मैक्स/187)
एक आई.ए.एस. अधिकारी एम.के.के. नायर ने लिखा—
“भारत को स्वतंत्रता के बाद राजनयिक कार्य करने के लिए एक संवर्ग की आवश्यकता थी। संघ लोक सेवा आयोग को इसे बनाने के अधिकार के साथ निहित किया गया था। एक आई.सी.एस. अधिकारी कृपलानी आयोग का नेतृत्व कर रहे थे और एक तमिलियन ग्रुब और एक महाराष्ट्रियन पुराणिक इसके सदस्य थे।
“जिन युवाओं के पास आवश्यक योग्यता थी, उन्हें साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। इसके आधार पर एक नए संवर्ग (जिसे अब ‘भारतीय विदेश सेवा’ के नाम से जाना जाता है) के लिए नियुक्त किए गए व्यक्तियों की सूची की सिफारिश सरकार को भेज दी गई। वाजपेयी सहित अन्य लोग इस सूची से नाराज थे। उनमें से किसी के भी बच्चे या दामाद उसमें नहीं थे। उसके चलते उन्होंने नेहरू को एक अर्जी भेजी, जिसमें लिखा था—‘हम एक नया संवर्ग प्रारंभ कर रहे हैं। अभी कोई भारतीय राजनयिक सेवा नहीं है। ब्रिटिश विदेश कार्यालय ने काम किया है। जब हम एक नया राजनयिक संवर्ग शुरू करते हैं तो इसके लिए चयनित होनेवाले युवा उनसे बिल्कुल अलग होने चाहिए, जिनका चयन अन्य संवर्गों के लिए किया गया है। आयोग के पास ऐसे संवर्ग के लिए उपयुक्त व्यक्तियों का चयन करने का अनुभव नहीं है और इसके द्वारा अनुशंसित लोग हमारे लिए उपयुक्त नहीं हैं।
“इस संवर्ग में नियुक्त किए जानेवालों के चयन के लिए एक विशेष समिति का गठन किया जा सकता है। इस विशेष समिति के सदस्य के रूप में ऐसे लोगों को चुना जाना चाहिए, जिनके खुद के पास कूटनीतिक सेवा का लंबा अनुभव हो। इसी वजह से हमारा मानना है कि आयोग द्वारा तैयार की गई सूची को अस्वीकार कर दिया जाए और उम्मीदवारों के चयन का काम एक नई समिति के हाथों में सौंपा जाए।
“यह ज्ञात नहीं है कि क्या नेहरू ने जैसी सिफारिश की गई थी, वैसा किया या नहीं; लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया। कृपलानी ने जब यह सुना तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अपने इस्तीफे के लिए किन्हीं विशिष्ट कारणों का उल्लेख तो नहीं किया, बल्कि व्यक्तिगत असुविधा का बहाना बनाया। वाजपेयी ने सिफारिश की और नेहरू ने उसे स्वीकार कर लिया।
“आयोग द्वारा पहले चुने गए लोगों में से कइयों के नाम पर विचार किए बिना एक नई समिति (विशेष चयन बोर्ड) ने बिल्कुल नए सिरे से चयन शुरू किया। राम और मैं आयोग की सूची में सोलहवें तथा अठारहवें स्थान पर थे। नई समिति ने हमारे नाम पर विचार तक नहीं किया और इसके चलते हमने आई.एफ.एस. बनने के मौके को गँवा दिया।
“इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नई समिति द्वारा तैयार की गई सूची में कई ‘काबिल’ व्यक्ति भी शामिल थे—विद्वत्ता के मामले में नहीं, बल्कि अपने लिए दुलहन का चयन करने के मामले में। चयनित लोगों की सूची कुछ ऐसी थी, उनमें से लगभग हर कोई उच्च वर्ग में किसी-न-किसी से जुड़ा हुआ था। यहाँ तक कि समिति के सदस्यों के बच्चे तक भी सूची में स्थान बनाने में सफल रहे। यह बात बिल्कुल भी नहीं मानी जा सकती कि नेहरू को इसका पता न हो कि क्या चल रहा है!” (एम.के.एन.)
नेहरू के व्यक्तिगत निजी सचिव एम.ओ. (मैक) मथाई ने अपनी पुस्तक ‘माई डेज विद नेहरू’ में भी लगभग यही बात कही—
“विशेष चयन बोर्ड (विदेश सेवाओं के लिए) की मेहनत के फल के बावजूद अभिलाषित बहुत कुछ रह गया। बोर्ड के सभी सदस्यों की अपनी-अपनी पसंद और उम्मीदवार थे। कई ऐसे लोग, जिनके संपर्क अच्छे थे और कुछ ऐसे भी, जिनके पास न्यूनतम शैक्षिक योग्यता नहीं थी, वे भी पिछले दरवाजे से विदेश सेवा में प्रवेश पाने में सफल रहे। सरोजिनी नायडू की दूसरी बेटी लैलारानी नायडू को भी चुन लिया गया था। रणबीर सिंह और मोहम्मद यूनुस के विपरीत, उनके पास प्रचुर शैक्षणिक योग्यता और शिक्षण का अनुभव था, लेकिन वे किसी भी राजनयिक कार्य के लिए बेहद तुनकमिजाज अनुपयुक्त थीं। उन्हें विदेश मंत्रालय में उनके पूरे सेवाकाल के दौरान एक अकर्मण्य अधिकारी की तरह रखना पड़ा।” (मैक2/एल-2946-51)
भूल-75
नेहरू और जातिवाद
जातिवाद और सांप्रदायिकता की सार्वजनिक रूप से भर्त्सना करना वैसे तो काफी अच्छा लगता है। यह आपको आधुनिक और उदार दिखाता है। लेकिन वास्तव में, मायने यह रखता है कि आप जातिवाद को मिटाने के लिए वास्तव में क्या करते हैं! भारत के स्वतंत्रता की रोशनी की ओर अग्रसर होने और सभी के पूरी तरह से तैयार होने के चलते आजादी के बाद जातिवाद के दंश से देश को मुक्त करने का एक सुनहरा अवसर था। लेकिन क्या नेहरू ने ऐसा किया? यह बड़े अफसोस की बात है कि देश के किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवारों के चयन के लिए उनकी जाति सिर्फ महत्त्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि बेहद महत्त्वपूर्ण है। नेहरूवादी चुनावी रणनीति ने जातिवाद की नींव को कमजोर करने के बजाय उसे और अधिक मजबूत किया। आज हम जो विषादपूर्ण नजारा देखते हैं, उसके बीज सन् 1952 के पहले चुनावों के दौरान ही बो दिए गए थे।
कांग्रेस की राज्य और केंद्रीय चुनाव समितियों के विचार के लिए तैयार की गई प्रस्तावित उम्मीदवारों की सूची में प्रत्येक उम्मीदवार की जाति से जुड़ा एक बेहद महत्त्वपूर्ण कॉलम था! यह तब भी ऐसा ही था, जब नेहरू खुद केंद्रीय चुनाव समिति के पदेन सदस्य थे।
आप नेहरू की शीर्ष मंडली में कई पंडितों को पाएँगे। क्यों? जातिगत निष्ठा। संयोग से, यह भी अपने आप में एक बड़ी अजीब बात है कि नेहरू, जो खुद को आधुनिक, पश्चिमी, अग्रगामी, धर्मनिरपेक्ष और जाति से ऊपर मानते थे, ने खुद को ‘पंडितजी’ कहने की इजाजत दी!
नेहरू के राज का एक बेहद दिलचस्प प्रसंग है, जो इस बात को दिखाता है कि कैसे उच्च जाति के भारतीय नेताओं ने कई दलितों के सुधार के काम के प्रति सिर्फ दिखावटी प्रेम दिखाया और यह भी कि वे उनकी दयनीय स्थिति के प्रति कितने असंवेदनशील थे—लखनऊ में आयोजित अनुसूचित जाति सम्मेलन, जिसकी अध्यक्षता दलित नेता बाबू जगजीवन राम कर रहे थे, में नेहरू ने अपने उद्घाटन भाषण में अन्य बातों के अलावा कहा कि जो लोग अपने सिर पर मैला ढोने का काम करते थे, वे भगवान् से भी बड़े हैं। इतना सुनते ही बाबू जगजीवन राम तुरंत अपने स्थान से खड़े हुए और जवाब दिया कि इतने वर्षों से इस काम को करते आने के चलते दलित अब भगवान् बन चुके हैं तथा नेहरू और गांधी जिस जाति से ताल्लुक रखते हैं, यह काम अब उन्हें करना चाहिए और भगवान् बनना चाहिए। (यू.आर.एल.118)