सन 1856 अवध राज्य की सीमा पर एक छोटा-सा गाँव था — बसरिया. चारों ओर घना जंगल, बीच में एक पीपल का पुराना पेड़ और उस पेड़ के पीछे… श्मशान घाट। गाँव के बुजुर्गों ने हमेशा चेतावनी दी थी — “सूरज डूबने से पहले घर लौट आना, वरना ‘कालिया मसान’ की परछाईं साथ चली आएगी।”
कालिया मसान... एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही बच्चों के चेहरे पीले पड़ जाते थे और बूढ़ों की आँखों में डर की धुंध छा जाती थी। कहा जाता था, वह एक चांडाल था जो सदियों पहले उस श्मशान में लाशें जलाया करता था, लेकिन एक रात उसने मृतकों की चिताओं से सोना चुराया और श्मशान की आत्माओं का श्राप उस पर पड़ गया। उसकी आत्मा वहीं जलकर, राख में बस गई... और तभी से वह बना मसान का रखवाला।
गांव में एक साहसी युवा था गणेश। उम्र लगभग 19 साल। उसने बुजुर्गों की बातों को झूठी अफवाह समझा और एक रात, शर्त में जीतने के लिए श्मशान की ओर निकल पड़ा।
जैसे ही उसने पीपल के पेड़ के नीचे कदम रखा, हवा में एक सन्नाटा छा गया। जानवरों की आवाजें थम गईं, और चारों ओर की रात मानो ठहर गई। चिता की बची हुई लकड़ियाँ अपने आप चटकने लगीं। गणेश को सब सुना-सुना लग रहा था, पर वह रुका नहीं।
श्मशान के बीचोंबीच एक पुरानी चिता राख में दबी थी, जिस पर लाल सिंदूर से एक तंत्र मंत्र बना हुआ था। गणेश ने जैसे ही उस राख को हाथ लगाया, एक भयानक चीख हवा में गूंजी ऐसी आवाज़, जो किसी इंसान की नहीं थी।
अचानक सब कुछ धुंधला हो गया। हवा ने ठंड की जगह एक अजीब सड़ांध का रूप ले लिया, जैसे किसी जली हुई लाश की बदबू हो। गणेश के पीछे एक काली छाया खड़ी थी — दो जलती हुई आँखें, राख से लथपथ शरीर, और होंठों पर एक डरावनी मुस्कान।
"तूने मुझे जगा दिया..." वो बोला।
गणेश भागा, लेकिन श्मशान अब बदल चुका था — वह एक भूलभुलैया बन गया था। पेड़ की शाखाएँ खुद-ब-खुद आगे बढ़ रहीं थीं, जैसे किसी अदृश्य ताक़त से चल रही हों। हर मोड़ पर उसे एक जली हुई लाश दिखती, कभी किसी औरत की हड्डियाँ, कभी बच्चों की चीखें, और कभी-कभी वह खुद को अपनी ही चिता के सामने खड़ा पाता।
एक जगह उसे अपनी मां की आवाज़ सुनाई दी, "गणेश... लौट आ बेटा..." पर जैसे ही उसने पलटकर देखा — उसकी मां की आँखें बाहर निकली हुई थीं और गले से खून टपक रहा था।
गणेश ने किसी तरह पीपल के पेड़ तक वापसी की, पर वहाँ उसे एक बूढ़ा बाबा मिला जो वही तंत्र-मंत्र बोल रहा था जो राख पर लिखा था।
“तू भाग नहीं सकता, बालक,” बाबा बोला। “तू उसकी छाया बन चुका है।”
गणेश ने देखा — उसकी परछाईं हिल नहीं रही थी, बल्कि जमीन से उठ रही थी... और उसे निगलने की कोशिश कर रही थी।
पूरी रात गणेश चीखता रहा, मगर कोई आवाज़ गाँव तक नहीं पहुँची। सुबह गाँव वालों ने देखा पीपल के नीचे एक और चिता जली थी, राख अभी भी गर्म थी। चिता के पास वही तंत्र मंत्र लिखा था, पर अब उसमें एक नाम और जुड़ चुका था — गणेश।
गाँव में अब हर साल उसी दिन एक और युवक गायब हो जाता है। और श्मशान की चिता से हर बार एक नई परछाई उठती है... कहते हैं, कालिया मसान अब अकेला नहीं रहा।
“अब वो दूसरों को भी अपने जैसा बना रहा है... और अगला कौन होगा, कौन जाने? पर कभी-कभी किसी आत्मा को बांधने की कोशिश, सारे संसार को मुक्त कर देती है… मौत से नहीं, पर मरने की कामना से। और तंत्र की सबसे बड़ी गलती होती है — जब साधक खुद साध्य बन जाए।”
गणेश अब कालिया मसान की छाया बन चुका था। पर अब कहानी एक कदम आगे बढ़ती है उस शक्ति की ओर, जिसने कालिया को बनाया, और उसे रोकने का एकमात्र उपाय भी वही है श्मशान तंत्र विद्या।
बसरिया गाँव के एकांत छोर पर, जंगल के भीतर रहता था एक तांत्रिक "भैरवनाथ"। लंबे जटाजूट बाल, भस्म से सना शरीर और आँखें जो किसी भी इंसान के दिल की गहराई तक देख सकती थीं।
भैरवनाथ कोई सामान्य तांत्रिक नहीं था। वह श्मशान साधना का जानकार था ऐसी साधना, जिसमें रात के तीसरे पहर, चिता की आग के सामने बैठकर मृत आत्माओं से संपर्क साधा जाता है।
उसे खबर मिली “एक नई परछाईं जाग चुकी है, और मसान में अब कोई पुराना नियम नहीं बचा है...”
भैरवनाथ ने श्मशान की ओर रुख किया। अपने साथ उसने चार चीज़ें लीं:
108 जली हुई अस्थियों से बनी भस्मकंठ माला, जो मसान के प्रभाव को रोक सकती थी। दूसरा चक्रव्यूह रेखा – रुद्राक्ष और रक्त से बना एक गोला, जो आत्मा को बांधता है। तीसरी काल निवारण सूत्र जो तांत्रिक मंत्रों से बंधा धागा था, जो मृत्यु की शक्ति को कुछ समय के लिए रोक सकता है। और मृत संजीवनी अग्नि एक विशेष धूप, जिसे जलाने पर मृत आत्माएँ सामने आ जाती हैं।
भैरवनाथ ने रात के तीसरे पहर पीपल के नीचे तांत्रिक चक्र बैठाया और शुरू हुई मसान वध विद्या।
जैसे ही तंत्र शुरू हुआ, श्मशान की हर चिता पर से राख उड़ने लगी। अंधकार में सैकड़ों आत्माएँ भैरवनाथ के चारों ओर घूमने लगीं — जलते हुए चेहरों के साथ, फटी हुई आँखों के साथ।
और तभी, एक धुएँ से भरी हुई परछाईं मद्धम होकर आकार लेने लगी गणेश की आत्मा, अब कालिया मसान की छाया।
उसके चेहरे पर दर्द नहीं था — बल्कि हंसी थी।
“तू सोचता है तुड़का लगाएगा और मुझे बांध देगा, भैरवनाथ? अब मैं अकेला नहीं रहा... अब मसान मेरा दरबार है…”
भैरवनाथ ने भस्मकंठ माला उठाकर मंत्र बोला “ॐ भस्म भूतो भव मसान, तव माया करे विनाश!”
राख हवा में फैल गई। परछाईं चीखी। लेकिन अगले ही पल, राख वापस इकट्ठी होकर एक और परछाईं बन गई। अब वहां दो परछाइयाँ थीं। भैरवनाथ ने चक्रव्यूह रेखा बनाई, लेकिन परछाईं ने अपने ही शरीर से एक कटा हुआ हाथ निकालकर रेखा पर फेंक दिया — और रेखा टूट गई।
तांत्रिक वध का समय आ गया था।
भैरवनाथ ने संजीवनी अग्नि जलाकर चक्र मंत्र बोला — “ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय... कालिया तव वधं करिष्यामि!”
श्मशान की हवा लाल हो गई। धरती काँपने लगी। एक चीख — जो न नर की थी, न नारी की — श्मशान को हिला गई।
अंत में, जब भैरवनाथ ने आत्मा पर अंतिम तांत्रिक मंत्र फेंका, तब गणेश की परछाईं चिल्लाई — “मैं नहीं... कालिया नहीं... हम नहीं... हम वो हैं जिन्हें तुमने मारा था, भैरव!”
भैरवनाथ का चेहरा पीला पड़ गया। उसे याद आया — वर्षों पहले तंत्र की लालसा में उसने कई निर्दोषों की बलि दी थी। ये परछाइयाँ उसी का प्रतिशोध थीं।
उनकी आत्माएँ अब कालिया मसान का हिस्सा बन चुकी थीं। और अब, उनका अगला शिकार था — भैरवनाथ।
सुबह जब गाँव वालों ने श्मशान देखा, वहाँ एक नई चिता जली थी — और उसके पास सिर्फ एक चीज़ पड़ी थी भस्मकंठ माला।
उस राख पर लिखा था —
“अब तंत्र हमारा है… अगला तांत्रिक कौन?”
[अगर आप चाहें, तो मैं "भाग 3 – मसान का दरबार" भी लिख सकता हूँ, अगर है तो कमेंट कीजिए।]