"अगर किसी की असमाप्त मुंडन संस्कार की आत्मा भटकती रहे, तो वह 'मुंजा' बन जाती है... अधूरी, प्यास से भरी और प्रतिशोध की आग में जलती हुई आत्मा।"
ये बात गांव के बुजुर्ग अकसर चूल्हे के पास बैठकर सुनाते थे। लोग इसे डराने की कहानी मानते रहे... जब तक गांव के हर घर में बच्चे सोते वक्त चीखने न लगे। जब तक आधी रात को पीपल के पेड़ पर एक नंगी, झुलसी हुई आकृति हँसती हुई न दिखाई दी हो।
और तब समझ आया कि मुन्जा सिर्फ एक कहानी नहीं थी... वो एक सच्चाई थी खून से लिखी गई।
ब्रिटिश राज से कुछ वर्ष पहले की बात है। महाराष्ट्र के एक छोटे-से गाँव साकरवाड़ी में, एक धनी ब्राह्मण परिवार रहता था। घर का इकलौता बेटा था बल्लू, मात्र 9 वर्ष का। उसका मुंडन संस्कार निर्धारित हुआ था, पर संस्कार के दिन ही गाँव में महामारी फैल गई। डर के कारण अनुष्ठान अधूरा छोड़ दिया गया। कुछ दिनों बाद बल्लू की मौत हो गई।
परंतु उसकी चिता जलते समय उसकी माँ का विलाप गूंज रहा था —
"मेरा बेटा अधूरा रह गया... उसका मुंडन नहीं हुआ... वह कभी मुक्त नहीं होगा..."
गांव वालों ने इसे एक माँ का दुःख माना… पर वह दुःख जल्द ही भयानक सच में बदल गया।
कुछ महीनों बाद, हर पूर्णिमा की रात को गाँव के बाहरी इलाके के पुराने श्मशान में अजीब घटनाएं होने लगीं। वहां पास बहती नदी के किनारे एक पीपल का पेड़ था — वहीं से चीखें आने लगीं।
गाँव की एक विधवा महिला, जो नदी से पानी लेने गई थी, सुबह मरी पाई गई उसका चेहरा डर से विकृत था, आंखें बाहर निकली हुई, और सिर पूरी तरह मुंडा हुआ था... जबकि वह स्त्री थी।
बच्चों ने दावा किया कि उन्होंने एक बच्चे जैसा दिखने वाला मगर झुलसा हुआ, कंकाल जैसी त्वचा वाला जीव देखा, जो पीपल पर उल्टा लटका हुआ था। उसकी आँखें चमक रही थीं और उसके हाथों में कुनकुंवा (सिंदूर की डिब्बी) थी।
धीरे-धीरे गाँव में लोगों ने अपने बच्चों को अकेले बाहर भेजना बंद कर दिया।
गाँव का एक नौजवान पुजारी नरहरि जो बल्लू के परिवार को जानता था, उसने पुरानी पोथियाँ और वेद मंत्रों में पढ़ा था कि—
“यदि कोई बालक मुंडन से पहले मर जाए, तो उसकी आत्मा अधूरी रहती है और वह ‘मुन्जा’ बनकर संसार में लौटती है। वह सिर्फ अपना अधूरा संस्कार पूरा करवाना चाहती है... लेकिन अगर वह पीड़ा में मरे, तो उसका मोह क्रोध बनकर सबको भस्म कर सकता है।”
नरहरि ने गांववालों को चेतावनी दी कि अगर मुन्जा को उसकी मुक्ति न दी गई, तो वह हर बच्चे के मुंडन को शापित कर देगा और पूरे गाँव में रक्तपात होगा।
नरहरि ने गांव के सबसे पुराने पीपल के नीचे बल्लू के अधूरे मुंडन को पूरा करने का निर्णय लिया। चारों ओर मंत्रोच्चारण, हवन और आहुति दी गई।
जैसे ही अंतिम आहूति दी गई, एक तेज़ आंधी चली। पेड़ पर से मुंजा कंधों के बल उल्टा झूलता हुआ ज़मीन पर गिरा। उसकी आँखों से आग निकल रही थी, बालों का गुच्छा हाथ में था और वह चीख रहा था:
"मेरे बिना पूछे... मेरा मुंडन कौन कर सकता है?"
उसने नरहरि की ओर दौड़ लगाई। गांव के लोग डर के मारे भाग गए। नरहरि ने आखिरी बार "ॐ स्वाहा" कहते हुए अग्नि में छलाँग लगा दी। एक भयानक चीख के साथ सब शांत हो गया।
लोगों को लगा मुंजा अब चला गया। गाँव में फिर से मुंडन होने लगे, शांति लौट आई।
लेकिन एक दिन, बल्लू के पुराने घर में रहने वाली एक नवविवाहित स्त्री ने अपने पहले बच्चे का मुंडन किया। उस रात जब वो अपने बेटे को झूले में सुला रही थी, तो उसने सुना —
"मेरा मुंडन तुमने अधूरा कर दिया... अब मैं तेरे बेटे का पूरा करूंगा..."
सुबह, झूला खाली था। खिड़की खुली हुई, और बाहर पीपल के नीचे एक छोटे सिर के बाल पड़े हुए थे…
"मुंजा अब केवल एक आत्मा नहीं… वो एक परंपरा बन गया है। अधूरा मुंडन मत करना… नहीं तो अगला नंबर… तुम्हारा है…"
अगर आप अगली बार किसी बच्चे का मुंडन देखो... और अचानक हवा ठंडी होने लगे... तो पलट कर मत देखना... मुंजा देख रहा है।