भूल-51
श्रीलंका की तमिल समस्या पर कोई पहल नहीं की
यह बेहद दुःखद है कि भले ही दो लोग (सिंहली और तमिल) एक ही सभ्यता की पृष्ठभूमि से आते हों, इसके बावजूद दोनों एक-दूसरे से असहमत ही रहते हैं। भारत के गुजरात और सिंध (कुछ उड़ीसा कहते हैं) के कुछ लोग पलायन करके श्रीलंका चले गए और उन्होंने सिंहली राजवंश की स्थापना की थी। इतिवृत्त (महावंश और दीपवंश) छठी शताब्दी ईसा पूर्व में विजया की स्थापना के बारे में बताते हैं।
यह बेहद अफसोसजनक है कि श्रीलंकाई तमिल समस्या को फलने-फूलने दिया गया और नेहरू ने ’50 के दशक में, जब इस समस्या को आसानी से सुलझाया जा सकता था, इसे सुलझाने के लिए न के बराबर प्रयास किया और यह बदतर हो गई।
‘सन् 1948 का श्रीलंका नागरिकता अधिनियम’ और ‘1956 का आधिकारिक भाषा अधिनियम’ दोनों ने ही तमिलों को प्रतिकूल परिस्थितियों में डाल दिया। श्रीलंका सन् 1958 में तमिलों की तबाही का गवाह बना, जो करीब-करीब जन-संहार जैसा हो गया था। हर जगह तमिलों पर बेहद निर्दयता के साथ हमला किया गया और उनकी संपत्तियों को या तो जला दिया गया या फिर लूट लिया गया। सिंहलियों की भीड़ ने कई तमिलों पर मिट्टी का तेल डालकर उन्हें जिंदा ही जला दिया। हजारों तमिल या तो घायल हुए या फिर मारे गए। कई आंतरिक रूप से विस्थापित हो गए। यह राज्य द्वारा प्रायोजित आतंक की घटना थी।
भारत में उस समय के अॉस्ट्रेलियाई राजदूत, वॉल्टर क्रॉकर, अपनी पस्तु क ‘नेहरू : ए कंटेंपरेरीज एस्टीमेट’ (क्रॉकर) में लिखते हैं कि एक तरफ जहाँ भारत और नेहरू यूरोपीय उपनिवेशों में अफ्रीकियों के साथ किए जा रहे बरताव के खिलाफ इतनी बड़ी-बड़ी बातें करते थे, जो बिल्लकु उचित भी था; लकिन इसके बिल्लकु उलट, जब बात सीलोन में तमिलों के साथ होनेवाले दुर्व्यवहार की आई तो उन्होंने कुछ नहीं किया। क्रॉकर लिखते हैं—“...और सीलोन में भारतीयों को उस दुर्व्यवहार से बचाने के लिए बहुत कम प्रयास किए गए, जो उस बरताव से कहीं अधिक बुरा था, जैसा अफ्रीका में मौजूद यूरोपीय उपनिवेशों में अफ्रीकियों के साथ किया जाता है।”
लेकिन यही तो नेहरू की विशेषता थी। उन्होंने दूर-दराज के क्षेत्रों में होनेवाले भेदभाव और बर्बरता की तो खुलकर निंदा की (दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत लोगों के खिलाफ), लेकिन बिल्कुल पड़ोस में ही अपने लोगों पर हो रहे अत्याचार पर रहस्यमयी चुप्पी साधे रहे—पूर्वी पाकिस्तान (अब बँगलादेश) में हिंदुओं के खिलाफ या श्रीलंका में तमिलों के खिलाफ; क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान में तो सिर्फ वार्त्ता की ही आवश्यकता थी, जबकि श्रीलंका में काररवाई करना भी आवश्यक था!
अगर भारत ’50 के दशक में ही वह करने में कामयाब होता, जो आवश्यक था तो इस बात की पूरी संभावना है कि श्रीलंका के तमिलों और सिंहलियों को उस परेशानी से काफी हद तक बचाया जा सकता था, जिससे उन्हें रू-बरू होना पड़ा। और ऐसे ही मामलों में किसी भी नेता के नेतृत्व के गुणों की असल परीक्षा होती है।
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भूल-52
नेहरू युग के त्रुटिपूर्ण मानचित्र
भारतीय मानचित्रों में एक गलती अरुणाचल प्रदेश के एक क्षेत्र (जो आकार में सिक्किम या फिर गोवा जितना बड़ा है) को चीन के हिस्से के रूप में दरशाती है। इस त्रुटि को अब तक भी सुधारा नहीं गया है।
23 अगस्त, 2014 को ‘द संडे गार्जियन’ में माधव नालापत के छपे एक लेख (यू.आर.एल.29) के नीचे दिए गए अंश स्वतः स्पष्ट हैं—
“प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अगस्त 2013 में अपनी ही सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा भारत के आधिकारिक मानचित्रों में मौजूद गंभीर त्रुटियों को सुधारने के अनुरोध को ठुकरा दिया, जो 50 साल से भी अधिक पुरानी थी। इसका प्रभाव यह था कि आधिकारिक नक्शों की इस चूक ने चीन को गलती से अरुणाचल प्रदेश के दो ‘फिशटेलों’ का नियंत्रण सौंप दिया, जो आकार में सिक्किम या फिर गोवा जितनी बड़ी थीं और जिनमें लगातार भारतीय नागरिकों की बसावट मौजूद थी।...
“ ...अरुणाचल प्रदेश में मौजूद दो ‘फिशटेल’ संरचनाओं को 1960 के दशक के दौरान सर्वे अॉफ इंडिया द्वारा तैयार किए गए मानचित्रों से हटा दिया गया; हालाँकि यह क्षेत्र हमेशा से ही भारत के नियंत्रण में रहा था। इस बात का कोई सार्वजनिक रिकॉर्ड मौजूद नहीं है कि आखिर इतनी महत्त्वपूर्ण त्रुटि क्यों और कैसे की गई? सन् 1962 में इस वास्तविकता को जानने पर कि यह क्षेत्र वास्तव में भारतीय है, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के जवान, जिन्होंने नवंबर 1962 में इन फिशटेलों पर कब्जा कर लिया था, उसी महीने बीजिंग द्वारा किए गए एकतरफा संघर्ष-विराम के बाद वहाँ से हट गए।
“उसके बाद से और पूर्व में भी दोनों फिशटेलों के बीच का क्षेत्र हमेशा से ही हमारे सैनिकों के और साथ ही मिश्मी जनजाति के भी कब्जे में रहा है, जो भारतीय नागरिक ही हैं। ‘इस क्षेत्र पर हमारा निर्विवाद दावा है और इसे दिखाने के लिए हमारे मानचित्रों को अपडेट किए जाने की आवश्यकता है।’ एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा।
“ ...जब यह पूछा गया कि क्यों हमारे आधिकारिक मानचित्र इस वास्तविकता को नहीं दरशाते हैं कि फिशटेल वास्तव में भारतीय क्षेत्र हैं, तो जवाब था कि ‘चूँकि यह त्रुटि नेहरू के समय हुई थी, इसलिए यह महसूस किया गया कि इन मानचित्रों को आधिकारिक तौर पर सुधारने से ऐसा लगेगा कि यह गलती प्रधानमंत्री के स्तर पर हुई है, जिसके चलते उनका नाम बदनाम होगा।’
“एक सेवानिवृत्त अधिकारी का कहना है कि ‘हर सरकार ने 1940 के दशक के बाद के तथ्यों को सार्वजनिक करने से मना करके नेहरू की प्रतिष्ठा को बचाने का काम किया है, क्योंकि उन्हें ऐसा होने पर नेहरू की छवि के बिगड़ने का खतरा था।’ वे और उनके एक सहयोगी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा वर्ष 2013 में मानचित्र को औपचारिक रूप से बदलने से इनकार करने को (‘राजनीतिक प्राधिकार के साथ विचार-विमर्श’ के बाद) नेहरू की विफलताओं से जुड़ी जानकारियों को सार्वजनिक करने से इनकार करके उनकी प्रतिष्ठा को बचाए रखने के प्रयास के रूप में देखा। इन विफलताओं में सन् 1962 के युद्ध से संबंधित हेंडरसन ब्रूक्स रिपोर्ट को गोपनीय रखने का निर्णय या फिर यहाँ तक कि नेहरू की विफलताओं को सुधारकर उन पर ध्यान दिलवाने से बचना भी शामिल है।
“दिलचस्प बात यह है कि एक वरिष्ठ (अब सेवानिवृत्त) अधिकारी के मुताबिक, इन दोनों फिशटेलों को भारतीय क्षेत्र के बाहर दिखाए जाने के मामले को वास्तव में ‘वर्ष 2010 में आई.टी.बी.पी. के (तत्कालीन) डायरेक्टर जनरल द्वारा तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम के संज्ञान में लाया गया था, साथ ही वर्ष 2011 और 2013 में चीनी सैनिकों के इस क्षेत्र में घुसपैठ करने से जुड़ी रिपोर्टों को भी लाया गया था; लेकिन उनकी प्रतिक्रिया कुछ भी न करनेवाली रही।” (यू.आर.एल.29)