भूल-50
सिंधु जल संधि : हिमालयी भूल
नेहरू की हिमालयी गलतियाँ
एक देश के रूप में तिब्बत को हटाना: भूल#33-4
सिंधु जल संधि (आई.डब्ल्यू.टी.): भूल#50
भारत-चीन युद्ध: भूल#35-6
“बमों और गोलीबारी के जरिए कोई भी सेना किसी जमीन को उतना अच्छे से तबाह नहीं कर सकती, जितना भारत द्वारा पाकिस्तान को जानेवाले उन जल-स्रोतों को बंद करने के साधारण कदम से पाकिस्तान को किया जा सकता है, जो पाकिस्तान के लोगों और खेतों को हरा-भरा रखते हैं।”
—डेविड लिलिएंथल, पूर्व प्रमुख, टेनेसी वैली अथॉरिटी, अमेरिका (स्व6)
“ ‘एक्वा बम’ वास्तव में भारत के पास पाकिस्तान के खिलाफ सबसे शक्तिशाली हथियार है। ऊपरी तटवर्ती क्षेत्र होने के चलते भारत सिंधु बेसिन में बहनेवाली सात नदियों के बहाव को आसानी से नियंत्रित कर सकता था।” (स्व6)
सिंधु तंत्र की छह नदियों के पानी के बँटवारे को लेकर सन् 1960 में हुई ‘भारत-पाकिस्तान सिंधु जल संधि’ (आई.डब्ल्यू.टी.) में नेहरू ने पर्याप्त से कहीं अधिक देने पर हामी भर दी, वह भी भारत की भविष्य की आवश्यकताओं की कल्पना किए बिना; यहाँ तक कि उन्होंने इसके बदले में जम्मूव कश्मीर विवाद को निबटाने की भी नहीं सोची। ऊपरी तटवर्ती क्षेत्र होने के चलते भारत अपनी मरजी चला सकता था; लकिे न नेहरू ने बेवकूफी भरा कदम उठाते हुए विश्व बैंक (अमेरिका और पश्चिम द्वारा अपने हिसाब से चलाया जानेवाला) की मध्यस्थता पर रजामंदी जताकर अपनी बढ़त को गवां दिया। (स्व6)
सन् 1960 में हुई ‘भारत-पाकिस्तान सिंधु जल संधि’ 1954 में हुए भारत-चीन के पंचशील समझौते के समानांतर है। दोनों में बेहद उदारता से ‘बहुत कुछ छोड़ दिया गया’ था, लेकिन बदले में कुछ भी ‘लिया’ नहीं गया था और दोनों ही नेहरू की देन थे। ब्रह्मा चेलानी ने लिखा—
“जवाहरलाल नेहरू ने तब जम्मूव कश्मीर के हितों की अनदेखी की और काफी हद तक पंजाब की भी, जब 1960 में उन्होंने ‘सिंधु जल संधि’ पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत भारत ने बड़ा दिल दिखाते हुए सिंधु नदी तंत्र की छह नदियों में से तीन सबसे बड़ी नदियों को विशेष रूप से नीचे की ओर स्थित पाकिस्तान के लिए छोड़ने पर सहमति जताई। प्रभाव में भारत ने एक असाधारण संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसमें सिंधु तंत्र के 80.52 प्रतिशन पानी को अनिश्चित काल के लिए, विशेष रूप से सिर्फ पाकिस्तान के लिए, छोड़ने का प्रावधान था और यह आधुनिक विश्व इतिहास का अब तक का सबसे उदार जल-समझौता है।
“वास्तव में, ‘सिंधु जल संधि’ के तहत भारत द्वारा पाकिस्तान के लिए निर्धारित की गई पानी की मात्रा अमेरिका द्वारा मेक्सिको के लिए सन् 1944 की ‘अमेरिका-मेक्सिको जल संधि’ के तहत छोड़े जानेवाले पानी की मात्रा से 90 गुना अधिक है, जो कोलोराडो नदी के पानी के 1.85 अरब घन मीटर सालाना वितरण की न्यूनतम सीमा को निर्धारित करता है।
“क्लिंटन द्वारा एक तीस्ता संधि की वकालत किए जाने के बावजूद सच्चाई यह है कि कभी बेहद ताकतवर रही कोलोराडो नदी के पानी को सात अमेरिकी राज्यों में बाँटा जाता है और मेक्सिको के लिए बहुत कम मात्रा ही बचती है।
“नेहरू और भारत ने इस बात की परिकल्पना ही नहीं की (या फिर आप इसे उनके स्तर पर दूरदर्शिता का अभाव भी कह सकते हैं) कि विकास और जनसंख्या के दबाव के परिणामस्वरूप जल संसाधन गंभीर संकट में भी आ सकते हैं। आज की तारीख में, जब सिंधु तंत्र का अधिकांश पानी आतंक के जरिए भारत के साथ छद्म युद्ध कर रहे पाकिस्तान में बहना जारी है और 2030 जल संसाधन समूह के अनुसार, भारत के अपने सिंधु बेसिन में पानी की आपूर्ति और माँग के बीच 52 प्रतिशत की कमी बनी हुई है।
“इससे भी बदतर यह है कि इस संधि ने जम्मूव कश्मीर को उसके इकलौते संसाधन से भी वंचित कर दिया है, जो है पानी। राज्य की तीन मुख्य नदियाँ—चिनाब, झेलम (जो सिंधु तंत्र की सभी छह नदियों का सबसे बड़ा क्रॉसबॉर्डर डिस्चार्ज बनाती हैं) और मुख्य सिंधु धारा—पाकिस्तान के उपयोग के लिए आरक्षित हैं, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय राज्य में अलगाव और रोष को बढ़ावा मिलता है।
“इसके चलते जम्मूव कश्मीर राज्य विधायिका को सन् 2002 में सिंधु जल संधि की समीक्षा और इसे रद्द करने के लिए एक द्वि-दलीय प्रस्ताव पारित करने पर मजबूर होना पड़ा। राज्य में बड़े पैमाने पर आक्रोश का कारण बननेवाली बिजली की भारी कमी, जो उसके विकास को प्रभावित कर रही है, से निबटने के लिए केंद्र सरकार ने बाद में बागलिहार और किशनगंगा जैसी जल विद्युत् परियोजनाओं की रूपरेखा तैयार की। लेकिन पाकिस्तान बागलिहार परियोजना को विश्व बैंक द्वारा नियुक्त अंतरराष्ट्रीय तटस्थ विशेषज्ञ और किशनगंगा को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले गया, जिन्होंने बीते साल ही परियोजना के सभी कार्यों पर पूरी तरह रोक लगा दी।” (यू.आर.एल.48)
हैरान करने वाली बात यह है कि नेहरू ‘सिंधु जल संधि’ जैसे अंतरराष्ट्रीय जल मुद्दे का निपटारा करने में तो सक्षम थे, क्योंकि इसमें भारत की ओर से केवल उदारता से बाँटना ही शामिल था, लेकिन वे भारत के अपने आंतरिक नदी जल से जुड़े विवादों को निपटाने में विफल रहे; जैसे— नर्मदा के जल को साझा करना या कृष्णा-कावेरी विवाद से संबंधित।