भूल-39
सशस्त्र बल-विरोधी
हो सकता है कि यह थोड़ा अजीब लगे, लेकिन नेहरू सत्ता में बने रहने को लेकर इतने अधिक जुनूनी थे, साथ ही सेना के तख्तापलट की संभावना को लेकर बेवजह और अविवेकपूर्ण तरीके से चिंतित थे कि वे इस संभावना को मात देने के लिए पागलपन की हद तक पहुँच गए— यहाँ तक कि भारतीय सुरक्षा, भारतीय बाह्य सुरक्षा और सेना के मनोबल को नुकसान पहुँचाने के स्तर तक भी।
शीर्ष नौकरशाही ने सेना के प्रति नेहरू के संदेह एवं पूर्वाग्रह को भाँप लिया और बेहद चतुराई से एक नोट का दाँव चलते हुए सशस्त्र सेना मुख्यालय को रक्षा मंत्रालय के ‘संलग्न’ कार्यालय के रूप में घोषित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप यह सुनिश्चित हो गया कि रक्षा मंत्रालय का शीर्ष बाबू (रक्षा सचिव) सेना प्रमुख से अधिक प्रबल होगा। सैन्य मामलों के मुख्य सलाहकार कमांडर-इन-चीफ के पद को समाप्त कर दिया गया। यह भूमिका अब भारत के राष्ट्रपति को दी गई। राष्ट्रपति औपचारिक रूप से सशस्त्र बलों के सर्वोच्च कमांडर बन गए! ऐसी कवायद का असल मकसद था—सेना के कमांडर-इन-चीफ द्वारा कभी भी असैन्य सत्ता को चुनौती देने की संभावना को समाप्त करना। जब आपने संपूर्ण ब्रिटिश राजनीतिक प्रणाली, नौकरशाही प्रणाली एवं सैन्य प्रणाली को पूर्ण रूप से अपनाया था और जब आजादी से पूर्व के समय में, भारत या फिर ब्रिटेन में, ऐसा कोई उदाहरण नहीं था कि कमांडर-इन-चीफ ने नागरिक सरकार को सत्ता से बेदखल किया हो, फिर यह फालतू की चिंता क्यों? स्वतंत्रता से पहले के दिनों में ब्रिटिशों के नियंत्रण वाली ब्रिटिश भारतीय सेना हालाँकि गवर्नर जनरल के राजनीतिक नियंत्रण में थी और साथ ही नौकरशाही के अधीन नहीं थी। स्वतंत्रता के बाद परिदृश्य बदल गया।
प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सशस्त्र बलों के जबरदस्त योगदान को स्वीकार करने और जिस गौरव के वे हकदार हैं, वह देने के बजाय राजनीतिज्ञों एवं नौकरशाही के एक वर्ग ने पदानुक्रम, रिपोर्टिंग चैनलों और कई समितियों के गठन के जरिए शीर्ष सैन्य अधिकारियों को नीचा दिखाने की एक साजिश रची।
भव्यता और ऐश्वर्य के मामले में अगर कोई स्थान वायसराय के महल की बराबरी करता था तो वह था—ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ का घर, जिसे ‘फ्लैगस्टाफ हाउस’ कहा जाता था। उस घर को फील्ड मार्शल के.एम. करियप्पा को आवंटित किया जाना चाहिए था। लेकिन नेहरू ने अपने न्यूयॉर्क रोड के विशाल घर को छोड़कर उसे तुरंत खुद को आवंटित कर दिया। ये उनके द्वारा अपनाए गए सादगी के गांधीवादी मूल्य थे। आगे चलकर फ्लैगस्टाफ हाउस का नाम बदलकर ‘तीन मूर्ति भवन’ कर दिया गया।
बदलाव किए गए और नौकरशाहों को सेना के वरिष्ठ अधिकारियों के मुकाबले उच्च स्थान दिया जाने लगा। शीर्ष आई.ए.एस. बाबुओं के मुकाबले तीनों सैन्य प्रमुखों का दर्जा घटाया गया। वे रक्षा सचिव के साथ संपर्क करते हैं, जो सशस्त्र बलों और केंद्रीय मंत्रिमंडल के बीच का इंटरफेस है। रक्षा उत्पादन और रक्षा खरीद से संबंधित मामले भी मुख्य रूप से रक्षा मंत्रालय में तैनात नौकरशाहों के पास आ गए (हालाँकि समितियों में सैन्य प्रतिनिधि मौजूद थे)। चाहे कोई भी क्षेत्र, विभाग या मामला हो, बाबू या कि आई.ए.एस. बीच में आ गए और वह बरबादी की कगार पर पहुँच गया। बाबू, जिन्हें रक्षा संबंधी मामलों के क ख ग की भी जानकारी नहीं थी, ने अपनी मरजी चलानी और पैसा कमाना शुरू कर दिया। राजनीतीकरण एवं पक्षपात समय का रिवाज बन गया और कार्य-दक्षता बीते जमाने की बात हो गई। सेना पर ‘राजनीतिक नियंत्रण’ के बजाय, जो वास्तव में प्रचलन में है, वह है—‘नौकरशाही का नियंत्रण’। रक्षा सचिव बॉस हैं एवं सेना प्रमुख उप-भूमिका में हैं और निर्णय लेने की वास्तविक प्रक्रिया से सेना को दूर ही रखा गया है! ऐसा था नेहरू का अक्खड़पन, जिसमें सेना के वरिष्ठों को भी किनारे किया जा रहा था, यहाँ तक कि पूर्ण रूप से सेना से जुड़े फैसले भी नेहरू, कृष्णा मेनन, अन्य राजनेताओं और नौकरशाहों द्वारा लिये जा रहे थे, जैसेकि जल्दबाजी में तैयार की गई ‘अग्रवर्ती नीति’ (भूल#36)—यहाँ तक कि नेहरू-मेनन ने भारतीय सेना के सैन्य और रणनीतिक निहितार्थ वाले कार्योत्तर इनपुट को भी नजरअंदाज कर दिया।
सबसे बदतर था देश की सेना को सिर्फ इसलिए कमजोर रखना, ताकि वह कभी असैनिक सत्ताधारियों को चुनौती न दे पाए। सेना बड़े स्तर पर अल्प-निवेशित रही। यह द्वितीय विश्व युद्ध के समय के पुराने हथियारों से सज्जित रही। नेहरू के राज में रक्षा मंत्रालय का महत्त्व न के बराबर था। वरिष्ठ मंत्री इससे कन्नी काटते थे, क्योंकि इसे किसी वरिष्ठ राजनेता के लिए महत्त्वपूर्ण पोर्टफोलियो नहीं माना जाता था!
मोदी सरकार ने 30 दिसंबर, 2019 को पहले चीफ अॉफ डिफेंस स्टाफ (सी.डी.एस.) की नियुक्ति करके स्थिति को कुछ हद तक सुधारने का प्रयास किया है। (यू.आर.एल.114)