भूल-38
सेना का राजनीतिकरण
सेना के आलाकमान का राजनीतीकरण भारत-चीन युद्ध में भारत के बेहद बुरे प्रदर्शन के प्रमुख कारणों में से एक था। सेना की सार्थक सलाह पर जोर देने की बजाय नेहरू और कृष्णा मेनन ने सेना में शीर्ष पदों पर ऐसे आज्ञाकारी अधिकारियों की नियुक्ति की, जो उनके आदेशों को मानते थे। कृष्णा मेनन लोगों से बेहद बुरा बरताव करते थे। वे सेना के प्रमुख अधिकारियों के प्रति बेहद आक्रामक थे। उन्होंने अपनी तीखी टिप्पणियों, कटाक्ष और उपेक्षापूर्ण व्यवहार के चलते कइयों से दुश्मनी मोल ले ली थी। उन्होंने सेना के शीर्ष अधिकारियों को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया था। आखिरकार, उनके चुने हुए इन कुछ आज्ञाकारी अधिकारियों ने ही भारत को अपमानित करने में अपना पूरा योगदान दिया।
जनरल एस.डी. वर्मा ने उच्चाधिकारियों को परिचालन की तैयारी की बुरी हालत के बारे में लिखने का साहस किया था। उन्हें अपने पत्र को वापस लेने के लिए कहा गया। उन्होंने इनकार कर दिया और वे चाहते थे कि उनके पत्र को रिकॉर्ड में रखा जाए। एक ईमानदार, स्पष्टवादी और बेहद सक्षम अधिकारी को सताया गया और आखिरकार उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
इंदर मल्होत्रा ने लिखा—
“इससे भी बढ़कर लेफ्टिनेंट जनरल बी.एम. कौल, जिन्हें युद्ध का जरा भी अनुभव नहीं था, के धराशायी होने का सबसे बड़ा कारण था—कृष्णा मेनन का उनके प्रति झुकाव और इसके चलते उन्हें उस समय युद्ध में कमांडर नियुक्त करना और मोरचे पर बने रहने देना, जब वे दिल्ली में बीमारी से जूझ रहे थे।” (आई.एम.1)
एस.के. वर्मा ने ‘1962: द वॉर दैट वाज’न्ट’ में लिखा—
“युद्ध के बाद (कृष्णा) मेनन की भूमिका और उनके काम करने के तरीके को लेकर उनके खिलाफ बहुत कुछ कहा गया; लेकिन मेनन तो सिर्फ वही कर रहे थे, जो नेहरू उनसे करवाना चाहते थे और (बी.एम.) कौल के साथ भी बिल्कुल यही मामला था। कौल के कॅरियर में नेहरू की रुचि और उसके बाद उनके शीर्ष पर पहुँचने की शुरुआत सन् 1947 से हुई। एक ‘विफल अधिकारी’ माने जाने के बाद उन्हें अमेरिका में एक सैन्य सहचारी के रूप में नियुक्त किया गया था, जिसके बाद वे भारत लौटे और कश्मीर में नेहरू के खास ‘आदमी’ बन गए। आखिरकार, मेनन और थिमय्या के बीच टकराव तब हुआ, जब कौल को पदोन्नति के बाद सेना मुख्यालय में क्यू.एम.जी. के रूप में तैनात किया जाना था और सेना प्रमुख ने उसमें अपनी टाँग अड़ा दी।
थिमय्या कौल को लेकर अपने आधिकारिक मूल्यांकन में उससे अधिक स्पष्ट नहीं हो सकते थे, इसके बावजूद थिमय्या को ही अपने देश और अपने प्रधानमंत्री के प्रति वफादारी की कीमत चुकानी पड़ी। नेहरू ने अपने कद और प्रतिष्ठा के बावजूद यह दिखाया कि वे क्षुद्र राजनीति खेलने में किसी से कम नहीं हैं और उन्होंने मेनन को चारे के रूप में इस्तेमाल करते हुए न सिर्फ थिमय्या को किनारे कर दिया, बल्कि अक्साई चिन राजमार्गपर हुई गड़बड़ी का सारा ठीकरा उनके और भारतीय सेना के सिर पर फोड़ दिया। अगर यह अक्षम्य था तो हमें संसद् में प्रधानमंत्री के उस बयान को क्या समझना चाहिए, जब उन्होंने एकतरफा रूप से सेना द्वारा नेफा (NEFA) की कमान सँभालने की घोषणा करने के एक दिन बाद थिमय्या को तुनकमिजाज बताया; और उन्होंने सेना पर असैनिकों का वर्चस्व बनाए रखने की आवश्यकता पर ध्यान देना शुरू कर दिया?” (एस.के.वी./एल-6903)
यह नेहरू के वही प्रिय जनरल बी.एम. कौल थे, जिन्होंने सिर्फ नेहरू को खुश करने के लिए ‘अग्रवर्ती नीति’ को आगे बढ़ाया, जो ढोला की गड़बड़ और भारत को मुसीबत में डालने के जिम्मेदार थे। बी.एम. कौल ने जनरल उमराव सिंह का स्थान लिया था, जो एक योग्य और स्पष्टवादी पेशेवर थे, जिन्हें उनके पद से सिर्फ इसलिए हटाया गया था, क्योंकि उन्होंने राजनीतिक नेतृत्व (नेहरू-मेनन) के कहे में चलने से इनकार कर दिया था—उन्होंने अग्रिम चौकियों को लापरवाही के साथ बनाने का विरोध किया था। उमराव सिंह ने जिन चीजों को रोक दिया था, उन्हें करने के लिए नियुक्त किए गए कौल पीछे मुड़कर सामने आ रही परेशानियों को व्यक्त नहीं कर सके। एक ऐसा व्यक्ति, जो राजनेताओं के कहे अनुरूप चल सके, यह समय की सबसे बड़ी माँग थी और कौल ने स्वेच्छा से उस भूमिका का चयन किया।
“1950 के दशक के अंत तक असैन्य समीकरण इतना अधिक बिगड़ चुका था कि जनरल थिमय्या के कद के एक व्यक्ति को भी परोक्ष अस्तित्वहीन बनाया जा सकता था। सैन्य पदानुक्रम में सफलता और उत्तरजीविता या तो ‘चुने हुए’ की हामी भरने पर निर्भर थी या फिर सबसे अच्छा था अपने मुँह को बंद रखना और हवा के रुख के साथ बहने में भी, जैसा जनरल पी.एन. थापर और लेफ्टिनेंट जनरल बोगी सेन ने किया। जैसाकि मैं पहले ही उल्लेख कर चुका हूँ, जनरल थिमय्या के साथ लेफ्टिनेंट जनरल थोराट और एस.डी. वर्मा भी गए। यहाँ तक कि मेजर जनरल सैम मानेकशॉ को भी नहीं बख्शा गया। 23 अक्तूबर को तवांग के हाथ से जाने के बाद 4 डिवीजन और कामेंग सेक्टर में विभिन्न ब्रिगेडों को सँभालनेवाले अधिकारियों की पूरी नई खेप को जनरल पी.एन. थापर द्वारा व्यक्तिगत रूप से चुना गया था। तीन हफ्ते बाद जब चीनी स्थिति बेहद विकट हो गई, तब वे किसी प्रकार के प्रतिकार की एक छोटी सी झलक भी दिखाने में नाकामयाब रहे।” (एस.के.वी./एल-6883)
जी.एस. भार्गव ने अपनी पुस्तक ‘द बैटल अॉफ नेफा (NEFA)’ में लिखा—
“ ...सैन्य अधिकारियों का एक नया वर्ग, जो राजनीतिज्ञों के साथ कंधा मिलाकर देश को सीधे उस स्थिति में पहुँचा सकता है, जिसमें वह सितंबर-अक्तूबर 1962 में पहुँच गया। चूँकि सेना में पदोन्नति के लिए अपने काम को पूरी निष्ठा के साथ करना अब आवश्यक गुण नहीं रहा था, इसलिए अधिक महत्त्वाकांक्षियों ने चापलूसी कर राजनेताओं का कृपापात्र बनना प्रारंभ कर दिया था।” (जी.एस.बी.)