भूल-37
रक्षा और बाह्य सुरक्षा की आपराधिक उपेक्षा
“खतरे को पहले ही भाँप लेनेवाले या फिर अपनी खुद की भलाई की इच्छा करनेवाले बुद्धिमान व्यक्ति को खतरे के शुरू होने से पहले ही अपनी रक्षा की योजना बना लेनी चाहिए।”
—श्रीराम से लक्ष्मण
“भारत ने अगर (वीर) सावरकर की सुनी होती और सैन्यीकरण की नीति अपनाई होती तो आज हमें हार का सामना नहीं करना पड़ता।”
—जनरल करियप्पा
1962 के भारत-चीन युद्ध पर (टी.डब्ल्यू.8)
“युद्ध की कला किसी भी राष्ट्र के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण होती है। यह जीवन और मृत्यु का मामला होता है; एक ऐसा रास्ता, जो सुरक्षा या फिर बरबादी— दोनों की ओर ले जा सकता है। इसलिए यह एक जाँच का विषय है, जिसे किसी भी बहाने से टाला नहीं जा सकता।”
—सुन त्जू, ‘आर्ट अॉफ वॉर’
एक ऐसा देश, जो लगभग पूरी एक सहस्राब्दी तक विदेशी शासन के अधीन रहा हो, पहले तो मुसलमान आक्रांताओं के और फिर उसके बाद ब्रिटिशों के, से यह उम्मीद की जाती थी कि उसके अपने भारतीय नीति-नियंता सन् 1947 में मिली आजादी के बाद उसकी बाह्य सुरक्षा को शीर्षप्राथमिकता देंगे।
लेकिन क्या ऐसा हुआ? नहीं। नेहरू और कांग्रेस, जो अहिंसा, शांतिवाद एवं गांधीवाद की घुट्टी पीकर बड़े हुए थे और जिन्होंने व्यावहारिक राजनीति के स्थान पर खयाली पुलावों को प्राथमिकता दी और बेहद लापरवाही से भारत की बाह्य सुरक्षा की आवश्यकताओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया। (कृपया भूल#16 को भी देखें।)
नेहरू इस मामले में बिल्कुल अनाड़ी और यहाँ तक कि गैर-जिम्मेदार भी प्रतीत हुए कि वे यह समझने में पूरी तरह से नाकाम रहे कि भारत के आकार जितने बड़े देश के लिए उसे विरासत में मिली समस्याओं के साथ इसे खुद को बचाने में सक्षम होने के लिए और दूसरों को इसके ऊपर कोई प्रभाव छोड़ने से रोकने के लिए क्या करने की आवश्यकता है? नेहरू एक तरफ तो चीन के साथ सीमा-विवाद को सुलझाने में पूरी तरह से नाकाम रहे, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने उन सीमाओं को सैन्य रूप से सुरक्षित करने के लिए बहुत ही कम काम किया, जिन्हें हम अपनी होने का दावा करते थे। नेहरू और उनके रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन ने सैन्य उन्नयन की निरंतर माँग को भी नजरअंदाज किया।
एस.के. वर्मा ने ‘1962: द वॉर दैट वाज’न्ट’ में लिखा—
“बोस के बाहर निकलने और सन् 1950 में पटेल की मतृ्यु होने के बाद ऐसा कोई भी व्यक्ति मौजूद नहीं था, जो सेना (जो अब तक ब्रिटिश हितों की रक्षा करती थी) को एक एकीकृत सैन्य उपकरण में बदलने के लिए आवश्यक प्रेरणा प्रदान कर सके, जो संभावित खतरों को पहचानकर सैन्य तरीके से उनसे निबटने में सक्षम हो। बोस और पटेल के प्रतिकूल नेहरू एक सैन्य शक्ति का निर्माण करने के रास्ते से भटक गए।” (एस.के.वी./एल-646)
जसवंत सिंह ने लिखा—“स्वतंत्र भारत ने उग्र और साहसिक राष्ट्रीय नीतियों के पहले घटक के रूप में रणनीतिक संस्कृति की केंद्रीयता को त्याग दिया।” (जे.एस.2)
सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत की अपमानजनक पराजय के बीज स्वतंत्रता के तुरंत बाद किसी और ने नहीं, बल्कि खुद नेहरू ने ही बो दिए थे, जो निम्नलिखित घटना से स्पष्ट है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद आजाद भारत के पहले सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल सर रॉबर्ट लॉकहार्ट (तब भारत और पाकिस्तान के पहले सेना प्रमुख ब्रिटिश थे) मानक प्रक्रिया का पालन करते हुए नेहरू के पास एक रणनीतिक रक्षा योजना लेकर सरकार का आदेश लेने के लिए पहुँचे। अविश्वसनीय रूप से लॉकहार्ट नेहरू का जवाब सुनकर हैरान-परेशान हाल में लौटे—
“पी.एम. ने मेरे कागज पर एक सरसरी नजर डाली और आपे से बाहर हो गए, ‘बकवास! पूरी तरह से बकवास! हमें एक रक्षा नीति की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारी नीति अहिंसा की है। हमें किसी सैन्य खतरे का पूर्वानुमान नहीं है। सेना को खत्म कर दो! हमारी सुरक्षा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पुलिस ही बहुत है।’ नेहरू चिल्लाए।”
नेहरू इस दिशा में वास्तव में आगे बढ़े और कश्मीर में बढ़ते खतरे तथा तिब्बत में चीनी प्रवेश के बावजूद आजादी के बाद सेना की ताकत में करीब 50,000 सैनिकों की कटौती की।
“यहाँ इस बात पर ध्यान देना भी आवश्यक है कि भारत ने सन् 1949 में अपनी सेना में 52,000 सैन्य कर्मियों की कटौती की थी और वह 1950 में इसमें 1,00,000 की और अधिक कटौती करने की योजना तैयार कर रहे थे। नेहरू ने लिखा था—‘यह वास्तव में हमारा ही निर्णय था और योजनाएँ भी उसी के अनुसार तैयार की गई थीं। यह एक साहसी निर्णय था। हमने यह निर्णय लिया और हम इसे लागू करने के लिए बेहद उत्सुक थे।’ ” (एम.जी.2/68/एल-1266)
एम.ओ. मथाई ने ख्रुश्चेव-बुल्गानिन की भारत यात्रा के संदर्भ में लिखा—“ख्रुश्चेव ने कई बार भारत जैसे एक बड़े देश के लिए एक प्रथम श्रेणी के विमान उद्योग की आवश्यकता पर जोर दिया और इस क्षेत्र के कुछ सर्वश्रेष्ठ सोवियत विशेषज्ञों को भेजने की पेशकश की। पता नहीं क्यों, नेहरू को यह पसंद नहीं आया और उनकी तरफ से इस बारे में आगे कोई काररवाई नहीं की गई। ऐसा सिर्फ चीनी आक्रमण के बाद ही हुआ कि हम गंभीर वास्तविकताओं को लेकर चेते और आधुनिक सैन्य विमानों के उत्पादन के लिए सोवियत सहयोग हासिल किया।” (मैक2/4541)
आर.पी.एन. सिंह ने ‘नेहरू : ए ट्रबल्ड लीगेसी’ में लिखा—
“नेहरू ने सुरक्षा के मसले को इतने हलके ढंग से लिया कि एक संभावित हमलावर के खिलाफ भारतीय सुरक्षा को लेकर पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि देश के पास जरूरत पड़ने पर लाठी (डंडे) और पत्थरों से खुद की रक्षा करने की भावना है; ‘इसलिए मुझे किसी भी तरफ से किसी के भी भारत पर हमला करने का डर नहीं है।’ नेहरू ने एक बार संसद् में भाषण देते हुए बेहद आदर्शवादी तरीके से सलाह दी थी, ‘अगर आप अपने मनोबल को बढ़ाते हैं और समर्पण नहीं करने के प्रति दृढ़ रहते हैं तो कुछ भी आपको हरा नहीं सकता।’ नेहरू ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा, ‘मुझे लगता है कि सुरक्षा पर विचार करने का सबसे अच्छा तरीका है सैन्य पहलू को भूलने से शुरू करना।’ ” (आर.पी.एन.एस./120)
सबसे ज्यादा अजीब और हैरान करनेवाली बात यह है कि विशेष रूप से हथियारों और गोला-बारूद का निर्माण करने के लिए रक्षा आयुध कारखानों की पूर्ण क्षमता का दोहन करने के बजाय उन्हें साथ में प्रेशर कुकर, फिल्टर-कॉफी डिस्पेंसिंग मशीन आदि बनाने का आदेश भी दिया गया था। जे.बी. कृपलानी ने ‘माय टाइम्स : एन अॉटोबायोग्राफी’ में लिखा—
“उन्होंने (कृष्णा मेनन, नेहरू के रक्षा मंत्री ने) एक बार दिल्ली में रक्षा उत्पादन की एक प्रदर्शनी का आयोजन किया। वे वहाँ से जो बेकार का सामान लाए थे, उसके साथ एक प्रेशर कुकर और एक कॉफी-पर्कोलेटर का भी प्रदर्शन किया, जिनका निर्माण हमारे रक्षा आयुध कारखानों में ही किया गया था। यह वह समय था, जब हमारी हिमालयी सीमाओं पर चीनी आक्रामकता अपने चरम पर थी।” (जे.बी.के./867)
यहाँ पर ‘दि एशियन एज’ के एक लेख का उद्धरण दिया जा रहा है—“भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और देश के दूसरे रक्षा मंत्री वी.के. कृष्णा मेनन के गलत निर्णयों का उल्लेख करना पूरी तरह से प्रासंगिक है। एक तरफ जहाँ नेहरू ने कथित तौर पर यह संदेश दिया कि भारत को सेना की कोई आवश्यकता नहीं है—और सिर्फ पुलिस ही काफी है, कृष्णा मेनन का मानना था कि भारत के रक्षा आयुध कारखाने प्रेशर कुकर एवं कॉफी-पर्कोलेटर के निर्माण के लिए अधिक बेहतर थे। भारतीय सेना को संदेह की नजर से देखने के अलावा दोनों न सिर्फ सेना की तरफ से की जानेवाली किसी भी ठोस सलाह को अस्वीकार करने, बल्कि उसके नेतृत्व में दखल देने के लिए हद से आगे तक निकल गए। इसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय सेना, जिसे प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में सर्वश्रेष्ठ सेना के रूप में वैश्विक स्तर पर स्वीकार किया गया था, को सन् 1962 के चीन-भारत युद्ध में कम अस्त्रो-शस्त्रों से लैस, अनुपयुक्त व अपर्याप्त सैन्य सामान के साथ धकेल दिया गया था और इससे भी बदतर था कि उन्हें नेहरू द्वारा ऐसे आदेश दिए गए थे, जिनका पालन करना पूरी तरह से असंभव था।” (डब्ल्यू.एन.19)
इस प्रकार की मानसिकता को देखते हुए किसी संकट की घड़ी में सिर्फ भगवान् ही भारत को बचा सकते थे। दुर्भाग्य से, सन् 1962 के युद्ध में भगवान् ने भी भारत से मुँह मोड़ लिया। शायद भगवान् भी ‘तर्कसंगत’, ‘वैज्ञानिक मस्तिष्क’ वाले, नास्तिक, संशयवादी नेहरू से नाराज थे। ‘ग्लिंप्सेस अॉफ वर्ल्ड हिस्टरी’ और ‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ के बावजूद नेहरू इस बात का पता लगाने में पूरी तरह से असफल रहे कि भारत ने खुद की रक्षा में असमर्थ रहने के चलते ही एक सहस्राब्दी से भी अधिक समय तक गुलामी के दंश का सामना किया है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि उन्होंने सेना के आधुनिकीकरण, रक्षा के सुदृढ़ीकरण और दुश्मनों को दूर रखने एवं भारत की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए शक्तिशाली देशों के साथ समझौता करने को पूरी तरह से नजर अंदाज किया।
जनरल थापर ने सन् 1960 में सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें इस बात पर ध्यान आकर्षित किया गया था कि भारतीय सेना के पास उपलब्ध उपकरण और उनकी दयनीय स्थिति, चीन तो छोड़िए, पाकिस्तान के बराबरी की भी नहीं है। चीन के कब्जे से कुछ निश्चित क्षेत्रों को खाली करवाने के अभियानों को शुरू करने से पहले ही थापर ने नेहरू की जानकारी में यह बात डाल दी थी कि भारतीय सेना को जो काम करने के लिए कहा जा रहा है, वह उसे करने के लिए अनुपयुक्त होने के साथ-साथ जरा भी तैयार नहीं है। यहाँ तक कि उन्होंने नेहरू पर इन कठोर वास्तविकताओं को अपने किसी वरिष्ठ कर्मचारी से दोबारा जाँच करवाने के लिए भी जोर डाला। इसके बावजूद नेहरू इस बात पर अड़े रहे कि चीन जवाबी काररवाई नहीं करेगा!
जनरल थापर ने 29 जुलाई, 1970 को कुलदीप नैयर से कहा, जैसाकि नैयर ने अपनी पुस्तक ‘बियॉण्ड द लाइंस’ में लिखा है—“पीछे मुड़कर देखने पर मुझे ऐसा लगता है कि मुझे उस समय अपना इस्तीफा दे देना चाहिए था। मैं अपने देश को पराजय के अपमान से बचा सकता था।” (के.एन.)
सुरक्षा के प्रति नेहरू सरकार की उदासीन सोच सिर्फ इस धारणा पर टिकी थी कि चीन भारत पर कभी हमला नहीं करेगा। जनरल (से.नि.) वी.के. सिंह ‘लीडरशिप इन िद इंडियन आर्मी’ में लिखते हैं—“करियप्पा के भी नेहरू के साथ कुछ कटु अनुभव थे। चीन के खतरे का अंदाजा लगाते हुए वे सीमा को और अधिक प्रभावी तरीके से सुरक्षित करना चाहते थे। उन्होंने मई 1951 में नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (NEFA) की सुरक्षा के लिए एक खाका प्रस्तुत किया। नेहरू ने उनकी बात को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह सी-इन-सी का काम नहीं है कि वह प्रधानमंत्री को यह बताए कि देश की सुरक्षा कैसे करनी है (क्या अहंकार है!)। उन्होंने करियप्पा से सिर्फ पाकिस्तान और कश्मीर की चिंता करने को कहा; और जहाँ तक नेफा (NEFA) का सवाल है, चीनी खुद हमारी सरहद की रक्षा करेंगे!” (वी.के.एस./43)
दुर्गा दास ने लिखा—
“अगर (कृष्णा) मेनन मरीचिका (कि चीन हमला नहीं करेगा) को गले लगाने के दोषी थे तो नेहरू भी थे और शायद उनसे कहीं अधिक। उन्होंने कुछ ही महीने पहले गवर्नर्स कॉन्फ्रेंस में जनरल थिमय्या को सिर्फ चीन द्वारा हमले की संभावना जताने के चलते ही सार्वजनिक रूप से फटकार लगाई थी। मंत्रिमंडल में शामिल कई अन्य भी निर्दोष नहीं थे। या तो अनभिज्ञता के चलते या फिर प्रधानमंत्री के विरुद्ध जाने के डर (यह था आपके लिए नेहरूवादी लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सरकार के मंत्रिमंडल की गुणवत्ता!) से उन्होंने उनके लापरवाही भरे रवैए का समर्थन किया।” (डी.डी./361)
थल सेनाध्यक्ष जनरल पी.एन. थापर ने जुलाई 1962 में तात्कालिक रूप से अधिक धन देने की माँग की थी, ताकि युद्ध सामग्री की कमी को पूरा किया जा सके, और ऐसा वास्तविक युद्ध से करीब तीन महीने पहले ही हुआ था। जब इस अनुरोध को नेहरू के समक्ष पेश किया गया तो उन्होंने इसे यह कहते हुए खारिज कर दिया कि चीन बल का सहारा नहीं लेगा। (डी.डी./362)
सेना ने नेहरू और कृष्णा मेनन को यह बात पूरी तरह से स्पष्ट कर दी थी कि बंदूकों, टैंकों एवं सैनिकों के मामले में वे चीन से मात खा रहे हैं और ऐसे में वे उनके विरुद्ध अधिक समय तक टिक नहीं पाएँगे। इसके बावजूद हमारे समझदार राजनीतिज्ञों ने अपनी जल्दबाजी भरी ‘अग्रवर्ती नीति’ (भूल#36) को जारी रखा।
इससे पूर्व, भारत के सेना प्रमुख जनरल थिमय्या ने कई बार खुद को चीन से बचाने के मामले में सेना की तमाम कमजोरियों का मामला उठाया था। कृष्णा मेनन और नेहरू के सामने कई बार विनती करने के बावजूद आवश्यक काररवाई न होने से निराश होकर उन्होंने 7 मई, 1961 को सेवानिवृत्ति के दौरान दिए अपने विदाई भाषण में अपने साथी सैन्य अधिकारियों से कहा, “मुझे उम्मीद है कि मैं आप सबको चीनियों के लिए शिकार के चारे के रूप में नहीं छोड़ रहा हूँ। ईश्वर आप सबका भला करे!”
थिमय्या ने पहले कहा था, “मैं एक सैनिक के रूप में भारत को अपने दम पर एक खुले संघर्ष में चीन का मुकाबला करते हुए देखने की कल्पना भी नहीं कर सकता। वर्तमान में मानव-शक्ति, उपकरण और वायु-शक्ति के क्षेत्र में चीन की ताकत सोवियत संघ के पूर्ण समर्थन के चलते हमसे कई सौ गुना अधिक है और हम निकट भविष्य में उसकी बराबरी करने की कल्पना तक नहीं कर सकते। हमारी सुरक्षा सुनिश्चित करने का काम राजनेताओं और राजनयिकों के ऊपर छोड़ देना चाहिए।” (एर्पी/473-4)
ब्रिगेडियर जे.पी. दलवी ने टिप्पणी की—
“एक उच्च श्रेणी की थल सेना के खिलाफ कोई व्यापक राजनीतिक उद्शदे्य नहीं था, कोई राष्ट्रीय नीति नहीं, कोई मुख्य रणनीति नहीं और हिमालय की भयावह पहाड़ियों में किसी भी सैन्य अभियान के लिए कोई तैयारी नहीं। हमने उन हथियारों और उपकरण संचारों के प्रारूप के बारे में जाना ही नहीं, जिनकी हमें जरूरत पड़ सकती थी। ‘आर्मी स्कूल अॉफ इंस्ट्रक्शन’ का पूरा ध्यान खुले युद्धक्षेत्र की ओर था। सन् 1947 के बाद कश्मीर में सेना की तैनाती के बावजूद पहाड़ी युद्धक्षेत्र पर बहुत कम ध्यान और जोर था। सेना को भुला दिया गया था; इसके उपकरणों को अव्यवहृत हो जाने दिया गया, निश्चित रूप से पूरी तरह से अप्रचलित—और उनका प्रशिक्षण अकादमिक एवं अप्रचलित हो चुका था। हमें सन् 1947 में विरासत में जो कुछ मिला था, उसे बचाए रखने का प्रयास हमने शायद ही किया था।... हमारी रक्षा नीतियों की राजनीतिक पर्वूधारणाएँ अमान्य और खतरनाक थीं।
“अक्तूबर 1962 में भारतीय पूरी तरह से आश्चर्यचकित रह गए, जब उन्हें यह पता चला कि उनके पास आधुनिक राइफलें हैं ही नहीं; जबकि ऐसा माना जाता था कि हम एक हवाई जहाज का ‘निर्माण’ करने के लिए बिल्लकु तैयार हैं और साथ ही, हमारे पास परमाणु बम बनाने का सूत्र भी है। असम राइफल्स की चौकियों (अग्रवर्ती नीति के तहत) को अनियोजित तरीके से तैनात किया गया था और साथ ही वे हथियारों के मामले में भी कमतर थे, यहाँ तक कि साधारण सेना से भी बदतर सज्जित थे। वे सिर्फ सीमा चौकियों के रूप में काम करने के लिए सबसे अच् थे और छे फिर भी उनका काम था—‘अंतिम राउंड तक अंतिम व्यक्ति से लड़ना।’ असम राइफल्स की चौकियों और नजदीकी सैन्य उप-इकाइयों के बीच आपसी संचार की कोई व्यवस्था नहीं थी और इसकी सबसे सामान्य सफाई यह थी कि देश में वायरलेस सेटों की भारी कमी है। असम राइफल्स विदेश मंत्रालय की एक अलग निजी सेना थी। और कौन एक असाधारण कमांड प्रणाली को लेकर बिल्ली के गले में घंटी बाँधने की हिमाकत करेगा!” (जे.पी.डी.2)
खबरों के मुताबिक, सितंबर 1962 (चीनी हमले से एक महीने पहले) में रक्षा परिषद् की एक बैठक में एक तरफ लद्दाख में तैनात एक सैन्य कमांडर ने कहा, “अगर चीन बड़े पैमाने पर हमला करता है तो हमारा नामो-निशान ही मिट जाएगा।” और पूर्वी कमांड के प्रमुख ने कहा था, “अगर चीन बड़े पैमाने पर हमला करने का फैसला करता है तो हम नेफा (NEFA) में कहीं भी उसका सामना करने की स्थिति में नहीं हैं।”
हालाँकि, गंभीर बाधाओं के बावजूद भारतीय सैनिकों ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया, वास्तविकता यह है कि यह शोचनीय रूप से एक बिना तैयारी वाली, अल्प-पोषित, बिना पूरे कपड़ों के, बिना पूरी आपूर्ति के और बिना पूरे हथियारों वाली भारतीय सेना थी (जिसे भूख और ठंड में छोड़ दिया गया था), जिसे दुर्गति के लिए छोड़ दिया गया था और जिसे इसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। सन् 1961 में गोवा में पुर्तगालियों के खिलाफ एक अपेक्षाकृत छोटे अभियान के लिए ‘एक बटालियन के पास 400 जोड़ी जूतों की कमी थी और उन्हें पीटी जूतों में ही युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा।’ जैसा कि जनरल बी.एम. कौल द्वारा बताया गया। सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के नेतृत्व की विफलताओं को उजागर करते हुए एयर मार्शल डेंजिल कीलर (सेवानिवृत्त) ने कहा, “युद्ध में हार की वजह नेहरू थे। उन्होंने कूटनीति पर भरोसा किया और सशस्त्र बलों की उपेक्षा की। हमें बिना उचित कपड़ों के बर्फ से ढँके पहाड़ों पर धकेल दिया गया। विमानों के संचालन की अनुमति नहीं थी। अगर हमारे अपने बेस तैयार होते तो हम चीन का सामना कर सकते थे। उन्होंने हर चीज का मजाक बना दिया और हमने उसकी भारी कीमत चुकाई।”
(सितंबर 1962 में) लेफ्टिनेंट जनरल उमराव सिंह, जे.ओ.सी., तैंतीसवीं कोर ने ढोला क्षेत्र में बढ़ते हुए हड़बड़ाहट भरे अभियानों के खिलाफ चेतावनी देते हुए उसे पूर्वी कमांड को अग्रसर किया था। ब्रिगेडियर दलवी की प्रशंसा में अपने विचार जोड़ते हुए उमराव सिंह ने कहा, “सैनिकों और सड़कों की कमी के चलते सैन्य शक्ति के जरिए सहारा देने की हमारी क्षमता सीमित है। हमारी सेना के पास सीमित राशन है और उसका भंडार भी नहीं है। अत्यधिक ठंड की स्थिति के लिए कपड़े बहुत कम हैं। हमारे पास हथियारों की बेहद कमी है और हमारे पास (शायद ही) कोई रक्षा भंडार मौजूद हो। हमारे पास पर्याप्त गोला-बारूद भी मौजूद नहीं है।” (एस.के.वी./एल-707)
रक्षा मंत्री वाई.बी. चव्हाण के पूर्वनिजी सचिव और बाद में केंद्रीय गृह सचिव एवं अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल बननेवाले आर.डी. प्रधान ने जो लिखा है, उसका संदर्भ जरूर लेना चाहिए— “रोंग ला, जिमिथांग के ऊपर से त्संगधर की ओर उड़ते हुए मैंने वह क्षेत्र देखा, जहाँ अक्तूबर- नवंबर 1962 में हमारे सैनिकों को चीनियों का सामना करने के लिए भेजा गया था, जो थाग लाके दक्षिणी छोर पर काफी बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था। वे हलकी रायफलों और बेहद कम मात्रा में गोला-बारूद से लैस थे। उनमें से कई लोग तो गरमी के कपड़ों और कैनवास के जूते में थे, क्योंकि उन्हें पंजाब स्थित पश्चिमी मोरचे से बोमडी ला एवं से ला के रास्ते से घाटी में लाया गया था तथा परिवहन और मोटर चलाने योग्य सड़कें न होने के चलते उन्हें अपने उपकरणों और रसद को अपनी पीठ पर लादकर ले जाना पड़ा था। मेरे लिए यह यात्रा और भी अधिक मार्मिक थी। भौगोलिक स्थिति को देखने के बाद मुझे अहसास हुआ कि कैसे सितंबर-अक्तूबर 1962 में एक बिना तैयारी की और बिना उपयुक्त साजो-सामान वाली ब्रिगेड को बिना सोचे-समझे मौत की घाटी में धकेल दिया गया।” (एम.जी.2/67-68/एल-2168)
बेतुका दावा : उपर्युक्त तथ्यों के बावजूद नेहरू ने संसद् के पटल पर कहा (झूठ बोला!), “मैं इस सदन को बताना चाहता हूँ कि हमारी आजादी के बाद से कभी भी और निश्चित रूप से उससे पहले भी हमारे सुरक्षा बल इतनी अच्छी स्थिति और बेहतर अवस्था में नहीं थे, जितने वे आज हैं। मैं उनके बारे में डींग नहीं मार रहा हूँ और न ही किसी अन्य देश के साथ उनकी तुलना कर रहा हूँ; लेकिन मैं इस बात को लेकर पूरी तरह से निश्चिंत हूँ कि हमारे सुरक्षा बल देश की रक्षा करने में पूरी तरह से सक्षम हैं।” (मैक्स/132)