[ 2. रियासतों का एकीकरण ]
भूल-17
ब्रिटिशों पर निर्भर स्वतंत्र भारत
नेहरू ने ब्रिटिश माउंटबेटन का पक्ष लिया
सिर्फ भगवान् ही इस बात को जानता है कि भारत ने स्वतंत्रता के बाद गवर्नर जनरल (जी.जी.) के रूप में माउंटबेटन (एक ब्रिटिश) को नियुक्त करने का फैसला क्यों किया? जिन्ना ने ऐसी भूल नहीं की। वे खुद पाकिस्तान के गवर्नर जनरल बने। माउंटबेटन ने गवर्नर जनरल के रूप में वह किया, जो ब्रिटिश राज की इच्छा थी—भारत के नुकसान की हद तक। ऐसा सिर्फ नेहरू की वजह से ही संभव हो सका कि माउंटबेटन गवर्नर जनरल बनने में कामयाब रहे। आखिर क्यों स्वतंत्रता सेनानियों ने शीर्ष पद के लिए एक विदेशी, एक ब्रिटिश को चुना? क्या सक्षम भारतीय मौजूद नहीं थे? अगर जिन्ना गवर्नर जनरल के रूप में पाकिस्तान को अच्छे से सँभाल सकते थे तो क्या एक भारतीय गवर्नर जनरल भारत को नहीं सँभाल सकता था?
नेहरू ने माउंटबेटन को अपना गुरु और मार्गदर्शक बना रखा था। यह नेहरू की औपनिवेशिक मानसिकता और लोगों को परखने की उनकी क्षमता को काफी हद तक इंगित करता है। जब नेहरू उस काम के लिए आसानी से राजी नहीं होते थे, जो राज/माउंटबेटन चाहते थे तो माउंटबेटन कथित रूप से नेहरू को मनाने के लिए अपनी पत्नी एडविना को इस्तेमाल करते थे।
नेहरू के समर्थक मौलाना आजाद ने अपनी आत्मकथा में इस बात पर हैरानी जताई है कि कैसे माउंटबेटन जवाहरलाल जैसे एक व्यक्ति को काबू में कर लेता था; नेहरू के व्यक्तिगत दबावों में आवेगशील और वश में आ जाने की कमजोरियों का उल्लेख किया है और साथ ही यह जानने के प्रति उत्सुकता भी जाहिर की है कि कुछ चुनिंदा (अनुचित) निर्णयों के पीछे लेडी माउंटबेटन का कारण जिम्मेदार था। (आजाद/198)
माउंटबेटन ने कथित तौर पर खुद इस बात को स्वीकार किया है कि नेहरू के मन में क्या चल रहा है, इस बात को जानने के लिए और जब वह अपनी बात मनवाने में असफल हो जाते थे तो नेहरू को प्रभावित करने के लिए वह आवश्यकता पड़ने पर अपनी पत्नी का इस्तेमाल करते थे। माउंटबेटन की आत्मकथा के लेखक फिलिप जिगलर ने कहा है कि माउंटबेटन ने इस काम को करवाने के लिए अपनी पत्नी और नेहरू के बीच प्रेम-संबंधों को प्रोत्साहित किया। (अधिक जानकारी के लिए कृपया ‘भूल-127’ देखें)।
माउंटबेटन ब्रिटेन के प्रतिनिधि थे और उनके लिए ब्रिटेन के हितों की रक्षा करना तथा उसे बढ़ावा देना स्वाभाविक था, बल्कि उनसे ऐसा करने की उम्मीद थी; साथ ही ब्रिटिश सरकार को यहाँ के क्रिया-कलापों के बारे में जानकारी प्रदान करना भी, यहाँ तक कि गोपनीय मामलों की भी। इसके अलावा, भारत और पाकिस्तान के सेना प्रमुख भी ब्रिटिश थे। अगर किसी मामले में भारतीय नेताओं को ऐसा लगता कि एक ब्रिटिश गवर्नर जनरल और एक ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ होने से उन्हें किसी भी तरह से मदद मिली है तो उन्हें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए था कि यह कई मामलों में प्रतिकूल भी साबित हो सकता है—और ऐसा हुआ भी। उनकी मूल निष्ठा ब्रिटेन के प्रति होने के चलते वे ब्रिटिश अधिकारी आपस में ही मामलों में हेर-फेर करने में सक्षम थे—कई तो भारतीय हितों के बिल्कुल विपरीत भी।
माउंटबेटन और विभाजन की अशांति
माउंटबेटन के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है, लेकिन वह अपने पिछले तमाम कामों में असफल ही रहे हैं। वह नौसेना से ताल्लुक रखते थे और नौकाधिकरण में उन्हें लंबे समय तक ‘मास्टर अॉफ डिज़ास्टर’ यानी मुसीबत के महारथी’ के रूप में जाना जाता था। (टुंज/156)
माउंटबेटन को उनके व्यापक कुप्रबंधन के लिए विशेष रूप से जिम्मेदार ठहराया जाता है, जिसका नतीजा विभाजन के फलस्वरूप फैली अशांति के भयावह स्तर के रूप में हुआ (कृपया भूल#15 देखें)। विंस्टन चर्चिल ने माउंटबेटन पर 20 लाख भारतीयों की हत्या का आरोप लगाया था। (ए.ए./120) माउंटबेटन के आलोचक एंड्रयू रॉबर्ट्स ने टिप्पणी की थी, “माउंटबेटन के लंदन वापस लौटने पर उनका कोर्ट-मार्शल किया जाना चाहिए था।” (टुंज/252)
विभाजन और उसकी त्रासदी के बाद इससे खिन्न पीड़ितों ने जिन्ना की जान लेने के तीन प्रयास किए थे। इसके चलते जिन्ना इतने परेशान हो गए थे कि उन्होंने यह कहा था कि विभाजन की आपदा के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार व्यक्ति डिकी माउंटबेटन था। (टुंज/301)
मौलाना आजाद ने लिखा—
“मैंने भी लॉर्ड माउंटबेटन से देश के विभाजन के संभावित परिणामों को ध्यान में रखने के लिए कहा। कलकत्ता, नोआखाली, बिहार, बॉम्बे और पंजाब में तो विभाजन के पहले ही दंगे हुए थे। अगर देश को ऐसे माहौल के बीच बाँटा जाता तो देश के विभिन्न हिस्सों में खून की नदियाँ बहतीं और इस नर-संहार के लिए ब्रिटिश पूरी तरह से जिम्मेदार होते। बिना एक पल की भी हिचकिचाहट के लॉर्ड माउंटबेटन ने जवाब दिया, ‘कम-से- कम इस सवाल पर तो मैं आपको पूर्ण आश्वासन दे ही सकता हूँ। मैं इस बात का ध्यान रखूँगा कि कोई खून-खराबा या फिर दंगा न होने पाए। मैं एक सैनिक हूँ, कोई सामान्य नागरिक नहीं हूँ। एक बार विभाजन को सैद्धांतिक रूप में स्वीकार कर लिये जाने के बाद मैं यह तय करने के लिए आदेश जारी करूँगा कि कहीं कोई सांप्रदायिक गड़बड़ी न होने पाए। अगर कहीं थोड़ा-बहुत विरोध होता भी है तो मैं शुरुआत में ही मुसीबत को खत्म कर देने के लिए आवश्यक कदम उठाऊँगा। मैं थलसेना एवं वायु सेना को काररवाई करने और समस्या पैदा करनेवालों से निबटने के लिए टैंकों तथा हवाई जहाजों के इस्तेमाल के आदेश जारी करूँगा।” (आजाद/207)
दुर्गादास ने लिखा—“मैंने अपनी रिपोर्ट को इस बात के साथ समाप्त किया कि माउंटबेटन विभाजन के कदम के साथ जल्दबाजी में आगे बढ़े और ऐसा करने से पहले उन्होंने यह सुनिश्चित करना भी मुनासिब नहीं समझा कि सीमा बल शांति बनाए रखने में सक्षम होगा भी या नहीं।” (डी.डी./264)
जम्मू व कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद में माउंटबेटन के षड्यंत्र
ब्रिटेन चाहता था कि कश्मीर, जो एक रणनीतिक क्षेत्र था, उसके प्रभाव में रहे। और ऐसा तभी संभव था, जब वह या तो स्वतंत्र हो या फिर पाकिस्तान के पास, जो पश्चिम समर्थक था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए माउंटबेटन ने यह सुनिश्चित किया कि एक गवर्नर जनरल के रूप में वह सिर्फ एक नाम के मुखिया न रहें। उन्होंने जोड़-तोड़ के जरिए खुद को ‘भारत की रक्षा समिति के मुखिया’ के रूप में नियुक्त करवा लिया और यह सुनिश्चित किया कि भारतीय और पाकिस्तानी दोनों सेनाओं के कमांडर-इन-चीफ एवं सुप्रीम कमांडर ऑकिनलेक उन्हें रिपोर्ट करें। माउंटबेटन ने इस क्षमता में गुप्त रूप से पाकिस्तानी सेना के संक्रमणकालीन ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ के साथ समन्वय किया; भारतीय नेतृत्व की जानकारी के बिना भारतीय सेना के संक्रमणकालीन ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ के साथ निजी रणनीतिक सत्र आयोजित किए; निर्णयों और कार्यों में ब्रिटिश सरकार जिस सीमा तक चाहती थी, उतनी गड़बड़ी करवाई।
‘द शैडो अॉफ द ग्रेट गेम’ में सरीला बताते हैं—
“स्थिति को प्रभावित करनेवाला एक अन्य पहलू था—नेहरू द्वारा माउंटबेटन को भारतीय मंत्रिमंडल की रक्षा समिति की अध्यक्षता करने की पेशकश करना। कश्मीर युद्ध की नीतियाँ तैयार करने का काम पूरी तरह से इस कमेटी ने किया था, न कि भारतीय मंत्रिमंडल ने। इस शक्ति ने गवर्नर जनरल को युद्ध की दिशा को प्रभावित करने की असीमित शक्ति प्रदान की।” (सार/357)
माउंटबेटन को स्वतंत्र भारत के गवर्नर जनरल के रूप में नियुक्त करवाने के लिए मुख्य रूप से नेहरू जिम्मेदार थे और उन्हें रक्षा समिति का प्रमुख बनवाने के पीछे भी शायद वही इकलौते कारण थे।
दुर्गा दास ने ‘इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू ऐंड आफ्टर’ में लिखा—
“ ...पटेल ने आगे जोड़ा कि नेहरू माउंटबेटन के प्रति अनावश्यक रूप से झुके हुए थे। नेहरू हमेशा ‘किसी-न-किसी के प्रति झुके ही रहे’। पहले वे बापू के सुरक्षात्मक खेमे में थे और ‘अब वे माउंटबेटन पर झुकते हैं’।” (डी.डी./240)
सबसे अधिक समस्याएँ पैदा करनेवाली तीन रियासतों—जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मूव कश्मीर—के एकीकरण में माउंटबेटन की भूमिका संदिग्ध थी। अन्य रियासतों के मामले में (जहाँ ब्रिटिश हित प्रभावित नहीं हो रहे थे) उन्होंने भारत की मदद करने का प्रयास किया। लेकिन जहाँ कहीं भी ब्रिटिश हित भारतीय हितों से टकरा रहे थे, उन्होंने ब्रिटिश हितों की मदद की। वे माउंटबेटन ही थे, जिन्होंने नेहरू को जम्मूव कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने को कहा और फिर एक घरेलू मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया।
जम्मू व कश्मीर में कबाइली घुसपैठ की ब्रिटिश-पाक साजिश
ऐसा सिर्फ नेहरू-गांधी और कांग्रेस की आजादी के बाद ब्रिटिशों पर अनावश्यक एवं खतरनाक निर्भरता के चलते और आजाद भारत के लिए एक ब्रिटिश गवर्नर जनरल की नियुक्ति के चलते ही संभव हो पाया; क्योंकि ब्रिटिश राज को सिर्फ अपने फायदे से ही मतलब था और नेहरू ने बिल्कुल अनुपयुक्त तरीके से माउंटबेटन द्वारा निर्देशित होने का चयन किया, जिसके चलते एक नवजात स्वतंत्र राष्ट्र के सामने कई अल्पकालिक, मध्यकालिक और दीर्घकालिक समस्याएँ खड़ी हो गईं।
एंड्रयू व्हाइटहेड ने ‘ए मिशन इन कश्मीर’ में लिखा है (इस लेखक (आर.के.पी.) की टिप्पणियाँ चौकोर खानों में इटैलिक्स में हैं)—
“भारतीय सैन्य सूत्रों ने कई बार ऐसा आरोप लगाया है कि कश्मीर में कबाइली घुसपैठ की योजना पाकिस्तान द्वारा करीब ढाई महीने पहले ही तैयार कर ली गई थी और इसे पाकिस्तानी सेना के मौजूदा ब्रिटिश कमांडिंग अधिकारियों की जानकारी और स्वीकृति भी प्राप्त थी। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण अनुपूरक प्रमाण था—अगस्त 1947 में फ्रंटियर पर ब्रिगेड मेजर के रूप में कार्यरत भारतीय जनरल ओ.एस. कालकट का संस्मरण। वे 20 अगस्त [1947] को अपने ब्रिटिश कमांडिंग अॉफिसर को संबोधित एक पत्र को खोलने की बात याद करते हैं, जिस पर ‘अति गोपनीय’ अंकित था। वह पाकिस्तान के कमांडर-इन-चीफ फ्रैंक मेस्सेरवी का लिखा हुआ एक नोट था [पाकिस्तान और भारत [स्वतंत्र] दोनों के ही लिए पहले कमांडिंग-इन-चीफ ब्रिटिश थे, क्रमशः मेसेरवी और लॉकहार्ट, जो सुप्रीम कमांडर अॉकिनलेक, वह भी एक ब्रिटिश, को रिपोर्ट करते थ े, जो बदले में ब्रिटिश माउंटबेटन को रिपोर्ट करता था। इसलिए यह बात दीगर है कि माउंटबेटन और लॉकहार्ट एवं अॉकिनलेक—तीनों को ही जम्मू व कश्मीर पर हमले की योजना की जानकारी थी; जबकि अनुभवहीन भारतीय राजनेता पूरी तरह से अनजान थे], जिसमें कश्मीर पर हमले और कब्जे की योजना ‘अॉपरेशन गुलमर्ग’ की योजना को विस्तारपूर्वक बताया गया था। ‘अॉपरेशन गुलमर्ग’ को मूर्त रूप देने के लिए 22 अक्तूबर, 1947 की तारीख तय की गई थी, जिस तारीख को कई कबाइली लश्करों को हमला करते हुए जम्मूव कश्मीर की सीमा में घुस आना था। वे इस बात को याद करते हैं कि इसके बाद कैसे उन्हें और उनके परिवार को पाकिस्तान में अनौपचारिक रूप से घर में नजरबंद कर दिया गया! वे कैसे वहाँ से छूटने में सफल रहे, नई दिल्ली पहुँचे और फिर 19 अक्तूबर को भारतीय सेना के वरिष्ठ अधिकारियों को इस योजनाबद्ध हमले की पूरी जानकारी दी।” (ए.डब्ल्यू./59)
रोहित सिंह की ‘अॉपरेशंस इन जम्मू ऐंड कश्मीर 1947-48’ (यू.आर.एल.11) के अनुसार— “अॉपरेशन गुलमर्ग को आजादी के तुरंत बाद रावलपिंडी स्थित पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय में तैयार किया गया था। प्रक्रिया से संबंधित निर्देशों के ब्योरे वाले डी.ओ. पत्रों में पाकिस्तानी सेना के तत्कालीन ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ जनरल फ्रैंक मेसेरवी के अनुमोदन की मुहर लगी थी। योजना के मुताबिक, प्रत्येक पठान कबीले द्वारा 1,000 पठानों के लश्कर को तैयार किया जाना था। इस काम के लिए उपायुक्तों और राजनीतिक एजेंटों को अलग निर्देश जारी किए गए थे। एक बार भरती होने के बाद इन लश्करों को सितंबर 1947 के पहले सप्ताह तक बन्नू, वाना, पेशावर, कोहट, थाल और नौशेरा में इकट्ठा होना था।
“इसके बाद उन स्थानों पर मौजूद ब्रिगेड कमांडरों को उन्हें हथियारों, गोला-बारूद और कुछ कपड़ों से लैस करना था। इस पूरी कवायद को कागजों पर नियमित पाकिस्तानी खंडों के खिलाफ दिखाया गया था। प्रत्येक कबाइली लश्कर की कमान पाकिस्तानी सेना के एक मेजर के हाथों में थी, जिसे या तो मलिक के एक सलाहकार के रूप में या फिर लश्कर के नाममात्र के कमांडर के रूप में काम करना था। प्रत्येक मेजर के नीचे एक कैप्टेन और दस जे.सी.ओ. तैनात थे। प्रत्येक अनियमित कंपनी की कमान एक जे.सी.ओ. के हाथों में थी। पाकिस्तानी सेना में सभी स्थायी सैनिक पठान थे। प्रत्येक लश्कर को कम-से-कम चार गाइड/मुखबिर दिए गए थे।
“गोला-बारूद के अग्रिम भंडार 18 अक्तूबर को एबटाबाद में स्थापित किए जाने थे और फिर उन्हें डी-डे के बाद मुजफ्फराबाद और डोमर में स्थानांतरित हो जाना था। हमला करनेवाले बल की अगुवाई मेजर जनरल अकबर खान (सांकेतिक नाम ‘तारिक’) के हाथों में थी और ब्रिगेडियर शेर खान उनके सहयोगी थे। उनका मुख्यालय रावलपिंडी स्थित पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय के भीतर बना था।
“सभी लश्करों को रात के समय आम बसों में यात्रा करने और 18 अक्तूबर, 1947 तक एबटाबाद में इकट्ठा होने के निर्देश दिए गए थे। ‘अॉपरेशन गुलमर्ग’ के लिए डी-डे के रूप में 22 अक्तूबर, 1947 का दिन चुना गया था।” (यू.आर.एल.11)
कुलदीप नैयर ने लिखा—
“विलय के बाद महाराजा ने नई दिल्ली को इस बात के और अधिक सबूत मुहैया करवाए (उचित मुहर और नक्शों सहित योजनाएँ), जिनसे यह साबित होता था कि ‘जम्मूव कश्मीर में एक नए मुसलिम देश की स्थापना की साजिश मुसलिम लीग द्वारा’ सन् 1945 में ही तैयार कर ली गई थी।”