भूल-16
कोई उपयुक्त नीति संरूपण (Policy formulation) नहीं!
नेहरू, गांधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं के पास आजादी से पहले इस काम के लिए भरपूर समय मौजूद था कि वे स्वतंत्रता के बाद के लिए तमाम प्रासंगिक राष्ट्रीय नीतियों को तैयार कर सकें। लेकिन क्या उन्होंने ऐसा किया? नहीं। वर्ष 1915 में गांधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद से शीर्ष गांधीवादी नेताओं के पास आजाद भारत के लिए सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर अध्ययन करने, चर्चा करने, बहस करने और उन्हें निबटाने के लिए सन् 1947 में मिली स्वतंत्रता तक का 32 वर्षों का लंबा समय था।
इसके बावजूद स्वतंत्रता आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरियों में से एक 1947 से कहीं पहले ही एक ऐसे प्रबुद्ध संविधान को तैयार करने में कांग्रेस की विफलता थी, जो भारत के लिए अनुकूल हो। सिर्फ कानूनी बारीकियों से भरा हुआ एक शब्द-जाल नहीं, बल्कि एक छोटा सुस्पष्ट-सा, जिसे गैर-विशेषज्ञ भी आसानी से पढ़ व समझ सकें, बिल्कुल अमेरिकी संविधान की तरह। इसे आजादी के बाद स्कूलों में एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने क्या किया? उन्हें भारतीय संविधान के रूप में सेवा करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत द्वारा थोपे गए भारत सरकार अधिनियम-1935 को संशोधित करने और रद्द करने में 29 महीने से भी अधिक का समय लगा (कृपया भूल-14 के उप-शीर्षक ‘जी.ओ.आई. ऐक्ट-1935 और डोमिनियन स्टेटस’ को देखें)।
निश्चित रूप से, स्वतंत्रता आंदोलन की कहीं अधिक बड़ी कमजोरी अर्थव्यवस्था, वित्त, कराधान, कृषि, उद्योग, शिक्षा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, संस्कृति, भाषा, प्रशासन, कानून-व्यवस्था, आंतरिक सुरक्षा, बाह्य सुरक्षा, विदेश नीति इत्यादि क्षेत्रों से संबंधित सुविचारित नीतियों को सन् 1947 में मिली आजादी से कहीं पहले ही तैयार करने में कांग्रेस की विफलता थी। उन्हें निश्चित रूप से इसका अध्ययन भी करना चाहिए था कि कैसे पश्चिमी देश, विशेषकर अमेरिका, गरीबी को बेहद कम कर देने में सफल रहे थे और कैसे भारत स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद उनके ही रास्ते पर चल सकता था! यहाँ तक कि अगर विभिन्न मुद्दों पर सहमति की स्थिति नहीं बनती तो भी पक्ष और विपक्ष के साथ अलग-अलग विकल्प, वह भी विभिन्न देशों के व्यावहारिक उदाहरणों के साथ, को भविष्य के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में तैयार किया जाना चाहिए था। इस प्रकार परिणाम को ध्यान में रखते हुए विशेषज्ञ टीमों को तैयार किया जाना चाहिए था। अध्ययन टीमों के लिए पैसे की व्यवस्था की जानी चाहिए थी। तैनात करने के लिए पर्याप्त प्रतिभा उपलब्ध थी। उन्हें समर्थन देने के लिए बिरला जैसे कई वित्त-पोषक मौजूद थे। समय या धन या प्रतिभा की कोई कमी नहीं थी।
लंबी अवधि के लिए जेल में बंद होनेवाले नेताओं के पास भविष्य के संविधान और नीतियों से संबंधित विभिन्न पहलुओं के बारे में पढ़ने, अध्ययन करने, सोचने, चर्चा करने और फिर किसी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए निर्बाध समय का एक अतिरिक्त लाभ भी प्राप्त था। कांग्रेस के बारह शीर्ष नेता—वल्लभभाई पटेल, नेहरू, मौलाना आजाद, कृपलानी, जी.बी. पंत, पट्टाभि सीतारमैया, नरेंद्र देव, आसफ अली, शंकरराव देव, पी.सी. घोष, सैयद महमूद और हरे कृष्ण महताब—वर्ष 1942 से 1945 तक लगभग तीन साल के लिए अहमदनगर किला जेल में वी.आई.पी. कैदी के रूप में रहे। लेकिन तीन साल की इस लंबी अवधि के दौरान भारत के तात्कालिक या फिर मध्यावधि या फिर दीर्घकालिक भविष्य के लिए प्रासंगिक किसी भी विषय के संबंध के कोई भी छोटी या विस्तृत योजना या नीतियाँ या फिर विशेषज्ञ अध्ययन सामने नहीं आया और यहाँ तक कि उस दौर के सबसे ज्वलंत मुद्दे—स्वतंत्रता की ओर बढ़ते कदमों को लेकर भी! गांधी, नेहरू, पटेल और अन्य शीर्ष कांग्रेसी नेताओं ने ब्रिटिश जेलों में कई साल बिना किसी श्रम, यातना या कठिनाई के बिताए (उन क्रांतिकारियों या फिर अन्यों के बिल्कुल उलट, जिस पर कोड़े बरसाए गए या फिर यातनाएँ दी गईं और जिन्हें मूलभूत सुविधाओं तक से वंचित किया गया), उन्हें वहाँ पर पढ़ने व लिखने तथा चर्चा करने तक की सुविधा उपलब्ध थी। इसके बावजूद उन्होंने शायद ही कोई ऐसा काम किया हो, जिसे स्वतंत्रता के बाद सार्थक, व्यावहारिक, उपयोगी और कार्यान्वयन लायक माना जा सके।
जेल में गांधी अपने निसर्गोपचार पद्धति, पोषण, उपवास, एनीमा और औषधीय नीम-हकीमी के नाटकों में रम गए; साथ ही ऐसे असंख्य पत्रों व लेखों के माध्यम से शब्दों के अथाह सागर में भी, जो बिल्कुल ही बेमतलब के काम थे। जेल से बाहर रहने के दौरान गांधी अपने आश्रमों में तानाशाही चलाने का पूरा आनंद लेते और वहाँ रहनेवालों का जीवन दुश्वार बना देते तथा उन्हें सूत कातने इत्यादि जैसी समय काटनेवाली गतिविधियों में उलझाए रखते थे।
गांधीवादी नेताओं, जिनमें गांधी व नेहरू भी शामिल थे, के सामूहिक कार्यों और लेखनों में, ऊपर वर्णित महत्त्वपूर्ण विषयों में से किसी पर भी गंभीर चर्चा मौजूद नहीं है और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण—आर्थिक नीतियों पर भी नहीं। ऐसा लगता था कि उन्हें इस बात से कोई मतलब ही नहीं था कि स्वतंत्रता के बाद भारत को समृद्ध कैसे बनाया जाए। यह बिल्कुल ऐसा था, जैसे एडम स्मिथ, मिल्टन फ्रीडमैन, फ्रेडरिक हाएक सहित अन्य उल्लेखनीय अर्थशास्त्री उनकी नजरों में मौजूद ही नहीं थे। ऐसा प्रतीत होता था, जैसे अर्थशास्त्र का अध्ययन और एक आधुनिक राष्ट्र का प्रबंधन कैसे करना है, यह विषय उनके लिए बिल्कुल अप्रासंगिक था।
जैसाकि नेहरू के स्वतंत्रता के बाद के दौर में स्पष्ट हो गया था, भारत ‘ग्लिंप्सेस अॉफ वर्ल्ड हिस्टरी’ के बावजूद अंतरराष्ट्रीय मामलों, रक्षा एवं बाह्य सुरक्षा के मामलों में बुरी तरह से विफल रहा और ‘डिस्कवरी अॉफ इंडिया’ के बावजूद भारत अपनी विशिष्टता खोजने में असफल रहा तथा पूरी तरह से आशा-विहीन हो गया। अन्य नेता भी आजादी से पहले ही भारत की भविष्य की नीतियाँ कैसी होनी चाहिए, इस बारे में भी नहीं सुझा पाए। इसके चलते नेहरू का काम और आसान हो गया। वे बिना किसी रोक-टोक के शाही गलतियाँ करने लगे। इतना जरूर है कि सरदार पटेल जब तक जीवित रहे, नेहरू की गलतियों को सीमित करने में सक्षम रहे।
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नीरद चौधरी ने बिल्कुल सटीक टिप्पणी की— “...भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में न सिर्फ सकारात्मक और रचनात्मक विचारों की पूर्ण अनुपस्थिति थी, बल्कि सोच की भी थी। इन कमियों के विनाशकारी परिणाम सन् 1947 में सामने तो आने ही थे। राष्ट्रवादी आंदोलन की बौद्धिक गरीबी धीरे-धीरे बौद्धिक दिवालिएपन में बदल गई; लेकिन किसी ने यह नहीं माना कि क्योंकि ब्रिटिश शासन के प्रति घृणा तर्कसंगत विचारों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ती थी। मैं जिस समयावधि के बारे में बात कर रहा हूँ (1921-52), उसके दौरान उनमें से (गांधी, नेहरू...) किसी ने भी ब्रिटिश शासन के ‘बाद क्या करना है’, इसको लेकर एक भी विचार नहीं रखा। इससे भी अधिक चौंका देनेवाली बात यह है कि इनमें से कोई भी नेता एक भी सकारात्मक विचार रखने की योग्यता नहीं रखता था, क्योंकि उनमें से किसी को भी भारतीय इतिहास, जीवन और संस्कृति का कोई सार्थक ज्ञान तक नहीं था।” (एन.सी./31-32)
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रुस्तमजी ने लिखा—“एक और कमी, जिसका उल्लेख किया जा सकता है, वह यह थी कि इन वर्षों के दौरान हम में से किसी ने भी यह सोचा तक नहीं था कि स्वतंत्रता इतनी जल्दी मिल जाएगी (गांधीवादी तरीकों को देखते हुए स्वतंत्रता हमेशा एक दूर का सपना था और आखिरकार, जब यह प्राप्त हुई तो यह गांधी-नेहरू-कांग्रेस के चलते नहीं थी—(कृपया भूल#12 को देखें)। इसलिए हमने सरकारों को ठीक तरीके से चलाने के लिए कभी भी तैयारी, अध्ययन या फिर व्यवस्था ही नहीं की।” (रुस्त./216)