"अगर तुम्हें कभी किसी सुनसान जगह में पुराना झूला दिखे... तो उस पर कभी मत बैठना। वो किसी और के लिए है... किसी ऐसे के लिए जो अब इंसान नहीं रहा।"
गाँव की परछाइयों में कुछ कहानियाँ सिर्फ फुसफुसाहटों में ज़िंदा रहती हैं। कोई उन्हें ज़ुबान नहीं देता... क्योंकि जो बोलते हैं, वो फिर कभी नहीं सुनते।
और अगर आपने कभी ‘नरथुआपुर’ का नाम सुना है, तो यकीन मानिए… आप पहले से ही खतरे में हैं। वहाँ एक बच्चा था, जो मर कर भी कभी बड़ा नहीं हुआ। और हर अमावस को, जब हवा भी सहम जाती है, वो वापस आता है—झूले पर बैठने… और अपने साथ एक दोस्त ले जाने।
साल 1997 की एक धुंधभरी सर्दी थी। दिल्ली से तीन कॉलेज के दोस्त—अनुज, सीमा और राघव—एक प्रोजेक्ट के लिए बिहार के एक पुराने, लगभग भूले-बिसरे गाँव "नरथुआपुर" पहुँचे। कहते हैं इस गाँव में एक ज़माने में बहुत चहल-पहल हुआ करती थी, पर अब वो वीरान था। वहाँ न बिजली थी, न कोई पक्की सड़क। और सब कुछ जैसे समय के किसी डरावने कोने में फँस चुका था।
गाँव के बीचों-बीच एक पुराना पीपल का पेड़ था, जिस पर एक लकड़ी का झूला लटक रहा था। झूला हर वक्त धीरे-धीरे हिलता रहता, चाहे हवा हो या न हो। और अजीब बात ये थी—झूले की रस्सियाँ खून के धब्बों से सनी थीं… जैसे किसी ने वहां कुछ खींचा हो… या घसीटा हो।
"कोई बच्चा खेलता होगा," अनुज ने कहा।
"इस बियाबान में? जहाँ कोई बच्चा दिखता भी नहीं?" सीमा ने फुसफुसाकर जवाब दिया।
उस रात तीनों गाँव के एक टूटी हवेली में रुके। हवेली के अंदर हर दीवार पर उभरे हुए हाथों के निशान थे—छोटे-छोटे, जैसे किसी बच्चे के हों। रात करीब तीन बजे, जब राघव उठकर पानी पीने गया, उसने देखा—दरवाजे के बाहर वही झूला हिल रहा है... और उस पर कोई बैठा है।
वो एक बच्चा था—करीब 6 या 7 साल का—काले, उलझे बाल, पीली आंखें, और चेहरा... मानो जला हो। राघव कुछ पल को पत्थर हो गया, लेकिन फिर अचानक बच्चा उसकी तरफ मुड़ा और मुस्कराया।
"तुम मेरे दोस्त बनोगे?"
राघव चिल्लाया और सबको जगा दिया, पर जब सब बाहर आए—झूला खाली था।
अगले दिन गाँव के इकलौते बूढ़े पुजारी से उन्होंने पूछा। पुजारी ने काँपते हुए कहा,
"वो झूला 'अरव' का है।"
"कौन अरव?" सीमा ने पूछा।
पुजारी की आँखों में डर तैर गया, "दस साल पहले, एक औरत अपने बच्चे के साथ यहाँ आई थी। वो औरत किसी तांत्रिक की साधना का हिस्सा थी। बच्चा, 'अरव', उसी की बलि था। पर बलि पूरी नहीं हो पाई। बच्चा आधा मर गया... और आधा कुछ और बन गया। अब वो हर अमावस को अपने झूले पर वापस आता है... एक दोस्त की तलाश में। जिस पर वो भरोसा कर सके... जिसे वो हमेशा के लिए अपने साथ रख सके।"
रात होते-होते सीमा गायब हो गई।
अनुज और राघव ने हर जगह ढूँढा, पर हवेली में सिर्फ एक खिलौना पड़ा था—लकड़ी का एक छोटा घोड़ा, जिस पर लिखा था—“मैंने दोस्त बना लिया।”
और तभी अनुज को याद आया, सीमा ही थी जिसने सबसे पहले झूले को छूने की हिम्मत की थी।
अगली रात, अनुज अकेले ही उस झूले के पास पहुँचा। "सीमा को छोड़ दो," वो चीखा।
अंधेरे में हलचल हुई। झूला फिर हिला।
अरव सामने आया। उसके चेहरे पर मुस्कान थी, पर वो मुस्कान इंसानी नहीं थी।
"तुम उसका बदला बनोगे?"
अनुज ने आंखें बंद कर ली… और कहा, "हाँ।"
अगली सुबह गाँव फिर से शांत था।
दिल्ली लौटकर राघव ने अनुज को ढूँढा, लेकिन अनुज कभी वापस नहीं आया। पर कुछ महीनों बाद, दिल्ली के एक पार्क में एक नया झूला लगाया गया। हर रात वो अपने आप हिलता रहता था।
और पार्क के कोने में एक लकड़ी का घोड़ा पड़ा था, जिस पर लिखा था—
“मैंने दिल्ली में दोस्त बना लिया।”
कहानी खत्म... लेकिन डर नहीं।
कभी किसी सुनसान जगह में झूला दिखे… तो याद रखना—कुछ दोस्ती हमेशा के लिए होती है।