"कुछ दरवाज़े सिर्फ़ खोलने के लिए नहीं होते... कभी-कभी वो एक बार खुल जाएं तो बंद नहीं होते!"
चारों तरफ़ गहरा सन्नाटा था, जैसे रात ने अपने काले परों से पूरे शहर को ढंक लिया हो। बारिश की धीमी-धीमी बूँदें पुराने सरकारी अस्पताल की टूटी छत पर टपक रही थीं, मानो समय खुद यहाँ मर चुका हो। ये था सिविल हॉस्पिटल, वार्ड नंबर 3, जहाँ कोई इलाज कराने नहीं, बस अंतिम विदाई के लिए आता था। और इस अस्पताल के सबसे पिछले हिस्से में था — पोस्टमार्टम रूम नंबर 13।
यह कमरा पिछले दस सालों से बंद था, क्योंकि कहा जाता था कि यहां जो शव लाए जाते हैं, वो कभी-कभी खुद से हिलने लगते हैं...
निशा, एक इंटर्न डॉक्टर, अपने पहले नाइट शिफ्ट के लिए आई थी। उसे निर्देश मिला था कि उसे आज रात एक अज्ञात शव का पोस्टमार्टम करना है — अकेले, क्योंकि बाकी सभी कर्मचारी अचानक बीमार हो गए थे या छुट्टी पर थे।
निशा ने जैसे ही पोस्टमार्टम रूम नंबर 13 का दरवाज़ा खोला, एक सड़ी हुई लाश की दुर्गंध उसके नथुनों में घुस गई। लेकिन उससे ज्यादा अजीब था वहां का माहौल — जैसे कमरे की दीवारें खुद दर्द में कराह रही हों।
कमरे की ट्यूबलाइट झपक रही थी, और एक पुराना रेडियो अपने आप चालू होकर केवल फुसफुसाहटें कर रहा था — कोई साफ आवाज नहीं, बस गूंजती फुसफुसाहटें।
शव एक अज्ञात महिला का था, जिसका चेहरा बुरी तरह बिगड़ा हुआ था। रिपोर्ट में लिखा था "आत्महत्या", लेकिन निशा को जैसे कोई देख रहा हो, कोई उसकी हर हरकत को पकड़ रहा हो।
जैसे ही उसने पहली कट लगाई, शव की आंखें अचानक खुल गईं!
निशा चीखकर पीछे हटी, लेकिन अगली ही पल सब कुछ सामान्य हो गया। शव वैसे ही पड़ा था। डर को दबाकर वह काम में लगी रही — लेकिन तभी बिजली चली गई।
अंधेरे में केवल उसकी सांसों और रेडियो की आवाज़ें थीं — जो अब कुछ साफ़ शब्द बोल रही थी...
"तू भी मरेगी... वैसे ही... जैसे मैंने मारी..."
निशा को जल्द ही एहसास हुआ कि ये कोई आम लाश नहीं है। उसने पुरानी रिपोर्ट्स खंगालनी शुरू की और पाया कि पिछले दस सालों में जिनका पोस्टमार्टम रूम नंबर 13 में हुआ था, उनमें से चार डॉक्टर गायब हो चुके थे — बिना कोई सुराग छोड़े।
उसने मृत महिला की उंगलियों पर ध्यान दिया — नाखूनों में खून और चमड़ी के टुकड़े थे, जैसे मरने से पहले उसने किसी से ज़ोरदार लड़ाई की हो। लेकिन केस "आत्महत्या" कैसे घोषित हुआ?
अचानक, कमरे का दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया और लॉक हो गया। निशा की आंखों के सामने एक दृश्य तैरने लगा — जैसे कोई छवि सीधे उसके दिमाग में उतर रही हो।
उसे दिखा: एक औरत को जबरदस्ती घसीटकर इस रूम में लाया गया, जिंदा। उसे ज़िंदा काटा गया था, पोस्टमार्टम टेबल पर। हत्यारे कोई और नहीं, खुद अस्पताल के सीनियर डॉक्टर थे।
रूम नंबर 13, एक प्रयोगशाला बन चुका था — जहां अंगों की तस्करी के लिए जिंदा लोगों को मारा जाता था। और अब, उन पीड़ितों की आत्माएं इस कमरे में बंद थीं।
जब अगली सुबह स्टाफ आया, तो रूम नंबर 13 फिर से बंद मिला — बाहर से। दरवाज़े पर लिखा था:
"निशा अभी पोस्टमार्टम कर रही है — डिस्टर्ब न करें।"
लेकिन जब दरवाज़ा तोड़ा गया — अंदर कोई नहीं था, सिवाय उस औरत की लाश के, जिसकी आंखें अब मुस्कुरा रही थीं... और टेबल पर दूसरी लाश पड़ी थी — निशा की।
फाइल में दर्ज किया गया: "आत्महत्या"।
रात होते ही पोस्टमार्टम रूम नंबर 13 में फिर से वो रेडियो बजने लगता है — और फुसफुसाहट सुनाई देती है:
"अगली बारी किसकी है?"
कहते हैं, अब वहां जो भी जाता है, वो या तो शव बनकर लौटता है... या आत्मा बनकर वहीं रह जाता है।
“सच का कोई चेहरा नहीं होता... लेकिन झूठ की लाशें हमेशा गिनती से ज़्यादा होती हैं।
तीन महीने बाद, अस्पताल में एक नया डॉक्टर आया — डॉ. रोहित मलिक, क्रिमिनल फॉरेंसिक में माहिर, जिसे निशा की मौत की असली वजह जानने की ज़िम्मेदारी दी गई थी।
उसने खुद पोस्टमार्टम रूम नंबर 13 की जांच करने की ज़िद की। वरिष्ठ अधिकारी ने चेतावनी दी,
“ये कमरा नापाक है। जो वहां गया, वापस नहीं आया।”
लेकिन डॉ. रोहित ने जवाब दिया,
“शायद क्योंकि किसी ने सच में वहां से लौटने की कोशिश नहीं की।”
डॉ. रोहित ने जैसे ही कमरे में कदम रखा, दरवाज़ा खुद से खुला। अंदर गंध तो थी, लेकिन उससे ज्यादा अजीब थी — दीवार से आती धीमी कराहने की आवाज़ें। जैसे कोई औरत फुसफुसा रही हो...
"मुझे बाहर निकालो..."
जांच के दौरान उसे दीवार में एक चाकू मिला — जंग खाया हुआ, खून से सना हुआ, और उस पर निशा का नाम खुदा हुआ।
उसी रात, रोहित को अस्पताल के CCTV में एक चीज़ दिखी — निशा की आत्मा, पोस्टमार्टम टेबल के पास खड़ी थी, और कुछ लिख रही थी... लेकिन वहां कोई चॉक या पेन नहीं था।
अगले दिन रोहित ने पुरानी केस फाइलें खंगालना शुरू कीं। उसे एक "फाइल नंबर 267" मिली, जो आधी जली हुई थी। उसमें दर्ज था —
"प्रोजेक्ट ज़ीरो — शरीरों की अंग-तस्करी योजना, जहां गरीब और अज्ञात मरीजों को 'गायब' कर दिया जाता था।" और सबसे चौंकाने वाली बात — इस फाइल पर हस्ताक्षर थे डॉ. महेश त्रिपाठी के — जो आज भी अस्पताल का डीन था।
सच सामने, लेकिन बहुत देर से रोहित ने तय किया कि वो इस मामले को मीडिया तक पहुंचाएगा। उसी रात वो फिर से पोस्टमार्टम रूम में गया — सबूत इकट्ठा करने के लिए। लेकिन जैसे ही उसने रिकॉर्डिंग चालू की — दरवाज़ा लॉक हो गया। रेडियो फिर से बजने लगा — और इस बार आवाज साफ थी:
"तू भी उसी राह पर है… अब तेरा पोस्टमार्टम कौन करेगा?"
कुछ सेकंड में, दीवारों से खून टपकने लगा, लाशें खुद से हिलने लगीं, और टेबल पर निशा की लाश आंखें खोलकर उठ गई — लेकिन ये सिर्फ उसकी आत्मा नहीं थी — वो किसी और के शरीर में प्रवेश कर चुकी थी।
उसने कहा, “अब मेरी बारी है सच को उजागर करने की — तेरी नहीं।”
और अगली सुबह, डॉक्टर रोहित लापता पाया गया।
पोस्टमार्टम रूम नंबर 13 में अब दो लाशें थीं — एक नई, एक पुरानी — और रेडियो पर बजता रहा एक ही वाक्य:
“सच ज़िंदा नहीं बचता, लेकिन वो मरने भी नहीं देता।”
सरकारी रिपोर्ट में फिर से लिखा गया:
"मौत: आत्महत्या"
पर हर रात 2:13 बजे, पोस्टमार्टम रूम नंबर 13 में रेडियो अपने आप बजता है।
लोग कहते हैं — अब वहां सिर्फ लाशें नहीं मिलतीं, बल्कि सच की कराह भी सुनाई देती है।
और जो भी उस आवाज़ को सुन लेता है…
वो या तो मर जाता है... या उस कमरे का हिस्सा बन जाता है।