IMTEHAN-E-ISHQ OR UPSC - 1 in Hindi Love Stories by Luqman Gangohi books and stories PDF | इम्तेहान-ए-इश्क़ या यूपीएससी - भाग 1

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इम्तेहान-ए-इश्क़ या यूपीएससी - भाग 1

सहारनपुर और उत्तरकाशी से पटेल नगर तक का सफर

सहारनपुर की सुबह कुछ खास नहीं थी उस दिन। वही हलकी-हलकी धूप, गलियों मैं चाय के भगोने की आवाजें, कहीं दूर से आती मस्जिद की अज़ान, और घरों की दीवारों से टकराते हुए "इम्तिहान के दिन नज़दीक हैं' जैसी आवाज़े। मगर एक कमरा था मोहल्ला कुतुबशेर में, जिसकी दीवारें उस रोज़ कुछ अलग महसूस कर रही थीं। वो कमरा जिसमें बैठा था- दानिश खान।

दोपहर की ट्रेन पकड़नी थी दिल्ली के लिए, क्योंकि UPSC की तैयारी के लिए पटेल नगर जाना था जहां उसके ख्वाब का पहला ठिकाना था। माँ ने बैग में कपड़े रखने के साथ-साथ एक लिफाफा भी रख दिया, जिसमें कुछ नोट और एक चिट्ठी थी।

"बेटा, खुदा करे तुम्हारी मेहनत रंग लाए... मगर ये मत भूलना कि इम्तिहान सिर्फ किताबों से नहीं, बल्कि दिल से भी पास होते हैं। इसलिए कभी चाह कर भी किसी का दिल मत दुखाना - माँ"

दानिश ने चिट्ठी को चूमा और बैग कंधे पर डाल लिया। और अपने शहर से निकलकर अब उसे उस दिल्ली में जाना था, जो हज़ारों ख्वाब रोज़ निगलती और कुछ को पैदा भी करती है।

✨पहली मुलाकात उस शहर से जो उसकी किस्मत लिखने वाला था

पटेल नगर मेट्रो स्टेशन के बाहर खड़ा दानिश थोड़ा घबराया, थोड़ा खोया हुआ था। चारों तरफ भागती भीड़, चाय-समोसे की खुशबू और रोड के किनारे हर दस कदम पर कोचिंग सेंटर की कतार मानो हर चेहरा कह रहा थाः "बस थोडा और, फिर UPSC पास ही समझो !"

PG ढूंढना, कोचिंग जॉइन करना, और लाइब्रेरी की मेंबरशिप लेना दानिश ने सब कुछ शांत चेहरे से किया। लेकिन अकेलापन धीरे-धीरे खामोशी में बदलने लगा था। हर दिन लाइब्रेरी में बैठकर पढ़ना, चाय पीना और फिर उसी एक कमरे में लौट आना जैसे कोई साउंडट्रैक बिना आवाज़ के बज रहा हो। फिर एक दिन, उसने देखा... एक लड़की को जो-

दानिश की ही तरह अपने सपनों के साथ दिल्ली की चकाचौंध में अपनी किस्मत आजमाने अपने परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लिए और समाज के ताने सर पर लिए उत्तरकाशी से आई थी। उनके पिताजी का सपना है कि उनकी बेटी अफसर बने, और उस छोटे-से शहर की सोच को तोड़े जहाँ लड़कियों के लिए सीमाएँ तय कर दी जाती हैं।

"बेटा, तू सिर्फ मेरी आरजू नहीं, तेरे जैसी हजारों लड़कियों की हिम्मत बनेगी।" - पापा

आरजू ने दिल्ली आकर खुद को संभाल लिया था-
वो आत्मनिर्भर थी, PG में अकेली रहती, खुद खाना बनाती, खुद पढ़ाई करती। दूसरों की तरह उसे भी डर लगता था, लेकिन वो डर को चालाकी से हँसी में छुपा लेती। उसकी आँखों में चमक थी कुछ पा लेने की, पर ठहराव भी था कुछ बचा कर रखने की।

✨जब दानिश ने आरजू को पहली बार देखा

दानिश ने उसे पहली बार देखा लाइब्रेरी की खिड़की के पास हरी कुर्ती में, कानों में छोटे से झुमके, और चेहरे पर वो मासूम मगर मजबूत-सी मुस्कुराहट। वो खुद में मग्न थी लेकिन दुनिया को चुपचाप देख रही थी। दानिश कुछ पल उसे देखता रहा, फिर नज़रें झुका लीं। उसे नहीं पता था कि ये वही चेहरा है, जो आने वाले दिनों में उसकी दुनिया बदल देगा। उसके बाद हर दिन उसे वही कुर्सी चाहिए होती थी - खिड़की वाली, जो आरज़ू के करीब होती थी। आरजू को भी उसकी मौजूदगी का एहसास हो गया था। वो ध्यान से पढ़ता था, कम बोलता था, पर उसकी आंखों में कोई बात थी कुछ अधूरी सी, कुछ बहुत गहरी सी।

वो दोनों जो अभी तक अनजान थे, मगर जुड़ रहे थे। लाइब्रेरी की टेबल पर अक्सर उनके हाथ एक-दूसरे की नोटबुक से टकरा जाते। आरजू मुस्कुराती, दानिश नज़रें चुराता ।

चाय की टपरी पर दोनों अक्सर एक ही समय पर खड़े होते। बिना बात किए, साथ चाय पीते। एक अजीब सा "सुकून" था - बिना शब्दों वाला।

उस शाम, जब लाइब्रेरी बंद हो रही थी, दानिश ने अपनी डायरी में पहली बार किसी इंसान के लिए कुछ लिखा -

"वो लड़की शायद किताबों जैसी है जितनी पढ़ो, उतनी नई लगती है।

कुछ कहना है उससे... पर शायद पेन ही बहाना बनेगा।"

उस रात पटेल नगर की एक खिड़की पर बैठा दानिश पहली बार किसी के बारे में सोच रहा था, जो अभी तक उसकी कुछ भी नहीं थी - और फिर भी बहुत कुछ थी।

(और अब... एक पेन के बहाने दो अंजान दिलों के बीच पुल बनेगा। चुप्पियाँ टूटेंगी, शब्द बोलेंगे। कहते हैं ना कभी-कभी मोहब्बत की शुरुआत बस एक उधार माँगे गए पेन से होती है... इंतज़ार कीजिए।)