☕चाय से सिवंईयों तक का सफर🍸
("कुछ साथ में ऐसे होते हैं जो न तो दोस्त होते हैं, न ही इश्क़ बस, साथ चलते हैं कोई तो किसी मोड़ पर दोस्त का चोला ओढ लेता है तो कोई इश्क़ का ")
लाइब्रेरी में अब वो दो सीटें बुक मानी जाती थीं एक खिड़की के पास की कुर्सी आरजू की, और उसके ठीक बराबर वाली दानिश की।
वो पहले जैसे टेबल शेयर करना, अब रूटीन बन चुका था। दोनों बिना कहे एक-दूसरे को देख लेते थे कि आज मूड कैसा है, थकान है या जोश, पढ़ने का मन है या चाय की ज़रूरत ।
चाय से रिश्ते की गर्माहट बनने लगी थी, शाम के वक्त, जब लाइब्रेरी थोड़ी ढीली पड़ जाती - दानिश धीरे से कहताः
"चलो? एक कटिंग चाय हो जाए।"
आरजू सिर हिलाकर मुस्कुरा देती।
वो टपरी वाला अब उन्हें पहचानने लगा था।
"भइया, वही एक अदरक वाली, एक इलायची वाली।" "और हां थोड़ा मीठी, आज टॉपिक समझ आया है। आरजू हँसते हुए कहती।
दानिश अब उसकी बातों पर खुलकर हँसने लगा था, और आरजू उसकी खामोश बातों को समझने लगी थी।
चाय के साथ बातें होतीं कभी 'क्या पढ़ा आज?",
कभी 'ये सवाल कितने बार पूछा गया है Mains में?"
और कभी-कभी - 'क्या तुम्हें भी दिल्ली की भीड़ में अकेलापन लगता है?"
अब वो समय भी दस्तक देने लगा जब वो दोनों एक दूसरे का हमसाया बनकर पटेल नगर की गलियों में कभी कभी नज़र आने लगे। अब ये मुलाकातें सिर्फ़ चाय तक सीमित नहीं रहीं। कभी किताब खरीदने के बहाने, कभी सब्जी लेने के बहाने, कभी बस यूँ ही घूमने चल देना। वे अब साथ चलने लगे थे।
एक बार उन्होंने एक पुरानी दुकान से ऑप्शनल सब्जेक्ट की किताबें खरीदीं, और जब बाहर निकले तो हल्की बारिश शुरू हो गई। दानिश ने अपना रूमाल बढ़ाते हुए कहाः
"छाता नहीं है... पर कम से कम किताबें तो भीगने से बच जाएंगी।"
आरजू मुस्कुरा कर बोली: "और मेरा क्या?"
दानिश ने नज़रें मिलाए बिना कहाः
"तुम तो वैसे भी बारिश में सुंदर लगती हो।"
आरज़ू चौंकी, फिर पहली बार उसने शरमाकर नज़रें झुका लीं।
PG की कहानी - एक और क़दम नज़दीक आने का इत्तेफ़ाक
अब एक और इत्तिफ़ाक हुआ उनका PG एक ही बिल्डिंग में हो गया। दानिश दूसरे फ्लोर पर, और आरजू पहले पर। अब सुबह की मुलाकातें सिर्फ लाइब्रेरी में नहीं होती थीं कभी सीढ़ियों पर, कभी वॉटर कूलर के पास, कभी गलती से दरवाजे पर दस्तक।
एक दिन आरज़ू नीचे खड़ी थी, दूध लेने आई थी।
दानिश ने ऊपर से आवाज़ दीः
"ऐसे ही चाय पीने का मन कर जाए तो बुला लेना।"
आरजू ने ऊपर देखा, हँसी रोकी और बोली:
"तुम्हारी चाय पी, तो पढ़ाई भूल जाऊंगी।"
"तो मत पढ़ो उस दिन, बस बातें करेंगे।"
"... ठीक है, कभी-कभी।"
और मुस्कराते हुए वो अंदर चली गई।
एक दिन दोनों लाइब्रेरी में पढ़ रहे थे, दोपहर का समय था दोनों के चेहरों पर उबासी झलक रही थी तो दानिश ने आरजू को इशारा किया कि चाय पीने चलते हैं और दोनों लाइब्रेरी से निकलकर एक आज़ाद पंछी की तरह चाय की टपरी पे जा बैठे। वहां चाय की चुस्की ली तभी यकायक मौसम ने करवट बदली और बादलों ने सूर्य को अपनी आगोश में ढक लिया। तभी उन दोनों ने एक-दूसरे को उमंग भरी निगाहों से देखा और लाइब्रेरी से सटे पार्क में जाने का इशारा किया ताकि इस सुहावने मौसम में कुछ और गुफ्तगू हो जाए। फिर वै आज़ाद पंछी चाय की टपरी से पार्क में जा बैठे और एक दूसरे की बातों में खो गए और कुदरत का करिश्मा तो देखिए तभी झमझमाझम बारिश शुरु हो गई। बारिश से बचने के लिए एक शेड की तरफ भागे लेकिन फिर भी थोड़ा थोड़ा भीग गए। तभी दानिश देखता है कि आरज़ू भी भीग चुकी है और उसकी जुल्फों का पानी उसके रुखसार को तर करता हुआ टपक रहा है। तो दानिश ने आरजू से नजरे तो हटा ली लेकिन दिल में उमंग जगा बैठा कि यही तो है जिसकी मुझे तलाश थी। फिर थोडी देर बाद बारिश कम हुई तो वह लाइब्रेरी में आकर पढने में मसरूफ हो गए।
फिर दौर वह आया जब रात की कॉलें और सुबह की मुस्कान अब एक समायोजित रूप लेने लगी थी।
धीरे-धीरे अब उनके बीच एक और पुल बन गया फोन कॉल।
रात को जब पढ़ाई खत्म होती, दानिश फोन करता।
"आज पढ़ाई कैसी रही?"
"इतिहास ने दिमाग का दही कर दिया।"
"और तुम?"
"तुमसे बात कर ली, अब सब ठीक लग रहा है।"
कभी सिर्फ 5 मिनट की बात होती, तो कभी 2 घंटे भी कब बीत जाते पता ही नहीं चलता।
पर हर बार कॉल खत्म होते हुए आरजू कहतीः
"सो जाओ अब, नहीं तो कल फिर पेन मेरा उठाएगा।"
फिर दानिश ने अपनी डायरी निकाली और डायरी में लिखाः
"अब ये बात सिर्फ चाय तक नहीं रही,
अब उसकी मुस्कान मेरे दिन की शुरुआत है।
और उसकी आवाज मेरी रात का चैन..."
(दानिश और आरज़ू अब बस लाइब्रेरी तक ही नहीं,
अब PG की सीढ़ियों, चाय की टपरी और फोन की राते भी साझा कर चुके हैं।
पर असली इम्तिहान तो अब शुरू होगा...
क्या ये एहसास इम्तिहान से पहले इज़हार बन पाएगा?
या फिर ये कहानी भी सिर्फ नोट्स और नींद में खो जाएगी?)
👉 पढ़िए नया हिस्सा –
"सेहरी, सिवइयाँ और इज़हार"