✨तुगलकाबाद का दिन, इश्क़ की शाम✨
("कुछ रिश्ते किसी तारीख पर नहीं बनते... वो बस एक किले की सीढ़ियों पर खड़े होकर बन जाते हैं।")
एक दिन रविवार की सुबह कुछ नई उमंगों के साथ हुई। रविवार होने की वजह से लाइब्रेरी बंद थी। दानिश ने सुबह-सुबह आरजू को मैसेज कियाः
"पढ़ाई छोड़ो आज... कहीं बाहर चलते हैं।"
थोड़ी देर बाद जवाब आयाः
"ठीक है, लेकिन गाइड तुम रहोगे। मैं सिर्फ़ मुसाफिर।"
"तो फिर चलो... इतिहास पढ़ने नहीं, महसूस करने चलते हैं तुगलकाबाद किला।"
तुगलकाबाद की दीवारों के बीच
दोपहर की हल्की धूप थी। दोनों मेट्रो से किला महरौली पहुँचे। पुराने पत्थरों, टूटी दीवारों और वीरान गलियों के बीच कुछ ज़िंदगी सांस ले रही थी-
वो दोनों, जो पहली बार बिना किताबों और नोट्स के, सिर्फ एक-दूसरे को महसूस करने आए थे।
कभी आरजू फोटो क्लिक करती, तो दानिश कहताः
"इतिहास जब लिखा जाता है, तब चेहरे नहीं मुस्कानें याद रखी जाती हैं।"
एक पुरानी दीवार पर बैठते हुए आरजू बोली:
आरज़ू - "इतना पुराना किला है, फिर भी खड़ा है... दानिश - "क्योंकि इसे मोहब्बत से नहीं, मज़बूत इरादों से बनाया गया था।"
आरजू ... जैसे हमारी दोस्ती?"
दानिश - "नहीं... ये तो कुछ और ही है। दोस्ती की शक्ल में दिल की इमारत ।"
ढलती शाम और बातें दिल से
शाम को जब सूरज उतरने लगा, दोनों किले की ऊंची दीवार पर बैठ गए। दिल्ली की भीड़ दूर लग रही थी....
और उनके बीच सन्नाटा बहुत पास। उसी बीच कुछ गुफ्तगू हुई -
दानिश - "तुम्हारे साथ वक्त रुक सा जाता है आरजू ।"
आरज़ू - "रुकने मत देना... वर्ना डर लगेगा।"
दानिश - "डर क्यों?"
आरजू - "क्योंकि जो चीजें खूबसूरत होती हैं, उनके खोने का डर सबसे ज्यादा होता है..."
दानिश चुप हो गया। आरजू की आँखें कुछ कह रही थीं डर, अपनापन, मोहब्बत... और इंतज़ार।
दानिश - "मैं खोने के लिए नहीं आया हूं तुम्हारी जिंदगी में।"
आरजू - "तो रहने के लिए आए हो?"
दानिश - "नहीं... जीने के लिए।"
आरजू ने बस सिर नीचे झुका लिया... उसकी नज़रें किले की जाली से बाहर देख रही थीं, मगर मन कहीं अंदर कॉप रहा था।
दानिश ने पहली बार उसका हाथ पकड़ा। धीरे से, सम्मान से, बिना किसी जल्दबाज़ी के।
आरजू - "जब पकड़ा है तो कभी छोड़ना नहीं..."
दानिश - " मरते दम तक नहीं छोडूंगा"
आरजू - "और अगर मैं खुद छुड़ाना चाहूं तो?"
दानिश - "तो भी तुम्हारे साथ ही चलूंगा... हाथ खाली नहीं, पर दिल खुला रखूंगा।" (मस्ती करते हुए)
अब सूरज छिपने को था, दिन रात की दहलीज पर खड़ा था तो उन दोनों को पीजी वापस लौटना था। अब उनको भूख भी लगी थी तो रास्ते में उन्होंने बिरयानी खाई वो भी एक ही थाली में, ऐसे खाना उन दोनों का पहला अनुभव था जो बाद में निरंतर हो गया। रात को PG लौटते हुए सड़क पर एकदम सन्नाटा था।
आरजू - "आज अच्छा लगा... दिन भर किसी के साथ होकर भी थकान नहीं हुई।"
"क्योंकि दिल का बोड़ा उतरा था शायद।"
"या फिर किसी ने बोझ उठाने में मदद की थी।"
PG के बाहर दोनों थोड़ी देर खड़े रहे। कोई अलविदा नहीं कहा बस मुस्कुरा कर आँखों से एक-दूसरे को देख लिया... जैसे कहना हो अब हम दोस्त से कहीं आगे बढ़ चुके हैं, मगर शब्दों की जरूरत नहीं।
उस रात दानिश ने अपनी डायरी में लिखा थाः
"आज किले की दीवारों ने गवाही दी....
कि एक मजबूत रिश्ता बनाने के लिए इमारत नहीं, इरादा चाहिए होता है।"
(ये रिश्ता अपने मुकाम पर पहुंचने से पहले ही थोड़ी नोकझौंक फेस करता है, लेकिन फिर भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सफल रहा,,,,,,,,, कैसे??????)
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