Kaal Kothri - 5 in Hindi Horror Stories by Neeraj Sharma books and stories PDF | काल कोठरी - 5

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काल कोठरी - 5

काल कोठरी -------(5)

                 हैरत मे मत पड़ो, दुनिया मे कुछ भी नमुंकिन है। कया सोच रहे हो, यही दुनिया खत्म, नहीं किसने कहा ---: उल्लू का पठा होगा वो "

सोच समझ कर बोलने वाले अक्सर भूल जाते है, " कहा से कया शुरू करना है। "

जिंदगी प्रोग्रामिग एक स्टेज है....

हम कया करने आये है, घर बाहर की फ़िक्र करने के लिए।

मकसद कया है ----- " आपनी गृहस्ती कैसे चलाओगे ?

पैसा, मकसद, फिर रुतबा.... फिर  खाक। सफर 60 साल का ऐसे ही एक उम्र निकल गयी।

सोचो ----

कुछ छूट रहा है ?

ये रेडिओ पर दीपक " प्रोग्राम लाजबाब दुनिया "सुन रहा था ?

जिसमे बहुत किस्से थे।

एक तो इतना जबरदस्त कि पूछो मत।

जिंदगी कुल मिला के कैंन्फुज करने की होती है, कम्फरम कम ही होंगे।

चलो अमरीका की बात करते है... यहां की अजब दुनिया है, अजब लोग है। कुछ  नग्न होकर पता नहीं कया बता देना चाहते है। मुर्गी खाते है। पर ये उन तकलीफो को भी जानते है जो इंडियन से भी होती है।

वहम ये बिलकुल नहीं करते। भूतों वाला बगला भी इनका 84 हजार डालर का किराये पर चढ़ता है। पर डरते ये बिलकुल नहीं।

जगल मे देखो, हाफ, शार्ट पेंट मे होंगे.... दीपक सुन भी रहा था हस भी रहा था।

फिर मन बदला। Fm लगा लिया। सोग सुने। फिर गाड़ी मे तेल भरवा लिया। हाँ, भाई सवारी छोड़ कर आ रहा था... तभी रिंगटोन वजी मोबाइल की।

"हैल्लो सर " जरा थाने आ सकते है। "

"----कयो नहीं "

दीपक फटाफट मे थाने पहुंच गया।

"घोसले जी ---" उसने इज़्ज़त दी।

"आ गए हो दीपक "  घोसले ने कहा।

"----हाँ सर " फिर चुप।

"----किधर से आ रहे हो.... "

"---सर सवारी थी चंडीगड की "

"ओह ----"

"फिर तो थके तो होंगे "

"नहीं सर ---"

"चलो फिर आपकी कार का झुटा लिया जाये। "

वो पता नहीं, दीपक को कयो इस केस से दूर ही रखना चाहता था।

दोनों कार मे बैठे। चल पड़े। दूर नहीं। पास पास ही।

" समझो एक बात दीपक, तुम मेरे लडके जैसे ही हो, इस केस का ठोस कारण ढूंढ लो, ये मरते दम तुझे छोड़े गे नहीं। "

"पर कैसे --- सर "

"--बताता हूँ ---- एक बोतल लो ठेके से, चार पांच अंडे उबले ले लो... फिर आ जाओ मेरे पास। "

सब खरीद के बाद ---- " मुफ्त की पीने के बाद साहब को होश ही कहा था --- "

"अब सवाल खड़ा हो गया, इसका कया करे दीपक --" खुद से बाते कर रहा था।

फिर थाने मे जाना ही उसे अच्छा स्वाविक लगा.. कोई और चक्र न पड़ जाये।

गाड़ी से उतरा... एक कंधे को बाह डाल कर खड़ा उसे करना चाहा... कमबख्त भारा ही बहुत था।

सामने दो बंदो की मदद से उतारा... फिर पुलिस थाना खुलवा कर अंदर छोड़ के आ गया। वो चेयर पर लुढ़क सा गया था।

बाहर आ कर। कार स्टार्ट की। आपने घर की और चल निकला....

फ्लेट की सीढिया चढ़ता, सोच रहा था, क़ानून अंधा तो है, मुफ्तखोर भी है। दीपक बच के कैसे रहेगा... खुद से ही बाते कर रहा था। किस झझट मे पड़ गया----दीपक आपने आपको ही मुजरिम समझने लग गया था। कैसा वक़्त आ गया। बचाने वाले ही जनता की कमजोरी पर --

मजे लूट रहे है... ये कैसा  प्रपोग्नडा है।

(चलदा )----------------  नीरज शर्मा।