Super Villain Series – Part 2: "पहला बलिदान"
स्थान: काशी का 2000 वर्ष पुराना एकांत शिव मंदिर
पात्र: पंडित हरिनाथ शुक्ल – एक 70 वर्षीय साधु, जो सच्चे भक्त हैं, और ब्रह्मचारी जीवन जीते हैं
सुबह का समय था।
गंगा किनारे हल्का सा कोहरा फैला हुआ था।
शिव मंदिर में पंडित हरिनाथ शुक्ल जैसे रोज़ की तरह सुबह 4 बजे मंदिर पहुँचे।
उन्होंने बेलपत्र चढ़ाया, जल अर्पित किया और एक छोटी सी प्रार्थना शुरू की।
“हे नीलकंठ… संसार बेकाबू होता जा रहा है।
अधर्म बढ़ रहा है।
कहीं से कोई आस नहीं दिखती प्रभु…
क्या अब भी कोई राम नहीं आएगा?”
उसी क्षण मंदिर के ऊपर काले बादल मंडराने लगे।
घंटियाँ ज़ोर-ज़ोर से बजने लगीं… लेकिन उल्टी ध्वनि में।
त्रैत्य का आगमन
मंदिर का मुख्य द्वार धीरे-धीरे अपने आप खुलने लगा।
पंडित जी चौंक गए।
आँखों के सामने एक छाया उभरी —
जिसकी तीन आँखें जल रही थीं,
तीन चेहरे… तीन भाव:
– घमंड
– क्रोध
– मौन
त्रैत्य काशी पहुँच चुका था।
संवाद
पंडित हरिनाथ: "तू कौन है... साधु नहीं लग रहा।"
त्रैत्य: "साधु नहीं, तुझ जैसा ब्रह्मचारी नहीं…
मैं त्रैत्य हूँ — देवताओं की परछाईं।"
पंडित: "अगर तू रावण की छाया है, तो राम भी आएगा…"
त्रैत्य (हँसते हुए): "इस बार राम नहीं आएगा…
क्योंकि अवतारों की उत्पत्ति का द्वार अब मैं बंद कर चुका हूँ।"
बलिदान
त्रैत्य की आँखें लाल हुईं।
मंदिर की दीवारें काँपीं।
शिवलिंग पर ज्वाला निकलने लगी।
पंडित हरिनाथ जी की छाती में एक तेज़ गर्म हवा घुसी — और उनकी साँसे थम गईं।
लेकिन उनके होंठ पर आखिरी शब्द थे:
"धर्म कभी मरता नहीं… बस इंतज़ार करता है।"
दुनिया पर असर
तीन मंदिरों की मूर्तियाँ फट गईं
भारत के 7 मुख्य शहरों में रात में लाल धुआँ फैला
108 संतों की नींद में एक ही सपना आया — त्रैत्य का
Super Villain Series: Part 3 — “कामाख्या का रहस्य”
("त्रैत्य" की अगली चाल और देव शक्तियों के साथ उसका पहला सीधा टकराव)
शैली: सरल हिंदी | सस्पेंस | इमोशन | रहस्य | थोड़ा हॉरर टच
शुरुआत
ब्रह्मांड की नज़रों से छिपी हुई एक जगह थी — कामाख्या शक्तिपीठ।
यहाँ आज भी कुछ ऐसा मौजूद था, जिसे देवता भी छू नहीं सकते थे।
लोगों को बस इतना पता था कि यहाँ "माँ" की एक शक्ति सुरक्षित है। पर यह शक्ति, माँ के प्रेम की नहीं, उनके क्रोध और श्राप की थी — जिसे कभी बाहर नहीं निकलने दिया गया।
पर त्रैत्य को वही शक्ति चाहिए थी।
त्रैत्य की योजना
त्रैत्य जानता था कि धर्म को नष्ट करने के लिए सिर्फ साधु-संतों को खत्म करना काफी नहीं होगा।
उसे "माँ शक्ति" के भी विरुद्ध खड़ा होना पड़ेगा।
और यह तभी संभव था, जब वह कामाख्या शक्तिपीठ की तांत्रिक ऊर्जा को उलट सके।
उसने एक रात, जब चंद्रग्रहण पड़ा था — पाँच नंग-भस्मधारी तांत्रिकों को पुकारा।
“मुझे माँ का श्राप चाहिए… मुझे देवी के क्रोध का वो हिस्सा दो, जिसे दुनिया ने कभी नहीं देखा।”
तांत्रिक अनुष्ठान
कामाख्या की काली गुफा में तांत्रिकों ने अनुष्ठान शुरू किया।
गुफा के चारों ओर काले दीये जलाए गए।
मंत्र उल्टे पढ़े गए — "ॐ काली महाकाली, काल के भी काल..."
चारों ओर काली हवा फैलने लगी।
एक तांत्रिक ने त्रैत्य से पूछा —
“देवी का श्राप कोई साधारण चीज़ नहीं है… इसे धारण करने से पहले तुम्हें एक त्याग करना होगा।”
त्रैत्य हँसा —
“मैंने अपने इंसान होने का त्याग कर दिया है। अब मैं केवल विनाश हूँ।”
फिर, जैसे ही अंतिम मंत्र पूरा हुआ…
श्राप जागा
गुफा की ज़मीन फट गई।
उसके नीचे से एक पुराना, लोहे का त्रिशूल बाहर निकला — जिस पर लिखा था:
"यह त्रिशूल उस दिन उठेगा, जब धरती माँ से बदला लेने आएगी।"
त्रैत्य ने जैसे ही त्रिशूल को छुआ — उसकी आँखों से खून बहने लगा, शरीर से धुआँ निकलने लगा।
वो चीखा नहीं… वो हँसा।
उसकी हँसी से गुफा के सारे दीये बुझ गए।
पाँचों तांत्रिक जलकर राख हो गए।
नवीन शक्ति: "क्रोध-बिंदु"
इस त्रिशूल ने त्रैत्य को एक नई शक्ति दी: क्रोध-बिंदु।
अब वह किसी भी इंसान, पशु, या वस्तु का भीतर का गुस्सा पहचान सकता था… और उसे इतना भड़का सकता था कि वो खुद अपने आप को खत्म कर ले।
इस शक्ति के आने के बाद… त्रैत्य को हाथ लगाने की ज़रूरत नहीं थी।
वो बस सामने खड़ा होता… और लोग खुद ही मरने लगते।
दूसरा बलिदान: स्वामी द्विजराज
त्रैत्य अब सीधे कामाख्या मंदिर की ओर बढ़ा।
वहाँ पर एक संत रहते थे — स्वामी द्विजराज।
उन्हें माँ कामाख्या का वरदान प्राप्त था।
वो आँखें बंद करके भी इंसान की आत्मा का रंग देख सकते थे।
जैसे ही त्रैत्य उनके सामने आया — द्विजराज की आँखें अपने आप खुल गईं।
उन्होंने कहा —
“तू वो है, जो धर्म की छाया से भी डरता है… पर जिसे रोका न जाए, बस चेताया जा सकता है।”
त्रैत्य ने पूछा —
“क्या तू मुझे रोकेगा?”
द्विजराज बोले —
“नहीं, मैं सिर्फ तुम्हारे लिए एक दर्पण हूँ — तेरा अंत तू खुद ही देखेगा।”
त्रैत्य ने उसकी आँखों में झाँका…
और पहली बार — वो डोल गया।
द्विजराज की आँखों में अग्नि नहीं, करुणा थी।
करुणा ने त्रैत्य की चेतना में हलचल पैदा कर दी।
वो वहाँ से तुरंत चला गया… लेकिन जाते-जाते उसने द्विजराज का मंदिर छाया से भर दिया।
अब वह मंदिर — जहां हर कोई चैन की नींद पाता था — एक भयानक दुःस्वप्नों की जगह बन चुका था मंदिरों में नहीं।
अब पूरी दुनिया में बदलाव
त्रैत्य अब कामाख्या का त्रिशूल लिए निकल पड़ा था।
हर शहर, हर गाँव में लोग अचानक गुस्से में आकर एक-दूसरे को मारने लगे।
भाई ने भाई को मारा,
बच्चे सपनों में चिल्लाकर उठने लगे,
और हर मंदिर की मूर्ति — रोने लगी।
अब धर्म सिर्फ किताबों में बचा था,
अंत में
इस सबके बीच… कहीं दूर, एक वीर बालक — जो अभी तक एक सामान्य जीवन जी रहा था —
उसे पहली बार सपने में कोई आवाज़ आई:
“जागो…
वो शक्ति तुम्हारे अंदर है, जो त्रैत्य को रोक सकती है…”