shadow of strength in Hindi Motivational Stories by Dayanand Jadhav books and stories PDF | मजबूती की परछाई

Featured Books
Categories
Share

मजबूती की परछाई


“यार पापा, बड़े बेदर्द थे आप…”

ये शब्द मेरे होठों पर उस रोज खुद-ब-खुद आ गए जब मैंने पहली बार अपने बेटे को साइकिल चलाना सिखाने के लिए पीछे से हाथ हटाया। वह थोड़ा डगमगाया, गिरा, और मेरे सामने रोने लगा। मैं भी भीगी आँखों के साथ मुस्कराया, और शायद वहीं पहली बार मुझे अपने पापा की 'बेदर्दी' समझ आई।

मेरा एक बेटा है और मेरी पत्नी  एक स्कूल में टीचर है। लेकिन इस कहानी का मुख्य पात्र न मैं हूँ, न बेटा, न पत्नी। यह कहानी मेरे और मेरे पापा के बीच की एक लंबी, गहरी, और अस्फुट बातचीत है—जो मैं तब से कर रहा हूँ जब उन्होंने हमेशा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।

बचपन में जब भी गिरता, माँ दौड़ती थीं, गोद में उठा लेती थीं, रोते हुए मुझे सीने से चिपका लेती थीं। और तभी एक बड़ी हथेली आती थी, माँ की गोद से खींचकर मुझे ज़मीन पर खड़ा कर देती थी। “मजबूत बनो”, पापा कहते।

तब लगता था—बिलकुल बेदर्द हैं। कोई पिता अपने बेटे के आँसू क्यों नहीं पोछता?

पार्क में झूले से गिरा था एक बार। कोहनी छिल गई थी, खून बह रहा था। मैंने दर्द से आँखें मींच ली थीं और पापा की तरफ देखा था। उन्होंने सिर्फ एक नज़र डाली और कहा—“कुछ नहीं हुआ, चलो खड़े हो जाओ। मजबूत बनो।”

मेरी ज़िंदगी का पहला सामाजिक युद्ध—पहला स्कूल दिन। माँ ने बस्ता बाँधा, बाल संवारे, माथे पर तिलक लगाया। और पापा ने मुझे स्कूल तक बाइक पर बिठाकर छोड़ा।

दरवाज़े पर आते ही मैं रो पड़ा, भीड़ में खोने से डर गया। पापा ने देखा, लेकिन आगे बढ़कर गले नहीं लगाया। बस बोले—“ज़िंदगी में अकेले चलना सीखो, मजबूत बनो।”

मेरे आँसू सूखते नहीं थे, पर उनके चेहरे पर कभी शिकन नहीं दिखी।

जब उम्र बढ़ी और शरीर के साथ सवाल भी बढ़े, तो माँ के जवाबों में मिठास थी और पापा की चुप्पी में एक ठंडापन।

जब मुझे पहली बार असफलता का स्वाद लगा—इंटर बोर्ड्स में एक विषय में कंपार्टमेंट आई—मैं डरते हुए रिज़ल्ट लेकर पापा के पास गया। उन्होंने मेरी आँखों में झाँका, और बस इतना कहा, “गलतियों से भागो मत, मजबूत बनो।”

उसी शाम उन्होंने चुपचाप ट्यूशन फीस भर दी, लेकिन कोई थपकी, कोई सांत्वना नहीं दी।

जब भी मैं बीमार पड़ता, माँ मेरी पसंद का खाना बनातीं, माथा सहलातीं। लेकिन पापा?

पापा एक बार भी कमरे में नहीं आते। पर मैं यह कभी नहीं देख पाया कि वे मेरे लिए बाहर से दवाइयाँ खुद लाकर रखते थे। रात में माँ के साथ जागते थे। और सुबह उठने से पहले मेरे कमरे की खिड़की खोल देते ताकि ताज़ी हवा आ सके।

उनकी देखभाल करने की भाषा मेरी समझ से परे थी।

जब मैं पच्चीस का हुआ, तब पापा साठ के पार हो चुके थे। रिटायर होने वाले थे। एक दिन ऑफिस से लौटते हुए देखा—पापा बालकनी में अकेले बैठे हैं, अख़बार में आँखें गड़ाए। घर में सन्नाटा था। माँ मायके गई थीं।

मैंने हिम्मत करके पूछा, “पापा, आपको अकेलापन नहीं लगता?”

उन्होंने अख़बार नीचे रखा, मेरी ओर देखा, और बोले—“मैं अकेला नहीं हूँ बेटा, मेरे साथ मेरी यादें हैं। तू अपनी दुनिया बसा रहा है, ये देखकर ही सुकून मिलता है।”

उस दिन पहली बार लगा, उनके भीतर एक समंदर है, जिसकी लहरें मैं कभी सुन नहीं पाया।

2017 की एक सुबह, पापा को सीने में दर्द हुआ। डॉक्टरों ने कहा—मायोकार्डिअल इंफ़ार्क्शन। आईसीयू में भर्ती हुए। चार दिन तक अस्पताल में सबने उम्मीदों की डोर थामे रखी।

पाँचवें दिन, उन्होंने मेरी तरफ देखा। होंठ हिले—“मजबूत बनो…”

वो उनके आखिरी शब्द थे।

मैं उस दिन मजबूत नहीं बन पाया। मैं फूट-फूट कर रोया।

पापा के जाने के बाद, उनके कमरे की दीवारों पर टंगे पुराने फोटो, अलमारी में रखी डायरी, चश्मे का केस, हर चीज मुझे खामोश कहानियाँ सुनाती रही।

डायरी के एक पन्ने में लिखा था—
“मेरे बेटे को रोता नहीं देख सकता, इसलिए खुद को सख्त बना लिया। अगर मैं कमजोर बनता, तो वह कभी मजबूत नहीं बन पाता।”

मैं फफक पड़ा था।

आज जब बेटा गिरकर रोता है, मैं उसे उठाकर सीने से लगाता हूँ… फिर एक पल बाद धीरे से नीचे उतार कर कहता हूँ, “मजबूत बनो।”

लेकिन अब समझ आ गया है—“मजबूत बनना” का मतलब सिर्फ आँसू रोकना नहीं होता, बल्कि उन्हें समझना, स्वीकार करना और फिर आगे बढ़ना होता है।

पापा, आप बड़े बेदर्द नहीं थे। आप तो उस मिट्टी के बर्तन की तरह थे, जो बाहर से सख्त होता है पर अंदर से गीली मिट्टी की नमी बचाए रखता है।

आज मैं भी वही बनना चाहता हूँ—एक ऐसा पिता, जो प्यार करे, पर मजबूत बनाए। जो आँसू पोछे, पर खुद के सामने सिखाए—कैसे टिका जाता है।

“पापा, अब भी अगर आप कहीं हैं, तो बस एक विनती है—
इस दुनिया में तब तक रहना, जब तक मैं तुम्हारे बिना जीना सीख न लूँ।
क्योंकि अभी भी...
मैं उतना मजबूत नहीं हूँ जितना आप समझते थे।”