the color of time in Hindi Motivational Stories by Dayanand Jadhav books and stories PDF | समय का रंग

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समय का रंग


सर्दियों की एक ठंडी सुबह थी। शहर की हलचल अभी शुरू नहीं हुई थी। सड़कों पर हलकी धुंध छाई हुई थी, और एक पुराना कॉफी हाउस अपनी रूटीन तैयारियों में जुटा था। उसी कॉफी हाउस की खिड़की के पास, एक अधेड़ उम्र का आदमी बैठा था — शांत, संयमी, और अंदर से जैसे किसी तूफ़ान को समेटे हुए।

उसका नाम था विवेक राणे।

कभी अपने कॉलेज के समय का टॉपर, जिसे भविष्य का सितारा कहा जाता था, आज ज़िंदगी के किनारे खड़ा था, अपनी ही कहानी को बिखरे पन्नों की तरह समेटने की कोशिश में।

विवेक पुणे के एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज से पासआउट हुआ था। उसके पास ज्ञान था, दृष्टि थी, और सबसे महत्वपूर्ण — एक स्पष्ट उद्देश्य। उसे देश के सबसे बड़े मल्टीनेशनल ग्रुप में नौकरी मिली थी। शुरुआती सालों में उसने खुद को साबित किया — समय पर प्रोजेक्ट्स, टीम लीडरशिप, क्लाइंट प्रेज़ेंटेशन — वह हर चीज़ में अव्वल था।

उसके माता-पिता, रिश्तेदार, यहाँ तक कि उसके पुराने दोस्त भी उसे देखकर गर्व से कहते, “देखो, विवेक ने हमारे मोहल्ले का नाम रोशन कर दिया।” हर कोई उसकी सफलता से चकाचौंध था।

लेकिन एक बात वह तब नहीं जानता था — वक़्त की किताब में पन्ने अपने आप नहीं पलटते, कभी-कभी झटके से फटते हैं।

एक बड़े प्रोजेक्ट में उसे टीम लीडर बनाया गया। क्लाइंट विदेश का था, काम अत्यंत जटिल। विवेक ने दिन-रात एक कर दिए। पर उसी दौरान उसकी माँ गंभीर रूप से बीमार पड़ गईं। वह निजी और पेशेवर ज़िम्मेदारियों के बीच झूलने लगा।

टीम के कुछ सदस्य उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगे — एक गलती, जो किसी भी इंजीनियर से हो सकती थी, उसकी ज़िम्मेदारी विवेक पर डाल दी गई। क्लाइंट नाराज़ हुआ, कंपनी का नाम खराब हुआ, और विवेक को बिना सही जांच के नौकरी से निकाल दिया गया।

वह स्तब्ध था।

कल तक जो लोग उसके साथ फोटो खिंचाते थे, आज नज़रें चुराने लगे। जिनके लिए वह काम आया था, वही अब उसे काम का न समझ रहे थे। हर तरफ़ ताने, उलाहने, और अफ़वाहें गूँज रही थीं।

विवेक ने कोर्ट में केस नहीं किया, न ही किसी से सफाई माँगी। उसने खुद से कहा, “जब सारा खेल वक़्त रचता है, तो मैं सिर्फ अपना किरदार निभाऊँगा।”

उसने कई छोटे-मोटे काम करने शुरू किए। कभी ऑनलाइन क्लासेस, कभी पार्ट-टाइम कोडिंग, कभी यूट्यूब चैनल। लेकिन कोई भी काम स्थिर नहीं था। अब उसे पैसों की नहीं, अपमान की चोट ज़्यादा लग रही थी।

वह जब अपने मोहल्ले में निकलता, तो पुराने परिचित आँखें फेर लेते। लोग फुसफुसाते — “कितना होशियार था, अब देखो…”

एक दिन, अपने सबसे पुराने दोस्त राघव से मिलने पहुँचा। राघव अब मोटिवेशनल स्पीकर बन चुका था, और एक चर्चित चेहरा था।

राघव ने उसे देखा और कहा, “तू हीरो था, और हीरो कभी गिरता नहीं, वह बस पल भर के लिए ठहरता है ताकि फिर ऊँची छलाँग लगा सके।”

विवेक की आँखें नम हो गईं। उसने पूछा — “राघव, सब कुछ तो खत्म हो गया। कौन मानेगा मेरी बात? किसे पड़ी है मेरी कहानी की?”

राघव ने कहा — “जिस दिन तू अपनी कहानी खुद के लिए बोलेगा न, उस दिन दुनिया खुद ब खुद सुनने लगेगी।”

उसी दिन से विवेक ने ब्लॉग लिखना शुरू किया — अपनी ज़िंदगी के अनुभवों पर, संघर्षों पर, हार पर और उन रिश्तों पर जो सिर्फ अच्छे वक़्त तक ही थे। उसका लेखन सच्चा था, अनुभवजन्य था, और सबसे ज़रूरी — दिल से था।

धीरे-धीरे उसके पाठक बढ़ने लगे। कुछ युवाओं ने लिखा, “सर, आपकी बातों ने मुझे आत्महत्या से बचा लिया।”
कुछ महिलाओं ने लिखा, “हम भी परिस्थितियों से हार चुके थे, लेकिन अब फिर से लड़ेंगे।”

उसने “Time Talks” नाम से एक डिजिटल मंच शुरू किया, जहाँ लोग अपनी जीवन-कथाएँ साझा करते थे। उसके अनुभवों को सुनने के लिए कॉलेज, कंपनियाँ, यहाँ तक कि एनजीओ तक उसे आमंत्रित करने लगे।

अब उसकी वही मज़ाक उड़ाने वाले लोग, उसे प्रेरणा मानने लगे। वह जहाँ जाता, तालियाँ बजतीं। पर वह जानता था, यह सब वक़्त का खेल है।

एक बार एक सेमिनार में उसने कहा —
“रिश्ता चाहे कोई भी हो — दोस्ती, परिवार, सहकर्मी — याद रखो, जिससे हम आशा रखते हैं, वही हमारी ज़िंदगी का तमाशा करते हैं। और जब हम उनके काम नहीं आते, तब उनका असली रंग सामने आता है।”

भीड़ में सन्नाटा था, पर दिलों में तूफ़ान था।

उसकी बातों में जो असर था, वह किताबों से नहीं, अनुभवों से आया था। उसने रिश्तों को जिया, खोया और फिर समझा।

विवेक ने कभी भी अपने अतीत को छुपाया नहीं। उसने हर मंच पर कहा, “मैं वह आदमी हूँ जो गिरा, जिसे सबने छोड़ा, जिसे दोषी ठहराया गया। लेकिन मैं आज भी खड़ा हूँ, क्योंकि मैंने खुद को कभी दोषी नहीं माना।”

उसने कई युवाओं को उनके करियर में मार्गदर्शन दिया, उन लोगों को आत्मबल दिया जिन्हें वक़्त ने हरा दिया था।

आज उसकी खुद की कंपनी है, जहाँ वह संघर्षरत लोगों को काम देता है। वह सिखाता है कि — कभी-कभी इंसान ग़लत नहीं होता, पर उसकी परिस्थितियाँ उसे ग़लत साबित कर देती हैं।

आज विवेक के पास सब कुछ है — नाम, सम्मान, संतुलन — लेकिन वह बदला नहीं, वह और विनम्र हो गया। वह अब भी अपने उसी पुराने कॉफी हाउस में जाता है, उसी खिड़की के पास बैठकर कुछ न कुछ लिखता है।

उसने एक नई पीढ़ी को यह सिखाया है कि —
समय जब अच्छा होता है, तो आपकी गलती भी मज़ाक लगती है।
जब समय ख़राब होता है, तो आपकी हँसी भी गलती बन जाती है।
और जब समय बुरा होता है, तो लोग आपका हाथ नहीं, आपकी गलतियाँ पकड़ते हैं।
लेकिन याद रखो, समय ही सबसे बड़ा रचयिता है, और जब तक आप किरदार निभाते रहते हैं, कहानी अधूरी नहीं रहती।

विवेक की कहानी यह बताती है कि हार और अपमान अंत नहीं होते, वे शुरुआत के बीज होते हैं। बस अपने भीतर की आवाज़ को सुनो, क्योंकि वही आवाज़ वक़्त से भी ज़्यादा सच्ची होती है।