छोटे से कस्बे के एक संकरे मोहल्ले में रामस्वरूप अपनी छोटी सी दुनिया में जी रहा था। उम्र होगी कोई पचपन की, पीठ थोड़ी झुक गई थी, लेकिन मेहनत की आदत ने शरीर को अब भी मज़बूत बनाए रखा था। धूप, बरसात, सर्दी–हर मौसम में साइकिल पर दूध के डिब्बे टांग कर गलियों में घूमता और लोगों तक ताज़ा दूध पहुँचाता।
उसका बेटा रोहित, शहर के बड़े कॉलेज में पढ़ रहा था। शुरू में जब दाखिला हुआ था, तब रामस्वरूप ने अपनी बीवी के गहने गिरवी रखे, कुछ उधार लिया और खुद की ज़रूरतें काटकर रोहित को भेजा। “बेटा पढ़-लिख जाएगा, तो हमारी गरीबी मिट जाएगी”—इसी उम्मीद में वो हर सुबह चार बजे उठ जाता, बर्फ जैसे ठंडे पानी से नहाकर साइकिल उठाता और निकल पड़ता।
शहर में रोहित की नई दुनिया बस चुकी थी। क्लासमेट्स ब्रांडेड कपड़े पहनते, महंगे मोबाइल रखते, कैफ़े में घंटों बैठे रहते। रोहित को अब अपने बाप की पुरानी साइकिल, फटे कपड़े और मेहनत करते चेहरे से शर्म आने लगी थी।
एक दिन कॉलेज में फ्रेंड्स ने पूछा, “तेरे डैड क्या करते हैं?”
रोहित ने हँसी में जवाब दिया, “छोटा-मोटा डेयरी बिज़नेस है… सप्लायर्स को मैनेज करते हैं।”
अंदर से वो जानता था कि उसका पिता एक मामूली दूधवाला है, लेकिन कहने की हिम्मत नहीं थी।
कभी-कभी जब पिता फ़ोन करते, तो रोहित व्यस्त होने का बहाना कर देता। व्हाट्सएप पर “Seen” का जवाब न आता था, और कॉल की जगह “Call you later” का मेसेज जाता था।
लेकिन रामस्वरूप को कभी शिकायत न हुई। हर महीने रोहित की फ़ीस, किराया, किताबों के पैसे समय से पहुँचते। खुद के लिए पुराने कपड़ों में रह जाता, पर बेटे के लिए हर नया सत्र एक नई उम्मीद लेकर आता।
समय बीता। रोहित ने पढ़ाई पूरी की और मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी लग गई। पैसे आने लगे, लाइफ़स्टाइल बदल गया। अब वो फ्लाइट्स में चलता, फाइव स्टार में खाना खाता और अंग्रेज़ी में सोचने लगा था।
एक दिन ऑफिस की एक पार्टी में किसी ने पूछा, “आपके पिता क्या करते हैं?”
रोहित हिचकिचाया। सोच में पड़ गया। फिर बोला, “रिटायर्ड हैं… पहले दूध का बिज़नेस था।”
उसी शाम रोहित को अपने कस्बे लौटना पड़ा—उसके पिता बीमार थे।
जब वो घर पहुँचा, तो देखा पिता बिस्तर पर लेटे हैं। चश्मा नीचे रखा है, आँखों में धुंध सी है लेकिन चेहरे पर वही मुस्कान। कमरे में दवाइयों की गंध है, पर सामने रखा एक पुराना ऐल्बम भी, जिसमें रामस्वरूप और रोहित की बचपन की तस्वीरें थीं।
“आ गया बेटा?” पिता ने धीमी आवाज़ में पूछा।
“हाँ पापा… अब ठीक हो जाइए,” रोहित ने आँखें छिपाते हुए कहा।
पिता ने काँपते हाथों से उसका हाथ थामा, “पता है बेटा, मुझे गर्व है तुझ पर। तू बड़ा आदमी बन गया।”
रोहित का गला भर आया। वो कुछ नहीं कह पाया।
पिता ने फिर कहा, “मैं तो बस चाहता हूँ, तू जहाँ भी जा, ये मत भूलना कि तू किसी ग़रीब का बेटा है… लेकिन तेरा बाप था, है, और जब तक साँस है, तेरे साथ रहेगा। चाहे जैसे भी हालात हों, बाप का होना ही बड़ी दौलत होती है।”
इतना कहकर वे सो गए।
अगली सुबह रामस्वरूप नहीं रहे।
रोहित ने पिता का अंतिम संस्कार किया, गाँव वालों ने कहा, “तू बहुत भाग्यशाली है, तुझे रामस्वरूप जैसे बाप मिले। उन्होंने अकेले तुझे पाला, पढ़ाया, और आदमी बनाया।”
उस दिन रोहित ने अपने कपड़े बदले। अपने पिता की पुरानी साइकिल को साफ किया। एक बाल्टी में दूध भरकर मोहल्ले के उसी रास्ते से गुज़रा, जहाँ कभी उसके पिता गुज़रा करते थे।
लोग देखते रहे। किसी ने कहा, “रामस्वरूप का बेटा है, उसी की तरह मेहनती निकला।”
पर रोहित अब सिर्फ मेहनत नहीं कर रहा था। वो अपने पिता को महसूस कर रहा था—उसकी साइकिल में, उस सड़क की धूल में, दूध के छींटों में, और उस नाम में, जिसे उसने छुपाया था।
अब वह हर मंच पर गर्व से कहता है—“मैं रामस्वरूप का बेटा हूँ। वो दूधवाले थे, लेकिन मेरी सबसे बड़ी दौलत थे।”
वक़्त बीत गया, लेकिन रोहित ने अपने पिता की एक चीज़ कभी नहीं छोड़ी—वो थी ईमानदारी, आत्मसम्मान और खुद की पहचान। आज जब उसके पास गाड़ी है, बंगला है, नाम है—तब भी उसके ऑफिस की टेबल पर एक फ़ोटो है—जिसमें एक वृद्ध आदमी साइकिल पर दूध ले जा रहा है, और उसके चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक है।
हर बार जब कोई पूछता है, “ये कौन हैं?
”
तो रोहित मुस्कुरा कर कहता है, “मेरे बाप… मेरी दौलत।”